भू-आकृतिक प्रक्रियाएं
भू पृष्ठ पर विविध प्रकार के भौतिक लक्षण मौजूद हैं। इनमें से प्रत्येक का अपना एक स्वरूप, गतिकी तथा विलक्षणता है। इसे 'भू-आकृति' कहते हैं। भू-पर्पटी गत्यात्मक है तथा यह क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर दिशाओं में संचालित होती रहती है। निश्चित तौर पर यह भूतकाल में वर्तमान गति की अपेक्षा थोड़ी तीव्रतर संचालित होती थी। इस कारण धरातलीय स्थलाकृतियाँ कभी स्थिर नहीं रहती हैं। उनमें कुछ-न-कुछ परिवर्तन होता रहता है। स्कॉटिश भूगोलवेत्ता 'जेम्स हटन' ने अपनी पुस्तक "थ्योरी ऑफ दि अर्थ विद प्रूफ एंड इलस्ट्रेशंस (1785 ई.) में भू-वैज्ञानिक परिवर्तनों के चक्रीय स्वभाव को पहचाना। सन् 1802 ई. में जॉन फ्लेफेयर ने हटन महोदय के विचारों को वैज्ञानिक रूप देकर उन्हें प्रकाशित कराया। हटन महोदय के अनुसार “वर्तमान भूतकाल की कुंजी है।" उनका मानना था कि जिस प्रकार वर्तमान समय में स्थलाकृतियों का विकास हो रहा है, वैसा ही विकास भूतकाल में भी हुआ होगा। भू-गर्भिक इतिहास में जलवायु में हुए परिवर्तन स्पष्ट करते हैं कि अपरदन के प्रक्रम ही नहीं बदले अपितु उनकी तीव्रता में भी परिवर्तन हुआ है। कार्बोनीफेरस तथा प्लीस्टोसिन युगों में हिमानी प्रक्रम अधिक सक्रिय रहा। इसी भाँति ज्वालामुखी क्रिया भी एक समान नहीं रही। प्रक्रिया वर्तमान समय की तरह ही भूतकाल में भी सक्रिय रही होगी। अपरदन के सभी कारकों ने वर्तमान की तरह ही भूतकाल में भी कार्य किया। चट्टानी संरचना, जलवायु परिवर्तन, सागर तली में परिवर्तन स्थलों में उत्थान व अवतलन आदि कारकों के कारण प्रक्रमों की तीव्रता में परिवर्तन हुआ है।
भूगर्भिक संरचना में चट्टानों की प्रकृति, उनकी स्तर व्यवस्था तथा रासायनिक संगठन को सम्मिलित किया जाता है। भूगर्भिक संरचना स्थलरूपों को सर्वाधिक प्रभावित करती है। डेविस महोदय ने संरचना, प्रक्रम एवं अवस्था को स्थलाकृतियों के विकास में महत्वपूर्ण कारक माना। उनकी अभिधारणा थी कि सामान्य प्रक्रियाएँ लंबे समय के अन्तराल में काम करती हुई बड़े-बड़े परिवर्तन ला सकती हैं। उन्होंने प्रेक्षणों के आधार पर यह युक्तिसंगत निष्कर्ष निकाला कि जल एवं वायु की क्रियाओं से चट्टानों का धीरे धीरे क्षय तथा विघटन हो जाता है। हटन महोदय ने पर्वतों को अपरदित होते, नदियों द्वारा अपरदित मलबे को समुद्र तक ले जाते, समुद्री तरंगों द्वारा शैलों को तोड़ते, बालू तथा पंक को तली पर स्थिर होते और फिर समुद्री अधः स्तल पर दबते हुए देखा। प्रकृति सभी कालों में एकसमान आचरण करती है। चार्ल्स लीयस ने इसे एकरूपता का नियम कहा है। वास्तव में भौतिक एवं रासायनिक नियम ही एकसमान रहते हैं और ये भू-वैज्ञानिक क्रियाओं को निर्धारित करते हैं।
भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ Geomorphic processes
भू-आकृतिक प्रक्रियाओं से तात्पर्य उन सभी भौतिक तथा रासायनिक परिवर्तनों से है जो पृथ्वी के धरातलीय स्वरूप के रूपान्तरण को प्रभावित करते हैं। धरातलीय स्थलाकृतियाँ कभी स्थिर नहीं रहतीं, उनमें कुछ-न-कुछ परिवर्तन होता रहता है। पृथ्वी की शक्तियाँ प्रतिक्षण कार्यशील रहती हैं। आन्तरिक शक्तियाँ धरातल पर विषमताएँ उत्पन्न करती हैं, जबकि बाह्य शक्तियाँ उन विषमताओं को कम करने का कार्य निरंतर करती रहती हैं। भू-पटल पर परिवर्तन लाने वाली शक्तियाँ निम्नांकित हैं:
(1) अन्तर्जात बल (Endogenetic Forces)
(2) बहिर्जात बल (Exogenetic Forces)
उपर्युक्त विवेचन से यह सुस्पष्ट होता है कि “धरातल के पदार्थों पर अंतर्जनित एवं बहिर्जनिक बलों द्वारा भौतिक दबाव तथा रासायनिक क्रियाओं के कारण भूतल के विन्यास में परिवर्तन को भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ कहते हैं।,,
प्रकृति के किसी भी बहिर्जनित तत्व (यथा-जल, पवन, हिमानी, समुद्री लहरें आदि), जो धरातल के पदार्थों का अधिग्रहण (acquire) तथा परिवहन (एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरण) करने में सक्षम है, को भू-आकृतिक कारक' कहा जाता है। जब भू-पर्पटी पर ये तत्व ढाल प्रवणता के कारण गतिशील हो जाते हैं तो पदार्थों को हटाकर ढाल के सहारे ले जाते हैं और निचले भागों में निक्षेपित कर देते हैं। भू आकृतिक प्रक्रियाएँ तथा भू-आकृतिक कारक विशेषकर बहिर्जनिक तत्व को यदि स्पष्ट रूप से अलग-अलग न कहा जाए तो इन्हें एक समझा जा सकता है, क्योंकि ये दोनों एक ही होते हैं। अर्थात् भू-गर्भिक कारक अथवा साधन एक प्राकृतिक माध्यम होता है जो भूमि के पदार्थों को सुरक्षित करके परिवहन करने में
सक्षम हो। बहता जल, भौम जल (underground
water), हिमानी, पवन, समुद्री धाराएँ, ज्वार-भाटा, सागरीय लहरें, सुनामी वृहत् भू-आकृतिक
कारक हैं क्योंकि ये पृथ्वी के धरातल के एक भाग से पदार्थ को हटाकर, परिवहन कर उन्हें
अन्य स्थानों पर निपेक्षित करते हैं। अधिकांश भू-आकृतिक कारक पृथ्वी के वायुमंडल में
उत्पन्न होते हैं और गुरुत्व बल उनका दिशा-निर्देशन करता है। हालांकि गुरुत्व बल स्वयं
एक भू-आकृतिक कारक नहीं है, क्योंकि वह पदार्थ को न तो सुरक्षित करता है और न अन्यत्र
ले जा सकता है तथापि गुरुत्व बल, ढाल के सहारे सभी गतिशील पदार्थों को सक्रिय बनाने
वाली दिशात्मक (directional)
बल होने के साथ-साथ धरातल के पदार्थों पर दबाव (stress) डालता है। यह दबाव (अप्रत्यक्ष
गुरुत्वाकर्षण प्रतिबल) लहरों एवं ज्वार-भाटा जनित धाराओं को क्रियाशील बनाता है। अर्थात्
हम कह सकते हैं कि गुरु वाकर्षण एवं ढाल - प्रणवता के अभाव में गतिशीलता कदापि संभव नहीं है। अतः इसके अभाव में अपरदन, परिवहन
एवं निक्षेपण कदापि संभव नहीं होगा गुरुत्वाकर्षण बल के कारण ही भू-पृष्ठ पर मौजूद
सभी वस्तु (सजीव और निर्जीव) धरातल के संपर्क में रहते हैं। गुरुत्वाकर्षण वह बल है
जो भूतल के सभी पदार्थों के संचलन को प्रारंभ करता है। संचलन कोई भी हो चाहे वे पृथ्वी
की सतह पर हो या पृथ्वी के अन्दर, प्रवणता के कारण ही घटित होते हैं, जैसे-ऊँचे उठे
भाग से निचली सतह की ओर तथा उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर ।
1.अन्तर्जात शक्तियाँ (Endogenetic Forces) :
भू-गर्भ में अदृश्य
रूप से क्रियाशील शक्तियों को अन्तर्जात शक्तियाँ भी कहा जाता है। इन्हें निर्माणकारी
शक्तियाँ भी कहा जाता है। इनकी उत्पत्ति पृथ्वी में पर्याप्त गहराई पर ताप, आन्तरिक
चट्टानों में प्रसार एवं संकुचन अथवा रेडियोधर्मी तत्वों द्वारा ताप के विकिरण आदि
से होती है। संभवतः भू-गर्भ में उच्च तापमान ही भू-पटल पर उत्पन्न होने वाले परिवर्तनों
के लिए उत्तरदायी है। इन भू-गर्भिक शक्तियों को विवर्तनिक शक्तियाँ भी कहा जाता है।
अन्तर्जात शक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं। ये हैं क्षैतिज तथा लम्बवत्
अन्तर्जात शक्तियों के द्वारा दो प्रकार की हलचलें होती हैं-
(i) पटल विरूपणकारी हलचलें (ii) आकस्मिक हलचलें
(i) पटल विरूपणकारी हलचलें (Diastrophic Movements):
पटल विरूपण से तात्पर्य उन सभी प्रक्रमों से है जिनका भू-पटल के उन्मन्जन, निमन्जन या किसी एक-एक भाग के संबंध में दूसरे भाग के विस्थापन और टूटने-मुड़ने तथा संचलित होने में योग देता है ।
भू-गर्भ क्षैतिज बल
के कारण धरातल पर तनाव एवं संपीड़न होता है। संपीड़न से धरातल पर बलन पड़ते हैं तथा
तनाव से भू-पटल भंग होता है। पटल विरूपण दो प्रकार से होता है
(a) महादेश रचनाकारी हलचल
(b) पर्वत निर्माणकारी हलचल ।
(a)महादेश रचनाकारी हलचल (Epeirogenetic Movement):
'Epeirogenetic' ग्रीक भाषा के 'Epeirost(एपीरोज) तथा 'Genic'
(जेनिक) शब्दों से मिलकर बना
है, जिसका शाब्दिक अर्थ 'महाद्वीप' तथा 'उत्पत्ति' होता है । अस्तु, महादेश रचनाकारी
शक्तियाँ वे हैं जिनसे महाद्वीपों की उत्पत्ति होती है। इन हलचलों से महाद्वीपों का
धरातल या तो ऊपर उठता है या नीचे धँसता है। धरातल का उठना या धँसना सामान्य रूप से
होता है।
(b) पर्वत-निर्माणकारी हलचल (Orogenetic Move ment):
'Orogenetic ग्रीक भाषा के शब्द 'Oros (ओरोज) तथा 'Genic' (जेनिक) से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ पर्वतों की
उत्पत्ति से है इस हलचल के कारण ही पर्वतों का निर्माण होता है । इस प्रकार की हलचल
भू-पटल पर समानान्तर होती है। अतः धरातल पर तनाव (tension)
तथा संपीडन (compression) होता है। इससे धरातल
पर 'वलन' एवं 'भ्रंशन' पड़ते हैं।
वलन (Folding):
अन्तर्जात शक्तियों
द्वारा उत्पन्न क्षैतिज भू-संचलनों के कारण पृथ्वी तल में मोड़ पड़ जाते हैं। संपीडन
शक्ति की अधिकता के कारण अपेक्षाकृत मुलायम चट्टानों के समतल संस्तर ऊपर-नीचे लहरनुमा
आकृति में मुड़ जाते हैं, जिन्हें 'वलन' (folds) कहा जाता है। इस क्रिया में ऊँचा उठा हुआ भाग 'अपनति'
(anticline) तथा नीचे धँसे भाग को 'अभिनति' ( syncline ) कहा जाता है। जब अपनति के अन्तर्गत अनेक छोटी-छोटी
अपनतियों एवं अभिनतियों का निर्माण हो जाता है, तब उस आकृति को समपनति (Anticlinorium) कहा जाता है। यह वलित
पर्वतीय क्षेत्रों में दृष्टिगोचर होती है। जब एक अभिनति के अन्दर असमान सम्पीडन के
कारण छोटी-छोटी अभिनतियों एवं अपनतियों का निर्माण हो जाता है, तब उस अभिनति विशेष
को समभिनति (Synclinorium) कहते हैं । इसकी आकृति पंखाकार वलन के समान होती है।
वलन के प्रकार Types of Folds
1.
