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Gupt Raj Vansh ka Itihas in Hindi  - गुप्त राजवंश

Gupt Raj Vansh ka Itihas in Hindi - गुप्त राजवंश

 

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➽गुप्त वंश की जानकारी 

मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल में हर्ष तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही। कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया। मौर्योत्तर काल के उपरान्त तीसरी शताब्दी ईस्वी में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्‍ति, दक्षिण में वाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं। मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनः स्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है।
गुप्त राजवंश Gupt Rajvansh


 कुषाणों के पतन के पश्चात् उत्तर भारत में बहुत से राजवंशों का उदय हुआ जिनमे सबसे शक्तिशाली व सुदृढ़ राजवंश था गुप्त वंश। प्रारंभिक गुप्त संभवतः कुषाणों के सामंत रहे होंगे। भारतीय इतिहास के प्रथम व्यवस्थित साम्राज्य मौर्य वंश के बाद यदि कोई महत्वपूर्ण वंश हुआ है तो  वह गुप्त वंश ही है। गुप्तों की उत्पत्ति के बारे में भी विद्वानों में मतभेद है कोई उन्हें शूद्र मानता है कोई क्षत्रिय, कोई वैश्य तो कोई ब्राह्मण परन्तु गुप्त शासक धारण गोत्र के थे इसकी जानकारी प्रभावती गुप्त के पूना ताम्रपत्र लेख से प्राप्त होती है। गुप्त काल को प्राचीन भारतीय इतिहास का क्लासिकल युग न तो युद्धों बल्कि कला व साहित्यिक समृद्धि के लिए कहा जाता है।

➽गुप्त राजवंश 

➽गुप्त वंश 275 ई. के आसपास अस्तित्व में आया।
➽इसकी स्थापना श्रीगुप्त ने की थी।
➽लगभग 510 ई. तक यह वंश शासन में रहा।
➽आरम्भ में इनका शासन केवल मगध पर था, पर बाद में गुप्त वंश के राजाओं ने संपूर्ण उत्तर भारत को अपने अधीन करके दक्षिण में कांजीवरम के राजा से भी अपनी अधीनता स्वीकार कराई।
➽इस वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए।
➽कालिदास के संरक्षक सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-415 ई.) इसी वंश के थे।
➽यही 'विक्रमादित्य' और 'शकारि' नाम से भी प्रसिद्ध हैं।
➽नृसिंहगुप्त बालादित्य (463-473 ई.) को छोड़कर सभी गुप्तवंशी राजा वैदिक धर्मावलंबी थे।
➽बालादित्य ने बौद्ध धर्म अपना लिया था।
➽गुप्त राजवंशों का इतिहास साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों प्रमाणों से प्राप्त होता है।
➽गुप्त राजवंश या गुप्त वंश प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था।
➽इसे भारत का 'स्वर्ण युग' माना जाता है।
➽गुप्त काल भारत के प्राचीन राजकुलों में से एक था।
➽ मौर्य चंद्रगुप्त ने गिरनार के प्रदेश में शासक के रूप में जिस 'राष्ट्रीय' (प्रान्तीय शासक) की नियुक्ति की थी, उसका नाम 'वैश्य पुष्यगुप्त' था।
➽शुंग काल के प्रसिद्ध 'बरहुत स्तम्भ लेख' में एक राजा 'विसदेव' का उल्लेख है, जो 'गाप्तिपुत्र' (गुप्त काल की स्त्री का पुत्र) था।
➽अन्य अनेक शिलालेखों में भी 'गोप्तिपुत्र' व्यक्तियों का उल्लेख है, जो राज्य में विविध उच्च पदों पर नियुक्त थे।
➽ इसी गुप्त कुल के एक वीर पुरुष श्रीगुप्त ने उस वंश का प्रारम्भ किया, जिसने आगे चलकर भारत के बहुत बड़े भाग में मगध साम्राज्य का फिर से विस्तार किया।
➽साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इस अवधि का योगदान आज भी सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता है। कालिदास इसी युग की देन हैं।
➽ अमरकोश, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति तथा अनेक पुराणों का वर्तमान रूप इसी काल की उपलब्धि है।
➽महान् गणितज्ञ आर्यभट तथा वराहमिहिर गुप्त काल के ही उज्ज्वल नक्षत्र हैं।
➽दशमलव प्रणाली का आविष्कार तथा वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला ओर धातु-विज्ञान के क्षेत्र की उपलब्धियों पर आज भी लोगों का आनंद और आश्चर्य होता है।