सममित वलन (Symmetrical Fold) : इस प्रकार के वलन में वलन की दोनों भुजाओं का झुकाव
समान रूप में होता है। यह खुले प्रकार का वलन होता है। स्विट्जरलैण्ड का जूरा पर्वत
इसका उत्तम उदाहरण है।
2. असममित वलन (Asymmetrical fold):
इस प्रकार के वलन की एक भुजा
तो सामान्य झुकाव वाली होती है लेकिन दूसरी भुजा का झुकाव अधिक होता है एवं वह छोटी
होती है। ब्रिटेन का दक्षिणी पेनाइन पर्वत इसका उत्तम उदाहरण है।
3. एकदिग्नत वलन (Monoclinal fold):
इस प्रकार के वलन में वलन की एक भुजा तो सामान्य झुकाव तथा ढाल वाली होती है जबकि
दूसरी भुजा उस पर समकोण बनाती है एवं उसका ढाल खड़ा होता है। उदाहरणार्थ-आस्ट्रेलिया
का ग्रेट डिवाइडिंग रेंज ।
4. अधिवलन या बाह्य उत्क्रम वलन (Over fold or Over thrust fold):
उत्क्रम (Thrust) के कारण ऊपर उठे भाग
को अधिवलन कहते हैं। ज्ञातव्य है कि जब अत्यधिक सम्पीडन के कारण परिवलन मोड़ का एक
खंड खिसक कर दूसरे खण्ड पर चढ़ जाता है, तो इस क्रिया को उत्क्रम कहते हैं। भारत में
कश्मीर की पीरपंजाल श्रेणी और गढ़वाल हिमालय इसका उत्तम उदाहरण है
5. समनत वलन (Isoclinal fold):
जब क्षैतिज संचलन
के कारण किसी वलन की दोनों भुजाओं पर दोनों दिशाओं में समान संपीडनात्मक बल क्रियाशील
होता है, तब उसकी दोनों भुजाएँ समान रूप से झुककर एक दूसरे के समानान्तर हो जाती है।
ऐसे वलन को समनत वलन कहा जाता है। समनत वलन की दिशा का क्षैतिज होना आवश्यक नहीं है।
पाकिस्तान का कालाचिंता पर्वत इसका उत्तम उदाहरण है ।
6. परिवलन (Recumbent fold):
अत्यधिक तीव्र क्षैतिज
संचलन के कारण जब वलन की दोनों भुजाएँ क्षैतिज रूप में समानान्तर हो जाती हैं, तो उसे
परिवलन कहते हैं। ब्रिटेन का कैरिक कैंसल पर्वत इसका उत्तम उदाहरण है। जब परिवलित मोड़
की एक भुजा टूटकर बहुत दूर अलग जा गिरती है और अन्य प्रकार की चट्टानों पर चढ़ जाती
है तो उसे ग्रीवाखण्ड या नापे (Nappes) कहते हैं। उदाहरणार्थ कश्मीर घाटी एक ग्रीवाखंड
पर ही अवस्थित है ।
7. पंखाकार वलन (Fan Folds) :
क्षैतिज संचलन का
समान रूप से क्रियाशील न होने के कारण विभिन्न स्थानों में संपीडन की भिन्नता के साथ
ही पंखे के आकार की वलित आकृति का निर्माण हो जाता है, जिसे पंखा वलन कहते हैं ।
भ्रंशन (Faulting): भू-पटल पर संपीडन के कारण तनाव की स्थिति उत्पन्न
होती है। इससे वलन और भ्रंशन उत्पन्न होते हैं । आन्तरिक बलों के कारण क्षैतिज हलचलें
होती हैं जिनसे शैलों में चटकनें या दरारें पड़ जाती हैं। यदि तनाव साधारण होता है
तो भू-पटल पर केवल दरारें पड़ती हैं किन्तु यदि तनाव प्रबल होता है तो शैलों का स्थानान्तरण
हो जाता है। इस प्रकार भ्रंशतल के सहारे विस्थापित चट्टान भ्रंश कहा जाता है। इस प्रकार
"भ्रंश वह विभंग है, जिसके सहारे चट्टानें आपेक्षिक रूप से स्थानांतरित हो
जाती है।,,
भ्रंशन के प्रकार Kinds Of Faults
1.सामान्य भ्रंश (Normal
Faults): जब कभी चट्टानों
में दरार पड़ जाने के कारण उसके दोनों खण्ड विपरीत दिशा (Tension) में सरक जाते हैं, तो उसे सामान्य भ्रंश कहते हैं
। भ्रंश के इस प्रकार से भूतल का प्रसार होता है।
2. व्युत्क्रम भ्रंश (Reverse Fault) :
चट्टानों में दरार पड़ने से जब चट्टान के दोनों
खण्ड आमने-सामने (Compression Force) खिसकते हैं तो निर्मित भ्रंश को व्युत्क्रम भ्रंश
कहते हैं। इस प्रकार के भ्रंश में चट्टान का एक खण्ड दूसरे खंड पर चढ़ जाता है। इस
क्रिया को उत्क्रम (Thrust) कहते हैं। यही कारण है कि व्युत्क्रम भ्रंश को उत्क्रम भ्रंश
(Thrust Fault) भी कहा जाता है। इस प्रकार के भ्रंश से सतह फैलाव पहले की तुलना में घट जाता है
तथा कगारों (Escarpment) का निर्माण होता है। जैसे पश्चिमी घाट कगार, विंध्यन कगार क्षेत्र
में लटकती घाटियाँ व जलप्रपातों का निकास।
3. सोपानी भ्रंश (Step Fault):
जब किसी भू-भाग में कई भ्रंशन का इस तरह निर्माण
होता है कि सभी भ्रंश तल (Fault Plane) के ढाल एक ही दिशा में हों तो उसे सोपानी या सीढ़ीदार
भ्रंश (Step Fault) कहते हैं। इसके निर्माण हेतु यह आवश्यक है कि भ्रंश द्वारा अधःक्षेपित
खंड का अधोगमन एक ही दिशा में हो । यूरोप की राइन घाटी सोपानी भ्रंश का उत्तम उदाहरण
है।
भ्रंश के कारण भू-पृष्ठ
पर नाना प्रकार की भू-आकृतियों
(i) रैम्प घाटी (Ramp valley):
इस प्रकार की घाटी
का निर्माण उस परिस्थिति में होता है जब दो भ्रंश रेखाओं के बीच का स्तंभ अपने यथास्थिति
में ही रहे लेकिन संपीडनात्मक बल के कारण किनारे के दोनों स्तंभ ऊपर उठ जाएँ। असम की
ब्रह्मपुत्र घाटी, इसका उत्तम उदाहरण है ।
(ii) भ्रंश घाटी (Rift vally):
इस प्रकार की घाटी
का निर्माण उस परिस्थिति में होता है जब दो समानान्तर भ्रंशों का मध्यवर्ती भाग नीचे
धँस जाता है। भ्रंशघाटी को द्रोणी भी कहा जाता है। जर्मन भाषा में भ्रंश घाटी को ग्रैबन
( Graben ) कहा जाता है। पूर्वी
अफ्रीका की महान भ्रंश घाटी जो संसार की सर्वाधिक लंबी भ्रंश घाटी है, को देखकर सर्वप्रथम
महान भू-गर्भशास्त्री ग्रोगरी (Grogery) महोदय ने भ्रंश घाटी शब्द का प्रयोग किया था। इस भ्रंश घाटी में ही अफ्रीका की
प्रमुख झीलें न्यासा, विक्टोरिया, रूडोफ्ल व टैंगानिका स्थित हैं। यह भ्रंश घाटी उत्तरी
कोरिया से आरंभ होकर जोर्डन घाटी, अकाबा की खाड़ी, लाल सागर, अबीसीनिया और पूर्वी अफ्रीका
होती हुई शाम्बेजी नदी तक लगभग 5 हजार किमी की लंबाई में फैली हुई है। विश्व की अन्य
प्रसिद्ध भ्रंश घाटियों में जर्मनी में एक ओर बासजेस व हार्ज पर्वत तथा दूसरी ओर ब्लैक
फॉरेस्ट तथा ओडेन-वाल्ड पर्वत के बीच राइन भ्रंश घाटी (Rhine Rift Valley), स्कॉटलैण्ड में मिडलैण्ड भ्रंश घाटी, अफगानिस्तान
में पंजशीर घाटी मिश्र में राजाओं की घाटी, अंटार्कटिका महाद्वीप में टेलर घाटी, एशिया
का मृत सागर (Dead Sea), संयुक्त राज्य अमेरिका
के कैलिफोर्निया राज्य में स्थित सिलिकन वैली तथा मृतक घाटी (Death
Valley) जो उत्तरी अमेरिका का सबसे
निम्नतम (समुद्रतल से 86 मी० ऊँचा) स्थल है, उल्लेखनीय हैं। भारत में नर्मदा, ताप्ती
तथा ऊपरी दामोदर नदियों की घाटियाँ भ्रंश घाटी के अच्छे उदाहरण हैं। बेकाल झील, लाल
सागर और दक्षिणी आस्ट्रेलिया की स्पेन्सर की खाड़ी भी भ्रंश घाटियाँ ही हैं।
(iii) भ्रंशोत्थ पर्वत (Block Mountain ):
जब दो भ्रंशों के बीच का भाग
यथावत रहे एवं किनारे के भाग नीचे धंस जाये, तो ऊँचे उठे भाग को भ्रंशोत्थ पर्वत (Block Mountain) कहते हैं। इनका ढाल
एकदम खड़ा और शिखर समतल होता है। यूरोप में वॉसजेस और ब्लैक फॉरेस्ट, एशिया में पाकिस्तान
की साल्ट रेंज, संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी औरगन प्रान्त में स्कीन्स माउण्टेन
तथा वारनर एडवर्ड एवं क्लामथ झीलों के चारों ओर तथा यूटाह प्रान्त में वासाच रेंच,
कैलीफोर्निया में सियरा नेवेदा पर्वत जो संसार का सर्वाधिक विस्तृत ब्लॉक पर्वत है
तथा भारत का सतपुड़ा पर्वत आदि इसके उत्तम उदाहरण हैं ।
(iv) हॉर्स्ट पर्वत (Horst Mountain ) :
जब दो भ्रंशों के किनारे के
भाग यथावत रहे एवं बीच का भाग ऊपर उठ जाय तो उसे उठे भाग को हार्स्ट पर्वत कहते हैं।
जर्मनी का हो पर्वत इसका उत्तम उदाहरण है।
नोट रैम्प पाटी, अंश घाटी, ब्लॉक पर्वत तथा पर्वतप्राय
आकृति की दृष्टि से एकसमान लगते हैं। लेकिन भू संचालन की दृष्टि से वे विपरीत गतियों
के परिणाम होते हैं। अतः इसे चित्र में तीर द्वारा दिखाया गया है।
2.बहिर्जात शक्तियां (Exogenetic Forces):
आन्तरिक शक्तियाँ
रचनात्मक कार्य करती हैं, जबकि बहिर्जात शक्तियाँ आन्तरिक शक्तियों द्वारा निर्मित
स्थलाकृतियों की काट-छोट करती हुई नवीन स्थलाकृतियों को जन्म देती हैं और कालान्तर
में धरातल का निम्नीकरण करती है। इन्हें विनाशात्मक शक्तियाँ कहा जाता है। द्विवार्या
ने इन्हें श्रेणीकरण की शक्तियों कहा है।
बहिर्जात बल का भू-पटल पर
प्रमुख कार्य अनाच्छादन (denudation) होता है। इसके अन्तर्गत अपक्षय तथा अपरदन की सम्मिलित
क्रिया होती है अपक्षय में स्थैतिक क्रिया होती है, जबकि अपरदन में गतिशील क्रिया होती
है। भौतिक अपक्षय को विघटन एवं रासायनिक अपक्षय को वियोजन कहते हैं। उष्णकटिबंधीय आर्द्र
भागों में रासायनिक अपक्षय होता है। जबकि उष्ण व शुष्क मरुस्थलीय भागों में भौतिक अपक्षय
होता है। वे सभी क्रियाएँ जो धरातल को सामान्य तल पर लाने का प्रयास करती हैं, उन्हें