➽इस राजवंश में जिन शासकों ने शासन किया उनके नाम इस प्रकार है:-

➽श्रीगुप्त (240-280 ई.),
➽घटोत्कच (280-319 ई.),
➽चंद्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.)
➽समुद्रगुप्त (335-375 ई.)
➽रामगुप्त (375 ई.)
➽चंद्रगुप्त द्वितीय (375-414 ई.)
➽कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य (415-454 ई.)
➽स्कन्दगुप्त (455-467 ई.)

➽श्रीगुप्त 

 ➽कुषाण साम्राज्य के पतन के समय उत्तरी भारत में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उससे लाभ उठाकर बहुत से प्रान्तीय सामन्त राजा स्वतंत्र हो गए थे।
➽सम्भवतः इसी प्रकार का एक व्यक्ति 'श्रीगुप्त' भी था।
➽गुप्त राजवंश की स्थापना महाराजा गुप्त ने लगभग 240 ई. में की थी।
➽उनका वास्तविक नाम श्रीगुप्त था।
➽उसने मगध के कुछ पूर्व में चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार नालन्दा से प्रायः चालीस योजन पूर्व की तरफ़, अपने राज्य का विस्तार किया था।
➽अपनी शक्ति को स्थापित कर लेने के कारण उसने 'महाराज' की पदवी ग्रहण की।
➽चीनी बौद्ध यात्रियों के निवास के लिए उसने 'मृगशिख़ावन' के समीप एक विहार का निर्माण कराया था, और उसका ख़र्च चलाने के लिए चौबीस गाँव प्रदान किए थे।
➽गुप्त राजा स्वयं बौद्ध नहीं थे, पर क्योंकि बौद्ध तीर्थ स्थानों का दर्शन करने के लिए बहुत से चीनी इस समय भारत में आने लगे थे।
➽अतः महाराज श्रीगुप्त ने उनके आराम के लिए यह महत्त्वपूर्व दान दिया था।
➽दो मुद्राएँ ऐसी मिली हैं, जिनमें से एक पर 'गुतस्य' और दूसरी पर 'श्रीगुप्तस्य' लिखा है।
➽सम्भवतः ये इसी महाराज श्रीगुप्त की हैं।
➽प्रभावती गुप्त के पूना स्थित ताम्रपत्र अभिलेख में श्री गुप्त का उल्लेख गुप्त वंश के आदिराज के रूप में किया गया है।
➽लेखों में इसका गोत्र 'धरण' बताया गया है।
➽श्री गुप्त ने 'महाराज' की उपाधि धारण की।
➽श्रीगुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, अतः श्रीगुप्त किसी के अधीन शासक था ।
➽प्रसिद्ध इतिहासकार के. पी. जायसवाल के अनुसार श्रीगुप्त भारशिवों के अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था
➽इत्सिंग के अनुसार श्री गुप्त ने मगध में एक मंदिर का निर्माण करवाया तथा मंदिर के लिए 24 गांव दान में दिए थे।
➽इसके द्वारा धारण की गई उपाधि 'महाराज' सामंतों द्वारा धारण की जाती थी, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि श्रीगुप्त किसी शासक के अधीन शासन करता था।

➽घटोत्कच

श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गद्दी पर बैठा। 280  ई. से 320 ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा।
घटोत्कच Ghatotkach www.indgk.com