प्रवणता संतुलन की प्रक्रियाएं कहते हैं। बाह्य कारकों द्वारा स्थलीय धरातल के अपरदन
को निम्नीकरण (degradation) कहते हैं। धरातल की नीची जगहों को भरकर ऊँचा करना अधिवृद्धि
(aggradation) कहलाता है।
बहिर्जनिक प्रक्रियाएँ
अपनी ऊर्जा सूर्य द्वारा निर्धारित वायुमंडलीय ऊर्जा एवं अतर्जनित शक्तियों से नियंत्रित
विवर्तनिक (tectonic) कारकों से उत्पन्न प्रवणता से प्राप्त करती हैं। गुरुत्वाकर्षण
बल ढालयुक्त सतह वाले धरातल पर कार्यरत रहता है तथा ढाल की दिशा में पदार्थ को संचालित
करता है। प्रति इकाई क्षेत्र पर अनुप्रयुक्त बल को प्रतिबल (stress) कहते हैं। ठोस पदार्थ
में प्रतिबल 'धक्का एवं खिंचाव (push and pull) से उत्पन्न होता है। फलतः इससे विकृति उत्पन्न होती
है। धरातल के पदार्थों के सहारे सक्रिय बल अपरूपण प्रतिबल या विलगकारी दल ( shear stresses) होते हैं। यही प्रतिबल
चट्टानों एवं धरातल के पदार्थों को तोड़ता है। अपरूपण प्रतिबल का परिणाम कोणीय विस्थापन'
(angular displacement) या विसर्पण फिसलन' (slippag) होता है। भू-पृष्ठ के पदार्थ गुरुत्वाकर्षण प्रतिबल
के अतिरिक्त आणविक प्रतिबलों से भी प्रभावित होते हैं, जो अनेक कारकों यथा— तापमान
में परिवर्तन, क्रिस्टलन (crystallisation) एवं पिघलन द्वारा उत्पन्न होते हैं। रासायनिक प्रक्रियाएँ
सामान्यतः कर्णो (grains) के बीच के बंधन को कमजोर करते हैं तथा विलेय पदार्थों को घुला
देते हैं। इस प्रकार, भू-पृष्ठ के पदार्थों के पिण्ड (body)
में प्रतिबल का विकास अपक्षय,
बृहत् क्षरण, संचलन, अपरदन एवं निक्षेपण का मूल कारण है।
जैसा कि हम सभी जानते
हैं कि पृथ्वी (धरातल) के विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार के जलवायु प्रदेश पाये
जाते हैं। अस्तु, बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ भी एक- दूसरे प्रदेशों में भिन्न
भिन्न प्रकार की होती हैं। तापमान तथा वर्षा दो महत्वपूर्ण जलवायविक तत्व हैं, जो विभिन्न
प्रक्रियाओं को नियंत्रित करते हैं।
बहिर्जात शक्तियों
का प्रमुख कार्य अनाच्छादन करना होता है। मोंकहाउस के अनुसार अनाच्छादन में उन सभी
साधनों के कार्य सम्मिलित हैं जिनके द्वारा पृथ्वी तल के किसी भी भाग का अत्यधिक विनाश,
अपव्यय एवं हानि होती है ।
बहिर्जात शक्तियों
(अनाच्छादन) को दो भागों में विभाजित किया जाता है : (i) स्थैतिक शक्तियाँ एवं (ii) गतिशील शक्तियाँ
'स्थैतिक शक्तियाँ' एक ही स्थान पर रहकर कार्य करती हैं । यह क्रिया 'अपक्षय' (weathering) कहलाती है । 'गतिशील
शक्तियाँ' वे हैं, जिनके द्वारा अपक्षय क्रिया द्वारा एकत्रित किया गया अवसाद एक स्थान
से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है।
अनाच्छादन Denudation
पृथ्वी की आंतरिक
शक्तियों के धरातल पर अनेक प्रकार की विषमताएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इन विषमताओं को
दूर करने के लिए और भू-पटल को समतल बनाने के लिए मुख्य कार्य बाह्य शक्तियाँ करती हैं।
यही कारण है कि बाह्य शक्तियों को विनाशकारी शक्तियाँ भी कहा जाता है। इस प्रकार वे
संपूर्ण क्रियाकलाप (चट्टानों में काट-छाँट, घिसने और क्षीण बनने की क्रिया) जिसके
द्वारा असमतल धरातल पर समतलीकरण का कार्य होता है, अनाच्छादन (denudation) कहलाता है।
अनाच्छादन में दो
प्रकार की प्रक्रियाएँ कार्यशील होती हैं— (i) स्थैतिक एवं (ii) गतिशील स्थैतिक प्रक्रियाओं द्वारा चट्टानें टूटकर
अपने स्थान पर पड़ी रहती हैं, जबकि गतिशील प्रक्रियाओं (शक्तियों) द्वारा चट्टानों
के टूटे हुए पदार्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाये जाते हैं। इन्हें अलग-अलग अपक्षय
एवं अपरदन के रूप में जाना जाता है।
अनाच्छादन = अपक्षय
+ अपरदन
परिभाषा “अनाच्छादन में उन
सभी साधनों के कार्य सम्मिलित हैं जिनसे भू-पटल के किसी भाग का पर्याप्त विनाश, अपव्यय
तथा हानि होती है। इस उपलब्ध पदार्थ का अन्यत्र निक्षेप होता है तथा इससे अवसादी चट्टानें
निर्मित होती हैं।" -मोंकहाउस
अनाच्छादन में स्थैतिक
एवं गतिशील प्रक्रियाएँ होती हैं। स्थैतिक प्रक्रिया में कोई चट्टान अपने ही स्थान
पर टूट-फूट कर चूरामात्र हो जाती है। इसमें ताप, वर्षा, वनस्पति, जीव जन्तु, मानव आदि
कारकों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। गतिशील प्रक्रिया में चट्टानों का विदीर्ण होना,
विदीर्ण पदार्थ का परिवहन तथा निक्षेपण सम्मिलित होता है। इन स्थैतिक एवं गतिशील शक्तियाँ
को क्रमशः अपक्षय एवं अपरदन के रूप में जाना जाता है।
चट्टानों की संरचना,
जलवायु की दशाएँ, भूमि का स्वभाव तथा वनस्पति आदि का अपक्षय पर व्यापक रूप से प्रभाव
पड़ता है।
अपक्षय Weathering
जिन प्रक्रियाओं द्वारा
चट्टानें टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाती हैं। (disintegration)अथवा रासायनिक परिवर्तन द्वारा उनका क्षय (decay) होता है, उन्हें हम
अपक्षय या ऋतुक्षरण कहते हैं। इन प्रक्रियाओं का संबंध धूप, तापक्रम, वर्षा, पाला इत्यादि
जलवायु तत्वों से है, जिनकी सहायता से चट्टानों का विच्छेदन अथवा विखंडन (disintegration) और विघटन (decomposition) होता रहता है यही
कारण है कि इन प्रक्रियाओं को हम 'ऋतुक्षरण' कहते हैं। किन्तु ऋतुक्षरण केवल जलवायु-तत्वों
पर ही निर्भर नहीं करता बल्कि साथ-साथ चट्टानों का गठन, रासायनिक बनावट, कड़ापन, पारगम्यता,
जोड़ अथवा संभेद (joints) की उपस्थिति इत्यादि का भी ऋतुक्षरण पर प्रभाव पड़ता है। ऋतुक्षरण
को अपक्षय भी कहते हैं, किन्तु ऋतुक्षरण शब्द का व्यवहार ही अधिक उपयुक्त प्रतीत होता
है।
अपक्षय को मौसम एवं
जलवायु के कार्यों के माध्यम से शैलों के यांत्रिक विखंडन (mechanical) एवं रासायनिक वियोजन
अपघटन (decomposition) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
अपक्षयकर्त्ताओं में
सूर्यातप, पाला, आर्द्र वायु, जीव-जन्तु और पेड़-पौधे प्रमुख हैं। ये तत्व सभी जगह
सक्रिय नहीं होते । ये जिन कारकों से प्रभावित होते हैं उनमें चट्टानों की बनावट, भूमि
की ढाल, जलवायु संबंधी दशाएँ और वनस्पति की उपस्थिति अनुपस्थिति प्रमुख हैं।
अपक्षय को नियंत्रित करने वाले कारक Factors controlling weathering
पृथ्वी के किस भाग
में अपक्षय का स्वरूप किस प्रकार का हो अथवा वहाँ भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय
में से कौन-सा स्वरूप महत्वपूर्ण हो सकता है, यह मुख्यतः निम्न कारकों एवं उन पर आधारित
क्रियाओं का परिणाम होते हैं
अपक्षय में पदार्थों
का बहुत थोड़ा अथवा नगण्य संचलन होता है, यह एक 'स्वस्थाने' (In-situ) या तदस्थाने (On-situ) प्रक्रिया है।
1.वायुमंडलीय क्रियाएँ एवं जलवायु (Atmospheric Activities and Climate):
सभी प्रकार की वायुमंडलीय क्रियाओं का आधार प्रधानतः सौर ऊर्जा है । अतः भूतल पर उनकी प्राप्ति, वायुमंडल का तापमान, उसका दैनिक व मौसमी अन्तर
नोट-“ वर्षा एवं झीलों का पानी कई
प्रकार से क्षारों, लवणों, and कैल्शियम एवं अन्य खनिजों को अपने में घोलता रहता है। इसी कारण
अलग-अलग क्षेत्रों जल का स्वाद अलग-अलग होता है। भारी व हल्का पानी, कड़वा व मीठा पानी
ऐसे ही घोल लेने की क्रिया का परिणाम है।,,
वायु में नमी व संघनन
के रूप, हिम व जलवृष्टि आदि सभी कारक मिलकर भौतिक अपक्षय के लिए आधार बनाते हैं। उष्णकटिबंधीय
शुष्क प्रदेश भौतिक अपक्षय के लिए आदर्श प्रदेश माने जाते हैं। यहाँ दिन में तेज तापमान
से चट्टानें आग की भाँति गर्म हो जाती हैं एवं रात्रि के पिछले पहर में शीतल हो जाती
हैं। इससे चट्टानों खनिज, गर्मी में प्रसारित होते एवं शीतल होने पर सिकुड़ते हैं।
ऐसी क्रिया निरंतर होने से ही चट्टानें टूटती- फूटती हैं। कठोर चट्टानों में भी दरारें
व फटन पड़ने लगती हैं। शीतोष्ण शुष्क प्रदेशों में मामूली नमी एवं शीतकाल के प्रभाव
से पानी बर्फ में बदलकर चट्टानों का भौतिक अपक्षय करता है, जबकि उष्ण व तर या विशेष
आर्द्र प्रदेशों में ऊँचे तापमान वाले जल में अनेक गैसें मिलकर कई प्रकार की चट्टानों,
क्षारों व लवणों को घोल देती हैं। इससे चट्टानों के खनिजों में अपघटन एवं रासायनिक
परिवर्तन होने लगता है।
2. चट्टानों की संरचना व्यवस्था (Structure Arrangement of Rocks) :
अपक्षय किसी भी प्रकार से या घटना से हो, उस पर
चट्टानों की संरचना एवं खनिज संगठन एवं उसकी सन्धियाँ (joints)
के स्वरूप जैसी विशेषताओं
का विशेष प्रभाव पड़ता है। कठोर चट्टानों में जहाँ रासायनिक क्रियाएँ बहुत सीमित स्तर
पर होती हैं, वहीं ऐसी चट्टानों का भौतिक या यान्त्रिक अपक्षय भी चट्टानों की सन्धियों
या दरारों के सहारे ही होगा। चट्टानें बड़े-बड़े खण्डों में टूटेंगी। मुलायम खनिज वाली
अथवा रन्ध्रमय चट्टानों का कणमय विखण्डन या भौतिक अपक्षय भी शीघ्र होगा एवं रासायनिक
अपघटन के प्रभाव से भी ऐसी चट्टानें शीघ्र अपना रूप बदलकर एवं घुलकर नष्ट हो जायेंगी
। इसी भाँति जब चट्टानों की सन्धियाँ खड़ी होंगी तो उन पर ताप परिवर्तन एवं तुषार
(snow) एवं पाले की क्रिया
का विशेष प्रभाव पड़ेगा। ऐसी चट्टानें इन संधियों के शीघ्र ढीला होने के साथ-साथ इनका
परतों के सहारे अपक्षय होता जायेगा।
3. भूमि की ढाल (Slope of Land) :
अपक्षय में ढाल का विशेष महत्व | अधिक ढालू चट्टानी भू-भाग पर
प्रायः रासायनिक अपक्षय कठिनाई से हो पाता है। भौतिक अपक्षय से विघटित चट्टानें शीघ्र
ढाल से फिसलकर पर्वतपदीय क्षेत्र में नुकीली चट्टानों के रूप में इकट्ठी होती जायेंगी।
तेज ढालू क्षेत्रों में वृहद् क्षरण (mass wasting) भी ज्यादा होगा। यहाँ पर भौतिक अपक्षय के लिए भीतरी
चट्टानें शीघ्र सतह पर आती जायेंगी, जबकि कम ढालू एवं समतलप्राय क्षेत्रों की ऊपरी
परत वहीं बनी रहेगी अतः ऐसे भागों की चट्टानों में भौतिक अपक्षय सीमित अवस्था में एवं
ऊपरी परत ही प्रभावी होगा। यहाँ पर रासायनिक अपक्षय केवल आर्द्र जलवायु होने पर ही
संभव है।
4. वनस्पति एवं जैव जगत (Vegetation and Biological World) :
किसी भी स्थान पर वनस्पति की उपस्थिति का अपक्षय
की प्रकृति पर अवश्य प्रभाव पड़ता है । यद्यपि वनस्पति मिट्टी का कटाव रोकती है, फिर
भी कठोर चट्टानी प्रदेश में जड़ों का जगह ढूँढ़ने के लिए चट्टानों का अपक्षय आवश्यक
हो जाता है। वन प्रदेशों में अपक्षय कम एवं चट्टानों व मिट्टी का संरक्षण अधिक होता
है। इसी प्रकार प्राकृतिक जैव जगत भी सीमित मात्रा में भौतिक व रासायनिक अपक्षय में
सहायक रहता है। तापमान की समरूपता व पाले का प्रभाव कम रहने से वनस्पति वाले प्रदेशों
में अपक्षय सीमित ही रहता है ।
अपक्षय के प्रकार
Kinds of Weathering
अपक्षय प्रक्रियाओं के तीन प्रमुख प्रकार हैं 1. भौतिक या यान्त्रिक अपक्षय (Physical or Mechanical Weathering),
2. रासायनिक अपक्षय (Chemical Weathering),
3. जैविक अपक्षय
(Biological Weathering) | इनमें से कोई एक प्रक्रिया कतिपय ही अकेले काम करती है, परन्तु
प्रायः किसी एक प्रक्रिया का अधिक महत्वपूर्ण योगदान देखा जा सकता है।
1. भौतिक या यान्त्रिक अपक्षय (Physicalor Mechanical Weathering):
भौतिक या यांत्रिक
अपक्षय में चट्टानों का विघटन अथवा विखण्डन होता है। चट्टानें बिना किसी रासायनिक क्रिया
के विघटित होती हैं। इससे मजबूत शिलाखंड भी निरंतर यान्त्रिक या भौतिक अपक्षय के प्रभाव
से टुकड़ों में एवं बालू में बदलते जाते हैं। इसका सर्वाधिक प्रभाव शुष्क तथा ठण्डी
जलवायु वाले प्रदेशों में होता है। भौतिक अपक्षय में सबसे अधिक सहयोग सूर्यातप एवं
पाला का होता है। सामान्यतः निम्नलिखित कारक भौतिक अपक्षय के लिए सहयोगी हैं :
(i) सूर्यातप (Isolation):
सूर्यातप द्वारा चट्टानों
के अपक्षय का कार्य शुष्क उष्ण मरुस्थली प्रदेशों में अधिक होता है। इसका कारण यह है
कि इन प्रदेशों में दिन के समय तापमान अधिक हो जाता है और रात्रि के समय नीचे गिर जाता
है। अतः दिन में अधिक तापमान के कारण चट्टाने फैलती है और रात्रि के समय तापमान में
कमी आ जाने से चट्टानें सिकुड़ जाती हैं। चट्टानों के इस प्रकार फैलने तथा सिकुड़ने
से उनमें तनाव उत्पन्न होता है तथा दरारें पड़ जाती हैं। इस प्रकार चट्टानें बड़े-बड़े
टुकड़ों में विघटित हो जाती हैं। चट्टानों के इस प्रकार बड़े बड़े टुकड़ों में विघटित
होने को पिण्ड-विच्छेदन (block disintegration) कहते हैं।
कई चट्टानें विभिन्न
खनिजों द्वारा निर्मित होती हैं और ताप के प्रभावाधीन विभिन्न मात्रा में फैलती तथा
सिकुड़ती हैं। परिणामस्वरूप ये चट्टानें छोटे-छोटे कणों के रूप में विघटित हो जाती
हैं। इसे कणिकामय विघटन (granular disintegration) कहते हैं। इस विधि से चट्टानों के टूटने से बने
हुए चूर्ण को शैल मलबा (scree or talus) कहते हैं। शुष्क मरुस्थलीय प्रदेशों में सूर्यास्त
के आधे घंटे के अन्दर बन्दूकों के चलने की सी आवाजें सुनाई देती हैं। ये आवाजें चट्टानों
के टूटने से उत्पन्न होती हैं।
कुछ चट्टानें ऊष्मा
की उत्तम चालक (good conductor of heat) नहीं होती। अतः इन चट्टानों का ऊपरी भाग शीघ्र ही
गर्म हो जाता है जबकि भीतरी भाग ठण्डा ही रहता है। इस प्रकार ऊपरी परत फैलकर भीतरी
भाग से अलग हो जाती है और टूटकर चूर-चूर हो जाती है। चट्टानों की ऊपरी परते ठीक उसी
प्रकार से नष्ट होती हैं जैसे प्याज के छिलके उतारे जाते हैं। इस क्रिया को पल्लवीकरण
अथवा अपशल्कन (exfoliation) कहते हैं।
(ii) पाला (Frost) :
ऊँचे अक्षांशों तथा हिमालय जैसे उच्च पर्वतीय प्रदेशों
में पाला चट्टानों को तोड़ता- फोड़ता रहता है। दिन के समय चट्टानों की दरारों में जल
भर जाता है और रात्रि को तापमान हिमांक से कम होने के कारण जम जाता है। जमने से उसका
आयतन बढ़ जाता है। 9 घन सेंटीमीटर जल जब जमकर बर्फ में परिवर्तित होता है, तब वह
10 घन सेंटीमीटर स्थान घेरता है। इससे चट्टानों पर लगभग 15 किलोग्राम प्रति वर्ग सेंटीमीटर
दबाव पड़ता है और चट्टानें टूट-फूट जाती हैं। परिणामस्वरूप दरारों का आकार बड़ा हो
जाता है। अगले दिन अधिक जल इन दरारों में प्रवेश कर सकता है और चट्टानें अधिक मात्रा
में टूटती हैं। इस क्रिया को जमना पिघलना (freeze thaw) भी कहते हैं।
(iii) दाब मुक्ति (Pressure Release):
भू-पृष्ठ के निचले भाग में आग्नेय तथा रूपांतरित
चट्टाने प्रचण्ड दाब के कारण संकुचित अवस्था में रहती हैं। अपरदन के कारण जब ऊपर की
चट्टाने हट जाती हैं तो नीचे की चट्टान को दाव से मुक्ति मिल जाती हैं। इस दाब के कारण
ये चट्टानें थोड़ी-सी फैल जाती हैं और उनमें दरारें पड़ जाती है। इस प्रकार दाब मुक्ति
के कारण चट्टानों का विघटन होता रहता है। इस क्रिया द्वारा मुख्यतः ग्रेनाइट और संगमरमर
जैसी स्थूल चट्टानों का अपक्षय होता है।
(iv) वर्षा (Rainfall):
गर्मी में सूर्य के अत्यधिक ताप से पृथ्वी की चट्टानें
फैल जाती हैं। जब कभी अचानक वर्षा होती है तो चट्टानें ठण्डी होकर सिकुड़ती हैं। इस
क्रिया से वे फट जाती हैं।
(v) वायु-
बालू एवं मिट्टी के
कण हवा में तेजी से उड़ते हैं। ये नुकीले होते हैं। बालू के नुकीले कण जब किसी शैल
से टकराते हैं तो अन्य कणों को उखाड़ देते हैं। इस प्रकार सभी क्षेत्रों में घिसावट
होती है।
(vi) भू-स्खलन (Land slide):
वर्षाकाल में पहले से ढीले एकत्रित व अवसादों के
ढेर भीग जाने से भारी हो जाते है। नवीन मोड़दार पर्वतीय ढालों की मिट्टियाँ अधिक मात्रा
में जल सोख लेती हैं। इससे चट्टानों का भार बढ़ जाता है एवं वह तेजी से ढाल के सहारे
भारी भार के साथ खिसकती हुई गिरती जाती है। ऐसा चट्टानों का गिरता हुआ ढेर अपने साथ
मार्ग के रोड़ों एवं भूमि की सतह पर रगड़ खाते हुए और भी चट्टानी पदार्थों को इकट्ठा
करता जाता है। ऐसे भू-स्खलन से गाँव दब जाते हैं। इसका भी विनाशकारी प्रभाव भूकम्प
से कम नहीं होता।
2. रासायनिक अपक्षय (Chemical weathering) :
रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा चट्टानों का अपघटन
और क्षय होता है। अतः रासायनिक क्रिया द्वारा चट्टानों के विघटन को रासायनिक अपक्षय
कहते हैं। इसमें जल तथा विभिन्न प्रकार की गैसों के मिश्रण सक्रिय होते हैं। इस प्रकार
के अपक्षय में चट्टानों के अवयवों में रासायनिक परिवर्तन हो जाते हैं, जिससे उनका बंधन
ढीला पड़ जाता है। प्रकृति में भौतिक और रासायनिक अपक्षय साथ-साथ भी चलते हैं। तापमान
और आर्द्रता अधिक रहने पर रासायनिक अपक्षय अति शीघ्रता से हुआ करता है। अतः पृथ्वी
पर उष्णार्द्र प्रदेशों में यह क्रिया विशेष रूप से होती है।
रासायनिक अपक्षय की
प्रक्रियाएँ निम्न प्रकार से होती हैं-
1.ओषजीकरण या ऑक्सीकरण या झारण एवं न्यूनीकरण (Oxidation and Reduction):
ऑक्सीजन द्वारा शैलों पर होने वाले प्रभाव को ऑक्सीकरण कहते हैं। पानी में ऑक्सीजन
(O2) गैस घुली रहती है। वायुमंडलीय