➽घटोत्कच (300-319 ई.) गुप्त काल में श्रीगुप्त का पुत्र और उसका उत्तराधिकारी था।
➽लगभग 280 ई. में श्रीगुप्त ने घटोत्कच को अपना उत्तराधिकारी बनाया था।
➽ घटोत्कच तत्सामयिक शक साम्राज्य का सेनापति था।
➽उस समय शक जाति ब्राह्मणों से बलपूर्वक क्षत्रिय बनने को आतुर थी।
➽ घटोत्कच ने 'महाराज' की उपाधि धारण की थी।
➽उसका पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम गुप्त वंश का प्रथम महान् सम्राट हुआ था।
➽शक राजपरिवार तो क्षत्रियत्व हस्तगत हो चला था, किन्तु साधारण राजकर्मी अपनी क्रूरता के माध्यम से क्षत्रियत्व पाने को इस प्रकार लालायित हो उठे थे कि उनके अत्याचारों से ब्राह्मण त्रस्त हो उठे।
➽ ब्राह्मणों ने क्षत्रियों की शरण ली, किन्तु वे पहले से ही उनसे रुष्ट थे, जिस कारण ब्राह्मणों की रक्षा न हो सकी।
➽ठीक इसी जाति-विपणन में पड़कर एक ब्राह्मण की रक्षा हेतु घटोत्कच ने 'कर्ण' और 'सुवर्ण' नामक दो शक मल्लों को मार गिराया।
➽यह उसका स्पष्ट राजद्रोह था, जिससे शकराज क्रोध से फुँकार उठा और लगा, मानों ब्राह्मण और क्षत्रिय अब इस धरती से उठ जायेंगे।
➽घटोत्कच गुप्त ने कुमारगुप्त की मृत्यु के बाद अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी।
➽ कुमारगुप्त के जीवित रहते सभवत: यही घटोत्कच गुप्त मध्य प्रदेश के एरण का प्रांतीय शासक था।
➽उसका क्षेत्र वहाँ से 50 मील उत्तर-पश्चिम में तुंबवन तक फैला हुआ था, जिसकी चर्चा एक गुप्त अभिलेख में हुई है।
➽ ‘मधुमती’ नामक एक क्षत्रिय कन्या से घटोत्कच का पाणिग्रहण (विवाह) हुआ था।
➽लिच्छिवियों ने घटोत्कच को शरण दी, साथ ही उसके पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम के साथ अपनी पुत्री कुमारदेवी का विवाह भी कर दिया।
➽प्रभावती गुप्त के पूना एवं रिद्धपुर ताम्रपत्र अभिलेखों में घटोच्कच को गुप्त वंश का प्रथम राजा बताया गया है।
➽उसका राज्य संभवतः मगध के आसपास तक ही सीमित था।
➽घटोत्कच गुप्त नामक एक शासक की कुछ मोहरें वैशाली से प्राप्त हुई हैं।
➽सेंट पीटर्सवर्ग के संग्रह में एक ऐसा सिक्का मिला है, जिस पर एक ओर राजा का नाम 'घटो-गुप्त' तथा दूसरी ओर 'विक्रमादित्य' की उपाधि अंकित है।
➽ इन सिक्कों तथा कुछ अन्य आधारों पर वि.प्र. सिन्हा ने वैशाली की मोहरों तथा सिक्के वाले घटोत्कच गुप्त को कुमारगुप्त का एक पुत्र माना है
➽कुछ मुद्राएँ ऐसी भी मिली हैं, जिन पर 'श्रीघटोत्कचगुप्तस्य' या केवल 'घट' लिखा है।
➽विसेंट स्मिथ तथा ब्लाख जैसे कुछ विद्वान् इन मुहरों को घटोत्कच गुप्त की ही मानते हैं।
➽प्रसिद्ध मुद्राशास्त्री एलेन ने इस सिक्के का समय 500 ई. के आसपास निश्चित किया है।
➽महाराज घटोत्कच ने लगभग 319 ई. तक शासन किया।