आर्द्र ऑक्सीजन गैस चट्टानों के खनिजों से संयोग कर उन्हें ऑक्साइड में बदल देती है।
यही गैसयुक्त पानी उष्ण एवं अर्द्धष्ण प्रदेशों में लौह वाली चट्टानों (बायोटाइट, ऑल्विन
एवं पाइरॉक्सीन) तथा लोहे के सामान पर तेजी से प्रभाव डालता है। जंग लगने की क्रिया
इसी कारण होती है। बार-बार पानी एवं हवा के संपर्क में आने से लोहा बदलकर लौह-ऑक्साइड
(FeO2) बनता जाता है। लोहे के अतिरिक्त
कैल्शियम, पोटैशियम तथा मैग्नीशियम के तत्वों पर भी ऑक्सीजन की क्रिया होती है। इससे
चट्टानों का रंग लाल, पीला, भूरा, बादामी अथवा चॉकलेटी हो जाता है, जैसा कि हम लोहे
में जंग लगने पर देखते हैं। उष्ण प्रदेशों की सभी प्रकार की लाल व भुरभुरी लाल-पीली
मिट्टियाँ लौह वाली चट्टानों में ऑक्सीकरण की क्रिया से ही नष्ट होकर मिट्टी में बदलती
रही हैं। सिडेराइट एवं लिमोनाइट लोहे के जमाव, पूर्व की कठोर मैग्नेटाइट एवं हैमेटाइट
चट्टानों के ऑक्सीकरण की क्रिया के बाद बालू या मोटी मिट्टी जैसे जमावों के कारण ही
पाये जाते हैं।
भौतिक तथा रासायनिक अपक्षय में अन्तर
भौतिक अपक्षय (Physical weathering) |
रासायनिक अपक्षय(Chemical weathering) |
1. इसमें भौतिक बल
द्वारा चट्टानों का विघटन होता है । |
1. इसमें रासायनिक
क्रिया द्वारा चट्टानों का अपघटन होता है। |
2. भौतिक अपक्षय में चट्टानों
में कोई रासायनिक परिवर्तन नहीं होता है । |
2. रासायनिक अपक्षय में
भौतिक बल का महत्व नहीं होता । चट्टानों में रासायनिक परिवर्तन आ जाता है। |
3. बलकृत अपक्षय के मुख्य
कारक, ताप पाला तथा दाब- मुक्ति हैं। |
3. रासायनिक अपक्षय के मुख्य
कारक ऑक्सीकरण, कार्बनीकरण, जलयोजन व विलियन है । |
4. इसमें चट्टानें एक साथ
ही काफी गहराई तक प्रभावित होती हैं । |
4. इसमें चट्टानें केवल
तल पर ही प्रभावित होती हैं । |
5. इसमें चट्टानों में उपस्थित
5 मजबूत खनिज भी टूट जाते हैं। |
5. इसमें क्वार्ट्ज जैसे
रासायनिक प्रतिक्रिया विरोधी खनिज प्रभावित नहीं होते । |
6. भौतिक अपक्षय के उदाहरण
शीत तथा शुष्क प्रदेशों में पाये जाते हैं। |
6. रासायनिक अपक्षय के उदाहरण
उष्ण तथा आर्द्र प्रदेशों में मिलते हैं |
जब ऑक्सीकृत खनिज ऐसे वातावरण में रखे जाते हैं जहाँ ऑक्सीजन का अभाव है तो एक दूसरी रासायनिक अपक्षय प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है, जिसे न्यूनीकरण क्रिया कहते हैं। ऐसी दशाएँ प्रायः भूमिगत जलस्तर के नीचे, रुद्धजल के क्षेत्र या जलप्लावित क्षेत्रों में पायी जाती है । न्यूनीकृत होने पर लोहे का रंग लाल, हरा या आसमानी धूसर (bluish grey) रंग में बदल जाता है।
ऑक्सीजन, कार्बन डाइआक्साइड
और जलवाष्प की मात्रा वायुमंडल की निचली सतह में (भू-पटल के समीप) अधिक रहा करती है।
चट्टानों से मिलकर ये उनमें रासायनिक परिवर्तन ला देते हैं, जिससे वे टूटने या नष्ट
होने लगती हैं। शुष्क अवस्था में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड चट्टानों को नष्ट करने
में क्रियाशील नहीं होते, इसके लिए नमी (आर्द्रता) का मिलना आवश्यक है। इसी तरह स्वच्छ
जल भी चट्टानों को अधिक घोलने में असमर्थ रहता है, जब तक कि उसमें ऑक्सीजन और कार्बन
डाइऑक्साइड न मिला हो ।
(ii) कार्बोनेशन (Carbonation) :
जब जल में घुला हुआ कार्बन चट्टानों पर प्रभाव डालता
है तो उसे कार्बोनीकरण कहते हैं। यह फेल्सपार तथा कार्बोनेट खनिज को पृथक करने में
एक आम सहायक प्रक्रिया है। कार्बन जल में घुलकर कार्बोनिक अम्ल का निर्माण करता है।
यह अम्ल चूनायुक्त चट्टानों को शीघ्र ही घोल डालता है भूमिगत जल चूना पत्थर के प्रदेशों
में बड़े पैमाने पर अपक्षय करता है। अनुमान है कि कार्बोनीकरण द्वारा चूना-पत्थर प्रदेशों
में भू-तल प्रति 1000 वर्षों में लगभग 5 सेमी नीचा हो जाता है। कार्बोनीकरण के परिणामस्वरूप
ही भूमिगत गुफाओं का निर्माण होता है ।
(iii) जलयोजन (Hydration):
जलयोजन एक रासायनिक
योग है। जब हाइड्रोजन गैस जल में मिलकर चट्टानों का अपक्षय करती है तो इसे जलयोजन कहते
हैं। दूसरे शब्दों में- “चट्टानों के खनिजों में जल के अवशोषण को ही 'जलयोजन' कहा जाता
है।" भू-पटल में कुछ ऐसे भी खनिज (बॉक्साइट, फेल्सपार आदि) होते हैं जो हाइड्रोजन
युक्त जल को सोखने के बाद फुल जाते हैं और भारी हो जाते हैं। परिणामस्वरूप दबाव के
कारण चट्टानें टूट-फूट जाती हैं और उनका रंग-रूप बदल जाता है। कुछ चट्टानें तो भींगकर
खिलकर [खनिज स्वयं जल धारण करके विस्तारित (expanded) हो जाते हैं एवं यह विस्तार पदार्थ के आयतन (volume) अथवा शैल में वृद्धि
के कारण बनते हैं ।] चूरे में बदल जाती हैं। फेल्सपार (feldespar)
इस क्रिया द्वारा क्योलीन
(kaolin) मिट्टी में परिवर्तित
हो जाता है। कैल्शियम सल्फेट जल मिलने के बाद जिप्सम में परिवर्तित हो जाता है, जो
कैल्शियम सल्फेट की अपेक्षा अधिक अस्थायी होता है। यह एक लंबी व उत्क्रमणीय प्रतिक्रिया
है, जिसके सतत पुनरावृत्ति से चट्टानों में श्रांति हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप
चट्टानों में विघटन हो सकता है। भू-पर्पटी में अनेक क्ले खनिज शुष्क एवं आर्द्र होने
की प्रक्रिया में फुलते एवं संकुचित होते हैं एवं इस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति उपरिशायी
(overlying) पदार्थों में दरार का कारण बनती है। रंध्र क्षेत्र में समाहित लवण तीव्र एवं बार-बार
जलयोजन से प्रभावित होकर शैल विभंग (fracture ) में सहायक होता है। जलयोजन के कारण खनिजों के आयतन
में परिवर्तन अपशल्कन (exfoliation) एवं कणीय विघटन द्वारा भौतिक अपक्षय में भी सहायता
प्रदान करता है।
(iv) विलियन या घोल (Solution):
जब कोई वस्तु, जल
या अम्ल (acid) में घुल जाती है तो घुलित तत्वों के जल या अम्ल को घोल कहते हैं। इस प्रक्रिया
में ठोस पदार्थों का घोल में मिलना सम्मिलित होता है जो जल या कम अम्ल में खनिज की
विलेयता पर निर्भर करता है। जल से सम्पर्क में आने पर अनेक ठोस पदार्थ विघटित हो जाते
हैं एवं जल में निलंबन (suspension) के रूप में मिश्रित हो जाते हैं। घुलनशील शैल-निर्माण
करने वाले नाइट्रेट, सल्फेट एवं पोटैशियम जैसे खनिज इस प्रक्रिया से प्रभावित होते
हैं। अस्तु, यह खनिज अधिक वर्षा की जलवायु में बिना कोई अवशिष्ट छोड़े सुगमता से निक्षालित
(leached) हो जाते हैं और शुष्क
प्रदेशों में वर्षा के कारण एकत्रित हो जाते हैं। चूना पत्थर में विद्यमान कैल्शियम
कार्बोनेट, कैल्शियम मैग्नेशियम बाइकार्बोनेट जैसे खनिज, कार्बोनिक एसिड युक्त जल
(जो जल में कार्बन डाइऑक्साइड मिलने से बनता है) में घुलनशील होते हैं तथा जल में एक
घोल के रूप में प्रवाहित होते हैं। क्षयोन्मुख जैव पदार्थों द्वारा जनित कार्बन डाइऑक्साइड
मृदा जल के साथ मिलकर इस प्रक्रिया में बहुत सहायक होता है। साधारण नमक (सोडियम क्लोराइड)
भी एक शैल निर्माण करने वाला खनिज है जो कि घुलनशील है।
(v) सिलिका का अपघटन (Desilication Process) :
चट्टानों से सिलिका
का अलग होना ही 'सिलिका का अपघटन' (desilication) कहलाता है। आर्द्र प्रदेशों की आग्नेय चट्टानों
पर पानी की क्रिया के प्रभाव से उनसे सिलिका एवं अन्य तत्व तेजी से अलग होने लगते हैं।
इस क्रिया में सिलिका बालू बची रहती है। सिलिकायुक्त चट्टानों से जब गैस मिला उष्ण
जल क्रिया करता है तो ऐसी चट्टानों का अधिकांश भाग धुल जाता है। इसे 'सिलिका का पृथक्करण'
या 'सिलिका का अलग होना' भी कहते हैं।
3. जैविक अपक्षय (Biological weathering):
पृथ्वी की सतह पर वनस्पति, अनेक प्रकार के जीव-जन्तु व मानव
कई विधियों से भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय की क्रिया में सहायक रहे हैं। इसमें निम्न
सहायक होते हैं-
(i) वनस्पति (Vegetation):
कई पेड़-पौधे चट्टानों की दरारों में उग आते हैं।
ये पेड़-पौधे बढ़ने के साथ-साथ इन चट्टानों की दरारों पर अधिकाधिक दबाव डालते हैं।
परिणामस्वरूप चट्टानों की दरारें अधिक चौड़ी हो जाती हैं, जिससे चट्टानें टूट-फूट जाती
हैं।
(ii) जीव-जन्तु (Animals):
पृथ्वी की सतह पर
लाखों प्रकार के जीव-जन्तु (जैसे-चूहे, लोमड़ी, नेवला, बिच्छू, बिज्जू, गीदड़, खरगोश,
कॅचुए, दीमक, चीटियाँ आदि) अपने निवास के लिए चट्टानों को काटकर, जमीन में गड्ढा बनाकर
अथवा बिल बनाकर रहते हैं। इससे संगठित चट्टानें व मिट्टी ढीले कणों में सतह के निकट
आ जाती हैं। ऐसी चट्टानों को हवा बहता जल आदि आसानी से बहाकर ले जा सकते हैं। खेत उपजाऊ
बनाने के लिए केंचुए एवं भूमि के नीचे रहने वाले कुछ अन्य जीव मिट्टी से रासायनिक क्रिया
करते हैं, मिट्टी खाते रहते हैं। भूगोलविद् आर्थर होम्स के अनुसार, "प्रति एकड़
मिट्टी में 1,50,000 केचुए हो सकते हैं जो एक वर्ष में 10 से 15 टन चट्टानों को बारीक
मिट्टी बनाकर नीचे से ऊपर ले आते है।"
(iii) मनुष्य (Man):
हालाँकि मनुष्य भी एक प्राणी है, लेकिन वह पृथ्वी पर सर्वव्यापी है। उसने अपने द्वारा खोजे गये औजारों, मशीनों एवं तकनीक द्वारा पृथ्वी की सतह पर आश्चर्यजनक गति से परिवर्तन किये हैं। वह रासायनिक व भौतिक अपक्षय का आज सबसे बड़ा प्रभावी एवं चौकाने वाला कारक बन गया है। तेजी से होने वाला औद्योगीकरण व नगरीकरण, कृषि का व्यावसायीकरण व रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाओं के प्रयोग ने मिलकर मिट्टी, जल व हवा में प्राणघातक प्रदूषण पैदा कर दिया है। ऐसे अपने ही प्रदूषण से स्वयं मानव भी डरने लगा है। बड़े पैमाने पर प्राकृतिक वनस्पति नष्ट करना, खाने खोदना आदि क्रियाएँ भू पृष्ठ के स्वरूप को ही बिगाड़कर मानव की सांस्कृतिक, परम्पराओं को नष्ट कर रही हैं। ऊपर वर्णित औद्योगिक एवं जीवों तथा कृषि के आनुवंशिकी परिवर्तन एवं नवीन तकनीक के नाम पर कारखानों में शृंखलाबद्ध परिवर्तन सभी भूतल पर अनेक प्रकार से भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय की क्रिया जटिल तरीकों से करते रहे हैं।
अपरदन एक विस्तृत
शब्द है जो गतिशील कारकों द्वारा चट्टानी मलबे को प्राप्त करने तथा हटाने के विभिन्न
तरीको के लिए प्रयुक्त होता है।
(Erosion is a comprehensive term applied
to the various ways by which the mobile agencies obtains and remove rock
debris.) - थार्नबरी
अपक्षय का प्रभाव
Effect of Weathering
अपक्षय के प्रभाव को निम्नांकित स्तर से समझा जा सकता है-
1. अपक्षय की क्रिया से चट्टानें
ढीली हो जाती हैं और वे वियोजित एवं विघटित होकर छोटे-छोटे टुकड़ों में टूटकर अन्ततः
चूर्ण में बदल जाती हैं, जिससे मिट्टी का निर्माण होता है जो मानव जीवन ही नहीं अपितु
समस्त जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों के जीवन का आधार है।
2. अपक्षय अपरदन में
सहयोगी होता है क्योंकि इसके द्वारा चट्टानों को तोड़-फाड़कर ढीला कर दिया जाता है
जिन्हें अपरदन के कारक सरलता से परिवहित कर लेते हैं। जब ये पदार्थ ढोये जाते है तो
अन्य पदार्थों को रगड़कर एवं आपस में टकराकर छोटा करते जाते हैं जिससे अपरदन को गति
मिलती है।
3. अपक्षय द्वारा
चट्टानों की टूट-फूट होती रहती है जो अपरदन के कारकों द्वारा बहाकर अन्यत्र जमा भी
करायी जाती है। इससे धरातल समतल हो जाती है।
4. अपक्षय अपरदन के
साथ-साथ बृहत् संचलन (mass movement) के लिए भी उत्तरदायी
होते हैं।
5. अपक्षय वृहत् क्षरण,
अपरदन, उच्चावच के लघुकरण में सहायक होता है एवं स्थलाकृतियाँ अपरदन का परिणाम है।
6. चट्टानों का अपक्षय
एवं निक्षेपण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए अति महत्वपूर्ण है, क्योंकि मूल्यवान खनिजों
जैसे- लोहा, मँगनीज, एल्युमिनियम, ताँबा, आदि के अयस्कों के समृद्धिकरण (enrichment) तथा संकेन्द्रण (concentration) में यह सहायक होता
है।
जब चट्टानों का अपक्षय होता है तो कुछ पदार्थ भौम जल द्वारा रासायनिक तथा भौतिक निक्षालन के माध्यम से स्थानांतरित हो जाते हैं तथा शेष बहुमूल्य पदार्थों का संकेंद्रण हो जाता है। इस प्रकार के अपक्षय के हुए बिना बहुमूल्य पदार्थों का संकेन्द्रण अपर्याप्त होगा तथा आर्थिक दृष्टि से उनका दोहन प्रक्रमण तथा शोधन के लिए व्यवहार्य नहीं होगा। इसे समृद्धिकरण कहते हैं।
वृहत् संचलन Mass Movement
वृहत् संचलन (mass movement) को वृहत् क्षरण (mass wasting)या अनुढाल संचलन (downslope movement) भी कहा जाता है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत मिट्टी (soil) किसी भी भू-खण्ड की ऊपरी परत अर्थात् उसका आवर्ण प्रस्तर (regolith) और शैल मलबा गुरुत्वाकर्षण द्वारा खीचकर ढाल के नीचे की ओर लुढ़कते हैं। स्पष्ट है कि वृहत् क्षरण की प्रक्रिया में गुरुत्वाकर्षण की मुख्य भूमिका है। वृहत् चट्टानें ढाल के सहारे लुढ़क कर उच्च भाग से निम्न भाग की ओर अग्रसर होती हैं । यह क्रिया महाद्वीपों की ऊँचाइयों को कम करने का एक प्रमुख कारक है। तथा अपरदन प्रक्रमों को सामान्य पदार्थ प्रदान करती है । वृहत् संचलन की गति में बड़ी विविधता पायी जाती है। हिमघाव (avalanche) की भाँति यह अति तीव्र भी हो सकती है तथा इतनी मन्द हो सकती है कि यह सामान्यतः दिखाई भी न दे ।
वृहत् संचलन की सक्रियता
के कई कारक होते हैं जो निम्नलिखित हैं—
1. प्राकृतिक एवं
कृत्रिम साधनों द्वारा ऊपर के पदार्थों के टिकने के आधार का हटाना ।
2.ढालों की प्रवणता
व ऊँचाई में वृद्धि ।
3. पदार्थों के कृत्रिम
या प्राकृतिक भराव के कारण उत्पन्न अतिभार ।
4. अति वर्षा, संतृप्ति
एवं ढाल के पदार्थों के स्नेहन (lubrication) द्वारा उत्पन्न अतिभार
5. भूकम्प ।
6. मूल ढाल की सतह
पर से भार या पदार्थ का हटना ।
7. अत्यधिक प्राकृतिक
रिसाव ।
8. प्राकृतिक वनस्पतियों का अंधाधुंध विनाश | 9. विस्फोट या मशीनों का कंपन (vibration) |
10. नदियों, झीलों
व जलाशयों से भारी मात्रा में जल निष्कासन एवं परिणामस्वरूप ढालों एवं नदी तटों के
नीचे से जल का मन्द गति से बहना ।
संचलन के निम्नलिखित
तीन रूप होते हैं— 1. अनुप्रस्थ विस्थापन (तुषार-वृद्धि अथवा कारणों से मिट्टी का अनुप्रस्थ
विस्थापन), 2. प्रवाह एवं 3. स्खलन
वृहत् संचलन को निम्नलिखित
तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है-
1. मंद संचलन,
2. तीव्र संचलन और
3. भू-स्खलन
1. मंद संचलन (Slow Movement) :
मंद संचलन के अन्तर्गत निम्नलिखित चार घटनाओं को सम्मिलित किया
जाता है—
(a) शैल विसर्पण ( Rock Creep),
(b) मृदा विसर्पण (Soil Creep),
(c) ढाल मलबा या पाद मलबा (Scree of Talus) एवं
(d) मृत्तिका सर्पण (Solifluction)।
(a) शैल विसर्पण (Rock Creep) :
मिट्टी के नीचे स्थित
चट्टान की परत को आधार शैल (bed-rock) कहते हैं इस आधार शैल का विखण्डन होता रहता है और
विखण्डित शैल मलबा गुरुत्वाकर्षण के कारण ढाल के सहारे नीचे की ओर सरकता रहता है। जब
किसी क्षेत्र की मृदा की परत ढाल के सहारे सरक कर निम्न भाग में विसर्जित हो जाने के
बाद भी विसर्पणकारी शक्तियाँ क्रियाशील रहती हैं तो विसर्जित कर चुकी मिट्टी के नीचे
की परत भी ढाल के सहारे नीचे की ओर गिरने (सरकने लगती है। अर्थात् उप-मृदा (sub-soil) व आधार-शैल (bed-rock) की परत का भी निम्न
ढाल की ओर विसर्पण होने लगता है। इसी प्रक्रिया को शैल विसर्पण कहते हैं ।
(b) मृदा विसर्पण (Soil Creep):
वर्षा जल से मिट्टी
ढीली हो जाती है और गुरुत्वाकर्षण के कारण मिट्टी और आवरण प्रस्तर धीरे-धीरे ढाल के
सहारे नीचे की ओर फिसल कर ढाल के आधार तल पर जमा हो जाते हैं। इस प्रकार के मृदा जमाव
भू-आकृतियों की जड़ों चारों ओर दीवारों के आधार पर और निम्न भूमियों में स्थान-स्थान
पर देखे जा सकते हैं। शीत जलवायु प्रदेशों में जल के स्थान पर तुषार (frost ) तथा हिम के पिघलने
से मृदा विसर्पण होता है। जब बर्फ के कण बढ़ते हैं तो उसके प्रसार के भार के कारण चट्टानों
के टुकड़े ढाल के सहारे नीचे की ओर धकेले जाते हैं।
मृदा विसर्पण के मुख्य
कारणों में चट्टानों का गर्म तथा ठण्डा होना, तुषार का बढ़ना, मिट्टी का जल में भींगना
और फिर सूखना, बिल बनाकर रहने वाले जीव-जन्तुओं द्वारा मिट्टी का अपक्षय करना तथा भूकम्पों
द्वारा शैल आवरण एवं मृत्तिका की परत में हलचल पैदा करना प्रमुख है।
(c) ढाल मलबा / पाद मलबा (Scree / Talus):
पर्वतों के पाश्र्वों
पर छोटे-छोटे आकार के चट्टानों के टुकड़े व कोणीय शैल-मलबे के ढेर जमा हो जाते हैं।
यह कोणीय मलबा ढेर ढाल के आकार के होते हैं तथा इनकी ढाल सामान्यतः एक समान कोण के
अर्थात् क्षैतिज आधार से 35° से 37° तक ही रहते हैं। इसको पाद मलबा (talus) या ढाल मलबा (scree) कहते हैं। इन भू-आकृतियों का निर्माण मुख्यतः तुषार
अपक्षय वाले क्षेत्रों में होता है। कहीं किसी चट्टान के खड़े पुश्ते के आधार स्तर
पर इस प्रकार के पाद मलबा ढाल निर्मित हो जाते हैं या किसी शैल अवनलिका के पाद स्तर