➽चन्द्रगुप्त प्रथम 

➽चन्द्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.) भारतीय इतिहास के सर्वाधिक प्रसिद्ध राजाओं में से एक था।
➽ वह गुप्त शासक घटोत्कच का पुत्र था।
➽चन्द्रगुप्त ने एक 'गुप्त संवत' (319-320 ई.) चलाया, कदाचित इसी तिथि को चंद्रगुप्त प्रथम का राज्याभिषेक हुआ था।
➽चंद्रगुप्त ने, जिसका शासन पहले मगध के कुछ भागों तक सीमित था, अपने राज्य का विस्तार इलाहाबाद तक किया।
➽ 'महाराजाधिराज' की उपाधि धारण करके इसने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया था।
➽नाग राजाओं के शासन के बाद गुप्त राजवंश स्थापित हुआ जिसने मगध में देश के एक शक्तिशाली साम्राज्य को स्थापित किया ।
➽इस वंश के राजाओं को गुप्त सम्राट के नाम से जाना जाता है।
➽ गुप्त राजवंश का प्रथम राजा `श्री गुप्त हुआ, जिसके नाम पर गुप्त राजवंश का नामकरण हुआ।
➽उसका लड़का घटोत्कच हुआ, जिसका पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम 320 ई. में पाटलिपुत्र का शासक हुआ।
➽घटोत्कच के उत्तराधिकारी के रूप में सिंहासनारूढ़ चन्द्रगुप्त प्रथम एक प्रतापी राजा था।
➽उसने 'महाराजधिराज' उपाधि ग्रहण की और लिच्छिवी राज्य की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिच्छिवियों की सहायता से शक्ति बढाई।
 इसकी पुष्टि दो प्रमाणों से होती है।


  • स्वर्ण सिक्के जिसमें 'चन्द्रगुप्त कुमार देवी प्रकार', 'लिच्छवि प्रकार', 'राजारानी प्रकार', 'विवाह प्रकार' आदि हैं।
  • दूसरा प्रमाण समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख हैं जिसमें उसे 'लिच्छविदौहित्र' कहा गया है।

➽कुमार देवी के साथ विवाह कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली का राज्य प्राप्त किया।
➽चन्द्रगुप्त कुमारदेवी प्रकार के सिक्के के पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी दुर्गा की आकृति बनी है।
➽ वह एक शक्तिशाली शासक था, चंद्रगुप्त के शासन काल में गुप्त-शासन का विस्तार दक्षिण बिहार से लेकर अयोध्या तक था ।
➽इस राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी।
➽चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने शासन काल में एक नया संवत चलाया ,जिसे गुप्त संवत कहा जाता है।
➽यह संवत गुप्त सम्राटों के काल तक ही प्रचलित रहा बाद में उस का चलन नहीं रहा।
➽चन्द्रगुप्त प्रथम ने एक संवत 'गुप्त संवत' (319-320 ई.) के नाम से चलाया।
➽गुप्त संवत तथा शक संवत (78 ई.) के बीच 240 वर्षों का अन्तर है।
➽घटोत्कच के बाद महाराजाधिराज चंद्रगुप्त प्रथम हुए।
➽गुप्त वंश के पहले दो राजा केवल महाराज कहे गए हैं।
➽पर चंद्रगुप्त को 'महाराजाधिराज' कहा गया है।
➽इससे प्रतीत होता है, कि उसके समय में गुप्त वंश की शक्ति बहुत बढ़ गई थी।
➽प्राचीन समय में महाराज विशेषण तो अधीनस्थ सामन्त राजाओं के लिए भी प्रयुक्त होता था।
➽पर 'महाराजाधिराज' केवल ऐसे ही राजाओं के लिए प्रयोग किया जाता था, जो पूर्णतया स्वाधीन व शक्तिशाली हों।
➽ प्रतीत होता है, कि अपने पूर्वजों के पूर्वी भारत में स्थित छोटे से राज्य को चंद्रगुप्त ने बहुत बढ़ा लिया था, और महाराजाधिराज की पदवी ग्रहण कर ली थी।
➽ पाटलिपुत्र निश्चय ही चंद्रगुप्त के अधिकार में आ गया था, और मगध तथा उत्तर प्रदेश के बहुत से प्रदेशों को जीत लेने के कारण चंद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य बहुत विस्तृत हो गया था।
➽इन्हीं विजयों और राज्य विस्तार की स्मृति में चंद्रगुप्त ने एक नया सम्वत चलाया था, जो गुप्त सम्वत के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है।
➽मगध के उत्तर में लिच्छवियों का जो शक्तिशाली साम्राज्य था, चंद्रगुप्त ने उसके साथ मैत्री और सहयोग का सम्बन्ध स्थापित किया।
➽कुषाण काल के पश्चात् इस प्रदेश में सबसे प्रबल भारतीय शक्ति लिच्छवियों की ही थी।
➽कुछ समय तक पाटलिपुत्र भी उनके अधिकार में रहा था।
➽लिच्छवियों का सहयोग प्राप्त किए बिना चंद्रगुप्त के लिए अपने राज्य का विस्तार कर सकना सम्भव नहीं था।
➽ इस सहयोग और मैत्रीभाव को स्थिर करने के लिए चंद्रगुप्त ने लिच्छविकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया, और अन्य रानियों के अनेक पुत्र होते हुए भी 'लिच्छवि-दौहित्र' (कुमारदेवी के पुत्र) समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियत किया।
➽ऐसा प्रतीत होता है, कि इस काल में लिच्छवि गण के राजा वंशक्रमानुगत होने लगे थे।
➽गणराज्यों के इतिहास में यह कोई अनहोनी बात नहीं है।
➽कुमारदेवी लिच्छवि राजा की पुत्री और उत्तराधिकारी थी।
➽इसीलिए चंद्रगुप्त के साथ विवाह हो जाने के बाद गुप्त राज्य और लिच्छवि गण मिलकर एक हो गए थे।
➽चंद्रगुप्त के सिक्कों पर उसका अपना और कुमारदेवी दोनों का नाम भी एक साथ दिया गया है।
➽ सिक्के के दूसरी ओर 'लिच्छवयः' शब्द भी उत्कीर्ण है।
➽ इससे यह भली-भाँति सूचित होता है कि, लिच्छवि गण और गुप्त वंश का पारस्परिक विवाह सम्बन्ध बड़े महत्त्व का था।
➽ इसके कारण इन दोनों के राज्य मिलकर एक हो गए थे, और चंद्रगुप्त तथा कुमारदेवी का सम्मिलित शासन इन प्रदेशों पर माना जाता था।
➽श्रीगुप्त के वंशजों का शासन किन प्रदेशों पर स्थापित हो गया था, इस सम्बन्ध में पुराणों में लिखा है, कि 'गंगा के साथ-साथ प्रयाग तक व मगध तथा अयोध्या में इन्होंने राज्य किया।
➽समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी बनाने के बाद चन्द्रगुप्त प्रथम ने सन्न्यास ग्रहण किया।
➽330 ई. चंद्रगुप्त प्रथम की मृत्यु हो गई।
➽चंद्रगुप्त के उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य को बहुत बढ़ा लिया था।
➽अतः पुराणों का यह निर्देश उसके पूर्वजों के विषय में ही है।
➽सम्भवतः महाराजाधिराज चंद्रगुप्त प्रथम बंगाल से प्रारम्भ कर पश्चिम में अयोध्या और प्रयाग तक के विशाल प्रदेश का स्वामी था, और लिच्छवियों के सहयोग से ही इस पर अबाधित रूप से शासन करता था।
➽ इस प्रतापी गुप्त सम्राट का सम्भावित शासन काल 315 या 319 से 328 से 335 ई. तक था।