में या चट्टानों के पुश्ते की भित्ति के पाद पर इस प्रकार के स्पष्ट ढाल मलबा शंकु
का निर्माण होता है। कुछ वैज्ञानिक पाद मलबे तथा ढाल मलबे को समानार्थक ही मानते हैं।
परन्तु कुछ विद्वानों का विचार है कि ढाल मलबा (scree) पर्वतीय ढाल पर पड़ा हुआ पदार्थ (loose
material) है, जबकि पाद मलबा (talus ) निश्चित रूप से भृगुओं (cliffs) के आधार स्तरों पर एकत्रित हुआ मलबा है। शैल भृगुओं
के ऊपरी सिरों पर अपक्षय द्वारा कीपाकार खड्डों (ravines) का निर्माण हो जाता है व इन संकरे खड्डों के तलों
के नीचे की ओर खिसकता हुआ शैल पदार्थ या शैल मलबा इस भृगु के पाद स्तर पर शंकु की आकृति
में जमा होने लगता है। इसे पाद मलबा या टैलस शंकु (talus cone) कहते हैं। इस शंकु पर बड़े आकार के चट्टान खंडों
का विसर्पण सबसे नीचे आधार तल पर होता है, क्योंकि बड़े आकार के शैल भारी होते हैं
और उसमें लुढकने की शक्ति अधिकाधिक होती है। इसके विपरीत हल्के कणों के मलबे में लुढकने
की शक्ति कम होती है, जिस कारण वे ढाल शंकु के शीर्ष में जमा हो जाते हैं।
(d) मृत्तिका सर्पण (Solifluction ) :
Solifluction दो शब्दों soil (मिट्टी) + flow (प्रवाह) से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ मृत्तिका
प्रवाह होता है मृत्तिका सर्पण की क्रिया शीत जलवायु वाले प्रदेशों में होती है जहाँ
काफी अधिक मात्रा में बर्फ गिरता (हिमपात) है व सर्दी के मौसम में जमीन पर बर्फ की
चादर-सी बिछ जाती है। गर्मी के मौसम में बर्फ पिघलने के पश्चात् भी कुछ भागों में बर्फ
जमी रहती है। ऐसे क्षेत्रों में मृत्तिका सर्पण की क्रिया होती है। आर्कटिक
वृत्त के टुण्ड्रा प्रदेशों में स्थायी तुषार भूमि (perma frost) के प्रदेशों में ग्रीष्म ऋतु के आरंभ होने पर ऊपर
की बर्फ पिघलने लगती है जबकि उसके नीचे की भूमि अभी बर्फ से ढँकी ही रहती
है। इस अवस्था में मिट्टी पूर्णतया संतृप्त अवस्था में होती है और उसका जल नीचे हिमीभूत
स्तर तक नहीं पहुँच पाता है। यह संतृप्त मिट्टी मन्द-मन्द गति से ढाल के सहारे गुरुत्वाकर्षण
के कारण नीचे की ओर सरकती रहती है। यह इतनी मन्द गति से नीचे सरकती है कि सर्पण दिखाई
भी नहीं पड़ता है मृत्तिका-सर्पणद्वारा पर्वतीय ढालों पर वेदिकाओं (terraces) एवं संस्थानों (steps) का निर्माण होता है।।
2. तीव्र संचलन (Rapid Movement):
यह एक ऐसा वृहत् संचलन
है, जिसमें दाल के ऊपरी भाग का शैल पदार्थ वर्षा जल के सहारे गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा
लुढ़ककर ढाल के निचले भाग की ओर फिसलता रहता है। ये संचलन आई जलवायु के प्रदेशों में
निम्न से लेकर तीव्र ढालों पर घटित होता है। जल से संतृप्त मृत्तिका आवरण प्रस्तर,
चिकनी मिट्टी और शैल मृत्तिका आदि का बहुत बड़ी मात्रा में संचलन अति तीव्र गति से
केवल चन्द घंटों में ही होता है तो उसे मृदा प्रवाह (earth-flow)
कहते हैं। प्रायः पदार्थ सीढ़ी
के समान वेदिकाएँ बनाते हुए अवसर्प कर जाते है तथा अपने शीर्ष के पास चापाकार कगार
तथा पदांगुली के पास एकत्रित उभार छोड़ जाते हैं। जब दाल तीव्रतर होती है तो आधार शैल,
विशेषकर कोमल (soft) परतदार शैल, जैसे गहराई से अपक्षयित आग्नेय शैल या शैल भी दाल
के सहारे स्खलित हो जाती है।
कीचड़ प्रवाह (Mud flow) इस वर्ग में दूसरा
प्रकार है। जब भारी वर्षा के कारण वनस्पति आवरणविहीन क्षेत्रों में अपक्षयित पदार्थों
के मोटे संस्तर जल से संतृप्त हो जाते हैं और शनैः शनैः अथवा तीव्र गति से निश्चित
वाहिकाओं (channel) के सहारे नीचे की ओर सरकने लगते हैं तो इसे कीचड़ प्रवाह कहते
हैं। यह एक घाटी के अन्दर कीचड़ की नदी जैसी दिखाई देती है। जब यह प्रवाह वाहिकाओं
से बाहर निकलकर गिरीपद या मैदान में आते हैं तो वे सड़कों, पुल-पुलियों व मकानों को
अपने आगोश में लेते हुए विध्वंसकारक साबित होते हैं। ज्वालामुखीय राख, धूल तथा अन्य
खंडित तत्व भारी वर्षा के कारण कीचड़ में परिवर्तित हो जाते हैं एवं ढालों पर कीचड़
की नदी या जिह्वा (tongue) के रूप में प्रवाहित होते हैं। इससे मानव अधिवासों को काफी क्षति
पहुंचती है। दक्षिण अमेरिका के एंडीज पर्वत एवं उत्तर अमेरिका के रॉकीज पर्वतीय क्षेत्रों
में कुछ ऐसे ज्वालामुखी हैं जिनमें पिछले दशक में उद्गार हुआ तथा उनके ढालों पर उद्गार
की अवधि में तथा उसके बाद बहुत विनाशकारी कीचड़ प्रवाह हुआ।
पर्वतीय प्रदेशों
में मृत्तिका प्रवाह के कारण जल की विशाल मात्राएँ अवरुद्ध हो गयी है और कई स्थानों
पर झीलों का निर्माण हो गया है। झेलम बेसिन तथा नेपाल के पूर्वी एवं दक्षिणी भागों
में इस प्रकार की झीलें मिलती हैं। मृदा-प्रवाह द्वारा रेलमार्गो तथा सड़कों का अवरोध
हो जाता है। स्वीडन, नायें तथा कनाडा के उत्तरी भाग में मृदा प्रवाह का प्रभाव विशेष
रूप से देखने को मिलता है।
तीव्र संचलन में तीसरा
प्रकार मलबा अवधाव (avalanche), वनस्पति आवरणयुक्त या उससे वंचित आई प्रदेशों की विशेषता है।
यह तीव्र ढालों पर संकीर्ण रास्ते के रूप में घटित होता है मलबा अवधाय, कीचड़ प्रवाह
से बहुत तीव्रतर तथा हिम अवधाव के समान होता है।
3. भू-स्खलन (Land Slides):
भू-स्खलन अपेक्षाकृत तीव्र एवं अवगम्य संचलन है, जिसमें स्खलित होने वाले पदार्थ अपेक्षतया शुष्क होते हैं। भू-स्खलन का अभिप्राय है किसी आवरण-प्रस्तर ( Regolith) या आधार-शैल (Bed-rock) के वे वृहत् संचलन जो गुरुत्वाकर्षण के कारण ढाल के ऊपरी भाग से नीचे की ओर होते हैं। पर्वतीय प्रदेशों में भू-स्खलन प्रायः होते रहते हैं जिससे भारी मात्रा में जान-माल की हानि होती है। भू-स्खलन निम्नलिखित प्रकार के होते हैं— (i) शैल स्खलन (Rockslide), (ii) अवसर्पण (Slumping), (iii) शैल पात (Rockfall) एवं (iv) मलबा स्खलन (Debris Slide) |
(i) शैल-स्खलन (Rockslide) :
इस प्रक्रिया में
किसी पर्वतीय मंद ढाल के सहारे, संस्तरण तल (bedding
plane) या भ्रंश तल (fault plane) पर सामूहिक रूप से
वृहत् शैल-खण्ड लुढ़कता और फिसलता है। दूसरे शब्दों में एक वृहत् आधार-शैल अपने ढलवाँ
आधार-तल के ऊपर सर्पण करता है ।
(ii) अवसर्पण (Slumping):
इस प्रकार के भू-स्खलन
में चट्टानों का वर्तन (shearing) होता है। अर्थात् एक शैल ब्लॉक अपने मूल स्थान से विघटित होकर
ढाल के निचले भाग की ओर घूर्णी गति से विसर्पण करता है। इस प्रक्रिया में सामान्यतः
शैल-खण्ड का विसर्पण घूर्णी गति से वक्रित अवतल ढाल पर होता है। इसमें विसर्पण तल एक
अति तीव्र ढाल के नीचे वक्राकार होता है। अवसर्पण में एक वृहत् आधार-शैल अपने वक्रित
सर्पण तल (curved slip surface) के ऊपर घूर्णन गति से संचलन करता है। इस प्रकार का अवसर्पण केरल
तट पर कोच्चि के निकट पूर्वी तट पर चेन्नई तथा विशाखापटनम के बीच कई स्थानों पर हुआ
है। उड़ीसा के पुरी तट पर भी ऐसी भू-आकृतियाँ मिलती हैं
(iii) शैल-पात (Rockfall):
इस क्रिया में एक अतिप्रणव भृगु से वृहत् शैलखण्ड अकेले ब्लॉक के रूप में गिरते
रहते हैं। अकेला शैलखण्ड इतना छोटा भी हो सकता है जितना कि एक गोलाश्म (boulder) और इतना बड़ा भी हो सकता है जितना कि समस्त नगर
का एक ब्लॉक । यह बात उस भृगु की भौमकीय संरचना और उस शैलखण्ड के टूटने की विधि पर
निर्भर करेगी कि उस गिरने वाले शैल का आधार कितना बड़ा होगा गिरने के पश्चात् भी उस
विशाल खण्ड के टूट टूट कर बड़े ब्लॉक उस क्षेत्र में फैल सकते हैं और छोटे-बड़े आकार
का मलबा और बालू बिछ सकता है व भृगु के ऊपरी मुख पर स्पष्ट चिह्न अंकित कर सकता है।
हिमालय तथा आल्पस पर्वत क्षेत्रों में शैल-पात के अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।
(iv) मलबा स्खलन (Debris Slide) :
खनिज पदार्थ, मृत्तिका,
बालू, गोलाश्म तथा अन्य शैल अपने जब शैल मूल स्थान से पृथक होकर ढाल के सहारे नीचे
की ओर सरकताहुआ वहाँ से हटकर अन्य स्थान पर पुनर्निक्षेपित होता है, तो उस बिखरे पदार्थ
का एकत्रित ढेर मलबा-स्खलन कहलाता है। यदि वह मलबा समूह नीचे की ओर तेज गति से विसर्पण
करता है, तो वह क्रिया मलबा स्खलन कहलाती है, और यदि वह बिखरे मलबे का समूह अति तीव्र
गति के साथ ऊँचाई से नीचे की ओर गिरता है तो उसे मलबा पात (debris fall) कहते हैं। इसके अनेकानेक
उदाहरण वृहत् हिमालय (Great Himalayas) की घाटियों में लगभग सभी ऋतुओं में मिलते हैं।
हमारे देश भारत में