➽समुद्रगुप्त

➽समुद्र्गुप्त गुप्त राजवंश का चौथा राजा और चन्द्रगुप्त प्रथम का उत्तरधिकरी था।
➽वह भारतीय इतिहास में सबसे बड़े और सफल सेनानायक में से एक माना जाता है।
➽ समुद्रगुप्त, गुप्त राजवंश का तीसरा शासक था और उसका शासनकाल भारत के लिये स्वर्णयुग की शुरूआत कहा जाता है।
➽समुद्रगुप्त एक उदार शासक, वीर योद्धा और कला का संरक्षक था।
➽उसका नाम जावा पाठ में 'तनत्रीकमन्दका' के नाम से प्रकट है।
➽समुद्रगुप्त के कई अग्रज भाई थे, फिर भी उसके पिता ने समुद्रगुप्त की प्रतिभा को देखकर उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।
➽समुद्रगुप्त ने अपने जीवन काल में कभी भी पराजय का स्वाद नहीं चखा।
➽उसके बारे में वी. ए. स्मिथ ने आकलन किया है कि समुद्रगुप्त प्राचीन काल में भारत का नेपोलियन था।

➽गुप्त वंश का उत्तराधिकारी

➽चंद्रगुप्त प्रथम के बाद समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा।
➽चंद्रगुप्त के अनेक पुत्र थे।
➽पर गुण और वीरता में समुद्रगुप्त सबसे बढ-चढ़कर था।
➽लिच्छवी कुमारी श्रीकुमारदेवी का पुत्र होने के कारण भी उसका विशेष महत्त्व था।
➽चंद्रगुप्त ने उसे ही अपना उत्तराधिकारी चुना, और अपने इस निर्णय को राज्यसभा बुलाकर सभी सभ्यों के सम्मुख उद्घोषित किया।
➽ यह करते हुए प्रसन्नता के कारण उसके सारे शरीर में रोमांच हो आया था, और आँखों में आँसू आ गए थे।
➽उसने सबके सामने समुद्रगुप्त को गले लगाया, और कहा - 'तुम सचमुच आर्य हो, और अब राज्य का पालन करो।
➽ ' इस निर्णय से राज्यसभा में एकत्र हुए सब सभ्यों को प्रसन्नता हुई।

 ➽गृहकलह

➽सम्भवतः चंद्रगुप्त ने अपने जीवन काल में ही समुद्रगुप्त को राज्यभार सम्भलवा दिया था।
➽प्राचीन आर्य राजाओं की यही परम्परा थी।
➽चंद्रगुप्त के इस निर्णय से उसके अन्य पुत्र प्रसन्न नहीं हुए।
➽उन्होंने समुद्रगुप्त के विरुद्ध विद्रोह किया।
➽इनका नेता 'काच' था।
➽प्रतीत होता है, कि उन्हें अपने विद्रोह में सफलता भी मिली।
➽ 'काच' नाम के कुछ सोने के सिक्के भी उपलब्ध हुए हैं।
➽इनमें गुप्त काल के अन्य सोने की सिक्कों की अपेक्षा सोने की मात्रा बहुत कम है।
➽इससे अनुमान होता है, कि भाइयों की इस कलह में राज्यकोष के ऊपर बहुत बुरा असर पड़ा था, और इसीलिए काच ने अपने सिक्कों में सोने की मात्रा कम कर दी थी।
➽पर काच देर तक समुद्रगुप्त का मुक़ाबला नहीं कर सका।
➽समुद्रगुप्त अनुपम वीर था।
➽उसने शीघ्र ही भाइयों के इस विद्रोह को शान्त कर दिया, और पाटलिपुत्र के सिंहासन पर दृढ़ता के साथ अपना अधिकार जमा लिया।
➽काच ने एक साल के लगभग तक राज्य किया।
➽काच नामक गुप्त राजा की सत्ता को मानने का आधार केवल वे सिक्के हैं, जिन पर उसका नाम
➽'सर्वराजोच्छेता' विशेषण के साथ दिया गया है।
➽अनेक विद्वानों का मत है, कि काच समुद्रगुप्त का ही नाम था।
➽ये सिक्के उसी के हैं, और बाद में दिग्विजय करके जब वह 'आसमुद्रक्षितीश' बन गया था, तब उसने काच के स्थान पर समुद्रगुप्त नाम धारण कर लिया था।

➽दिग्विजय

➽गृहकलह को शान्त कर समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए संघर्ष प्रारम्भ किया।
➽इस विजय यात्रा का वर्णन प्रयाग में अशोक के मौर्य के प्राचीन स्तम्भ पर बड़े सुन्दर ढंग से उत्कीर्ण है।
➽सबसे पहले आर्यावर्त के तीन राजाओं को जीतकर अपने अधीन किया गया।
इनके नाम हैं—

अहिच्छत्र का राजा अच्युत,
पद्मावती का राजा नागसेन और
राजा कोटकुलज।
➽सम्भवतः अच्युत और नागसेन भारशिव के वंश के साथ सम्बन्ध रखने वो राजा थे।
➽यद्यपि भारशिव नागों की शक्ति का पहले ही पतन हो चुका था, पर कुछ प्रदेशों में इनके छोटे-छोटे राजा अब भी राज्य कर रहे थे।
➽गुप्तों के उत्कर्ष के समय इन्होंने चंद्रगुप्त प्रथम जैसे शक्तिशाली राजा की अधीनता में 'सामन्त' की स्थिति स्वीकार कर ली थी।
➽ पर समुद्रगुप्त और उसके भाइयों की गृहकलह से लाभ उठाकर ये अब फिर से स्वतंत्र हो गए थे।
➽यही दशा कोटकुल में उत्पन्न राजा की भी थी, जिसका नाम प्रयाग के स्तम्भ की प्रशस्ति में मिट गया है।
➽'कोट' नाम से अंकित सिक्के पंजाब और दिल्ली में उपलब्ध हुए है।
➽इस कुल का राज्य सम्भवतः इसी प्रदेश में था।
➽सबसे पूर्व समुद्रगुप्त ने इन तीनों राजाओं को जीतकर अपने अधीन किया, और इन विजयों के बाद बड़ी धूमधाम के साथ पुष्पपुर पाटलिपुत्र में पुनः प्रवेश किया।

➽भारतवर्ष पर एकाधिकार

➽उसका समय भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नामक विजय अभियान के लिए प्रसिद्ध है; समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नाग राजाओं को पराजित कर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया।
➽उसने वाकाटक राज्य पर विजय प्राप्त कर उसका दक्षिणी भाग, जिसमें चेदि, महाराष्ट्र राज्य थे, वाकाटक राजा रुद्रसेन के अधिकार में छोड़ दिया था।
➽उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया।
➽समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार क़ायम कर उसने `दिग्विजय` की।
➽समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में 'प्रयाग प्रशस्ति` के नाम से जानी जाती है


➽समुद्र्गुप्त की दिग्विजय

➽इस विजय के बाद समुद्र गुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्य पर्वत, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी और पश्चिम में चंबल और यमुना नदियों तक हो गया था।
➽पश्चिम-उत्तर के मालव, यौघय, भद्रगणों आदि दक्षिण के राज्यों को उसने अपने साम्राज्य में न मिला कर उन्हें अपने अधीन शासक बनाया।
➽इसी प्रकार उसने पश्चिम और उत्तर के विदेशी शक और 'देवपुत्र शाहानुशाही` कुषाण राजाओं और दक्षिण के सिंहल द्वीप-वासियों से भी उसने विविध उपहार लिये जो उनकी अधीनता के प्रतीक थे।
➽ उसके द्वारा भारत की दिग्विजय की गई, जिसका विवरण इलाहाबाद क़िले के प्रसिद्ध शिला-स्तम्भ पर विस्तारपूर्वक दिया है।
➽`विक्रमादित्य' समुद्र्गुप्त
➽आर्यावत में समुद्रगुप्त ने 'सर्वराजोच्छेत्ता' नीति का पालन नहीं किया ।
➽आर्यावत के अनेक राजाओं को हराने के पश्चात् उसने उन राजाओं के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया।
➽पराजित राजाओं के नाम इलाहबाद - स्तम्भ पर मिलते हैं - अच्युत, नागदत्त, चंद्र-वर्मन, बलधर्मा, गणपति नाग, रुद्रदेव, नागसेन, नंदी तथा मातिल।
➽इस महान् विजय के बाद उसने अश्वमेध यज्ञ किया और `विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी।
➽इस प्रकार समुद्रगुप्त ने समस्त भारत पर अपनी पताका फहरा कर गुप्त-शासन की धाक जमा दी थी।