मलबा - अवधाव एवं भू-स्खलन हिमालय पर्वत में प्रायः घटित होते हैं। इसके अनेक कारण
हैं; पहला हिमालय पर्वतीय क्षेत्र विवर्तनिक दृष्टिकोण से सक्रिय है। हिमालय मूलतः
परतदार चट्टानों एवं असंघटित एवं अर्द्धसंघटित पदार्थों से बना हुआ है, साथ ही इसकी
ढाल तीव्र है। हिमालय की तुलना में तमिलनाडु, कर्नाटक व केरल की सीमा बनाता हुआ नीलगिरि
एवं पश्चिमी तट के किनारे पश्चिमी घाट अपेक्षाकृत विवर्तनिकी दृष्टि से अधिक स्थायी
(stable) है व बहुत कठोर चट्टानों
से निर्मित है। लेकिन अब भी इन पहाड़ियों से मलबा अवधाव एवं भू-स्खलन होते रहते हैं।
हालाँकि उनकी बारंबारता उतनी नहीं है जितनी हिमालय में। इसका कारण पश्चिमी घाट एवं
नीलगिरि के ढाल खड़े भृगु एवं कगार के साथ तीव्रतर होना है। तापक्रम में परिवर्तन एवं
ताप परिसर (ranges)के कारण यौगिक अपक्षय सुस्पष्ट होता है वहाँ लघु अवधि में अधिक
वर्षा होती है अस्तु, इन स्थानों में भू-स्खलन एवं मलबा अवधाव के साथ प्रायः सीधे शैल
पतन (direct rock fall) होता है ।
अपरदन एवं निक्षेपण Erosion and Deposition
ऋतुक्षरण द्वारा उत्पन्न
चट्टान के टुकड़ों को गतिशील शक्तियाँ (प्रवाहित जल, भौमजल, हिमानी, वायु, लहरों, धाराओं)
एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान में ले जाती हैं। शिलाखंडों का एक स्थान से दूसरे स्थान
पर हटाये जाने की क्रिया को परिवहन अथवा अपनयन (transportation) कहते हैं। ये शिलाखंड हटते समय धरातल की चट्टानों
से रगड़ खाते हैं और इस रगड़से चट्टानें तथा शिलाखण्ड दोनों ही घिस - घिसकर टूटते जाते
हैं, और विशेषकर धरातल पर की चट्टानें टूटती तथा घिसती जाती हैं। इस प्रकार घर्षण द्वारा
अपरदन होने की क्रिया को अपघर्षण (corrasion) कहते हैं । कभी-कभी
इस क्रिया के लिए अपरदन (erosion) शब्द का भी प्रयोग
होता है। हटाये हुए शिलाखंड फिर किसी स्थान पर जाकर जमा होते हैं। इस प्रक्रिया को
निक्षेपण (deposition)
कहते हैं । अर्थात् अपरदन
या अपक्षरण के तीन अंग हैं—परिवहन, अपघर्षण तथा निक्षेप | अपघर्षण तथा निक्षेप दोनों
के लिए परिवहन आवश्यक है। इसके बिना न अपघर्षण संभव है और न निक्षेप । परिवहन तीन तरीकों
से हो सकता है (a) जब कोई पदार्थ पानी में घुसकर अदृश्य रूप में हटे
हैं, (b) जब पदार्थ किसी शक्ति द्वारा उठाकर एक स्थान से
दूसरे स्थान पर ले जाया जाय और (c) जब पदार्थ ढाल पर गुरुत्वाकर्षण
अथवा किसी अन्य शक्ति के प्रभाव में, लुढ़कता या खिसकता जाय ।
ऋतुक्षरित पदार्थों के परिवहन की दर (rate) क्या होगा- यह भूमि की ढाल पर निर्भर करता है। जहाँ डाल खड़ी होती है यहाँ गुरुत्वाकर्षण के कारण चट्टान के टुकड़े टूटने के साथ-ही-साथ नीचे की ओर लुढ़कते जाते हैं। किन्तु सपाट तल पर अनुक्षरण से उत्पन्न पदार्थ वही का वहीं काफी गहराई तक जमा होता जाता है और वर्षाकाल में भी यह नीचे स्थल की ओर नहीं हट पाता ।। अपरदन के मुख्य कारक (agents of erosion) बहता हुआ जल अथवा नदी, भूमिगत जल, चलती हुई हिमानी अथवा ग्लेशियर, लहरें तथा वायु है। इनमें से बहता हुआ जल, हिमानी तथा वायु का प्रभाव विशेष महत्वपूर्ण है और सबसे व्यापक तथा महत्वपूर्ण जल का प्रभाव है। पृथ्वी की सतह के अधिकांश भाग में जल ही अपरदन या अपक्षरण का मुख्य साधन है। उपर्युक्त वर्णित प्रमुख तीनों कारकों का नियंत्रण जलवायविक दशाओं द्वारा होता है। ये कारक पदार्थों की क्रमशः तीन अवस्थाओं-गैसीय (हवा). तरल (बहता जल एवं ठोस (हिमानी) का प्रतिनिधित्व करते हैं। अपरदन का अर्थ है—' 'गतिज ऊर्जा का अनुप्रयोग जो भू-सतह के साथ संचलित कारकों से संबंधित होता है। गतिज ऊर्जा ज्ञात करने हेतु निम्नलिखित सूत्रों का प्रयोग किया जाता है KE (Kinetic Energy) = 1/2 mv2
यहाँ, m==mass (बृहत्)
v = velocity (वेग) ।
इस प्रकार के कार्य
करने हेतु प्राप्त ऊर्जा पदार्थ के वृहत् एवं उसके संचलन वेग पर निर्भर करेगी। जैसा
कि विशालकाय वृहत् हिमानी बहुत ही मंद गति से संचालित होते हैं, लेकिन अपरदन की दृष्टि
से ये बहुत प्रभावकारी होते हैं। दूसरी ओर वायु, जो कि गैसीय रूप में होती है कम प्रभावी
होती है। अपरदन के दो अन्य कारकों, लहरों एवं धाराओं तथा भूमिगत जल का कार्य जलवायु
द्वारा नियंत्रित नहीं होता है। लहरें स्थल एवं जलमंडल के अन्तरापृष्ठ-तटीय प्रदेशों
में सक्रिय होते हैं जबकि भूमिगत जल का कार्य मुख्यतः किसी क्षेत्र की आश्मिक (lithological) विशेषताओं द्वारा
निर्धारित होता है। यदि चट्टानें पारगम्य. घुलनशील व जल प्राप्य हैं तो केवल कार्स्ट
(चूनाकृत) आकृतियों का निर्माण होता है।
अपरदन की क्रिया में
भाग लेने वाले कारकों को अपरदन का कारक कहा जाता है। नदी का अपरदन कार्य नदी जल के
वेग, जल का आयतन, नदी-तल की बनावट तथा नदी जल में जलोढ़कों की मात्रा द्वारा प्रभावित
होता है। जब नदी अन्तिम अवस्था में होती है तो समस्त अवसाद का निक्षेपण करती है, जिससे
अनेक भू-आकृतियाँ बनती हैं।
हिमानी निक्षेपण से
बनने वाली आकृतियों में प्रमुख हिमोढ़ है। हिमानी द्वारा उसकी घाटी में जमा किया गया
अवसाद हिमोद कहलाता है। हिमोढ़ निम्नलिखित प्रकार के हैं—तलस्य, पाकि, अन्तस्य, मध्यस्थ
एवं प्रतिसारी आदि । अर्द्धमरुस्थलीय च मरुस्थलीय क्षेत्रों में पवन सक्रिय होता है।
कार्स्ट प्रदेशों में भूमिगत जल का कार्य महत्वपूर्ण होता है। जब जल घरातल से नीचे
प्रवेश करता है तो चूने को पुलाकर विभिन्न आकृतियों का निर्माण करता है।
निक्षेपण अपरदन का
परिणाम है। ढाल में कमी के कारण जब अपरदन के कारकों के वेग में कमी आ जाती है तो परिणामतः
अवसादों का निक्षेपण प्रारंभ हो जाता है। दूसरे शब्दों में, निक्षेपण वस्तुतः किसी
कारक का कार्य नहीं होता। पहले स्थूल तथा बाद में सूक्ष्म पदार्थ निक्षेपित (deposited) होते हैं। निक्षेपण
से निम्न भू-भाग (depressions) भर जाते हैं। वहीं अपरदन के कारक, जैसे— प्रवाहयुक्त जल, हिमानी,
वायु, लहरें, धाराएँ एवं भूमिगत जल आदि निक्षेपण या तल्लोचन के कारक के रूप में भी
कार्य करने लग जाते हैं।
अपरदन चक्र Cycle of Erosion
सन् 1889 ई० अमेरिका
के विख्यात भू-वैज्ञानिक विलियम मोरिस डेविस (W.M. Devis)
ने पहली बार अपनी भौगोलिक
चक्र (Geographical Cycle) अथवा अपरदन चक्र (Cycle of
Erosion) की संकल्पना प्रस्तुत की।
डेविस के अनुसार, "अपरदन चक्र समय की वह अवधि है जिसके अन्तर्गत एक उत्थित स्थलखण्ड
अपरदन के प्रक्रम द्वारा अपरदित होकर एक आकृतिविहीन समतल मैदान में परिवर्तित हो जाता
है।" डेविस के अनुसार किसी भी स्थलाकृति का निर्माण तथा विकास ऐतिहासिक क्रम में
होता है, जिसके अन्तर्गत उसे कई अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है। धरातल पर परिवर्तन
लाने वाले कारकों को प्रक्रम (Process) कहते हैं। ये अन्तर्जात तथा बहिर्जात होते हैं ।
अन्तर्जात बल पृथ्वी के अन्दर से उत्पन्न होते. हैं तथा धरातल पर विषमताओं का सृजन
करते हैं। विषमताओं का उद्भव दो रूपों में होता है
A. उत्थान द्वारा पर्वत, पठार आदि का विकास तथा
B. अवतलन द्वारा झीलों, गड्डों आदि का विकास। बहिर्जात बल समतल स्थापक बल होते हैं
और जैसे ही अन्तर्जात बलों द्वारा धरातल पर विषमताओं का विकास होता है, बहिर्जात बल
इन विषमताओं को दूर करने में प्रयत्नशील हो जाते हैं तथा अन्ततः उस भाग को समतलप्राय:
मैदान (Peneplain) में परिवर्तित कर देते हैं। स्थल रूपों के विकास में चक्रीय
पद्धति का प्रयोग डेविस की संकल्पना का महत्वपूर्ण अंग है। उन्होंने बताया कि स्थलरूपों
का निर्माण एवं विकास संरचना, प्रक्रम तथा अवस्था से प्रभावित होता है। डेविस के शब्दों
में, “दृश्य भूमि संरचना, प्रक्रम तथा अवस्था का प्रतिफल है (Landscape is a Function of Structure, Process and Stage ) ।" इन तीनों कारकों
(संरचना, प्रक्रम और प्रतिफल) को 'डेविस की तिकड़ी या त्रिकूट' (Trio of Davis) के नाम से जाना जाता
है।
डेविस के बाद आगे
चलकर अनेक विद्वानों द्वारा स्थल स्वरूपों की संकल्पना को प्रतिपादन किया गया। ये निम्नलिखित
हैं—
1. वाल्टर पेंक (जर्मनी
/ 1924) : मार्फोलॉजिकल सिस्टम
2. मोरिस डेविस :
शुष्क अपरदन-चक्र
3. एल० सी० किंग : पेडीप्लेनेशन-चक्र
4. पेल्टियर : परिहिमानी अपरदन-चक्र 6. स्ट्रालर, हैक एवं चोर्ले : गतिक संतुलन सिद्धान्त
5. बीदी: कार्स्ट अपरदन चक्र
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