➽मथुरा पर विजय

➽उत्तरापथ के जीते गये राज्यों में मथुरा भी था, समुद्रगुप्त ने मथुरा राज्य को भी अपने साम्राज्य में शामिल किया।
➽मथुरा के जिस राजा को उसने हराया। उसका नाम गणपति नाग मिलता है।
➽उस समय में पद्मावती का नाग शासक नागसेन था, जिसका नाम प्रयाग-लेख में भी आता है।
➽इस शिलालेख में नंदी नाम के एक राजा का नाम भी है।
➽वह भी नाग राजा था और विदिशा के नागवंश से था।
➽समुद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी।
➽इस साम्राज्य को उसने कई राज्यों में बाँटा।
➽समुद्रगुप्त के परवर्ती राजाओं के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गंगा-यमुना का दोआब 'अंतर्वेदी' विषय के नाम से जाना जाता था।
➽स्कन्दगुप्त के राज्य काल में अंतर्वेदी का शासक 'शर्वनाग' था।
➽इस के पूर्वज भी इस राज्य के राजा रहे होंगे।
➽सम्भवः समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नागों की शक्ति को देखते हुए उन्हें शासन में उच्च पदों पर रखना सही समझा हो।
➽समुद्रगुप्त ने यौधेय, मालवा, अर्जुनायन, मद्र आदि प्रजातान्त्रिक राज्यों को कर लेकर अपने अधीन कर लिया।
➽ दिग्विजय के पश्चात् समुद्रगुप्त ने एक अश्वमेध यज्ञ भी किया।
➽यज्ञ के सूचक सोने के सिक्के भी समुद्रगुप्त ने चलाये।
➽इन सिक्कों के अतिरिक्त अनेक भाँति के स्वर्ण सिक्के भी मिलते है।

➽दक्षिण विजय

➽आर्यवर्त में अपनी शक्ति को भली-भाँति स्थापित कर समुद्रगुप्त ने दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया।
➽इस विजय यात्रा में उसने कुल बारह राजाओं को जीतकर अपने अधीन किया।
➽जिस क्रम से इनको जीता गया था, उसी के अनुसार इनका उल्लेख भी प्रशस्ति में किया गया है।
➽ ये राजा निम्नलिखित हैं -

➽कोशल का महेन्द्र

➽यहाँ कोशल का अभिप्राय दक्षिण कोशल से है, जिसमें आधुनिक मध्य प्रदेश के विलासपुर, रायपुर और सम्बलपुर प्रदेश सम्मिलित थे।
➽ इसकी राजधानी श्रीपुर (वर्तमान सिरपुर) थी।
➽ दक्षिण कोशल से उत्तर की ओर का सब प्रदेश गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत था, और अच्युत तथा नागसेन की पराजय के बाद यह पूर्णतया उसके अधीन हो गया था।
➽आर्यावर्त में पराजित हुए नागसेन की राजधानी ग्वालियर क्षेत्र में 'पद्मावती' थी।
➽अब दक्षिण की ओर विजय यात्रा करते हुए सबसे पहले दक्षिण कोशल का ही स्वतंत्र राज्य पड़ता था।
➽इसके राजा महेन्द्र को जीतकर समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया।

➽महाकान्तार का व्याघ्रराज

➽महाकोशल के दक्षिण-पूर्व में महाकान्तार (जंगली प्रदेश) था।
➽इसी के स्थान में आजकल गोंडवाना के सघन जंगल है।

➽कौराल का मंत्रराज

➽महाकान्तार के बाद 'कौराल' राज्य की बारी आई।
➽यह राज्य दक्षिणी मध्य प्रदेश के सोनपुर प्रदेश के आसपास था।

➽पिष्टपुर का महेंन्द्रगिरि

➽गोदावरी ज़िले में स्थित वर्तमान पीठापुरम ही प्राचीन समय में पिष्टपुर कहलाता था।
➽वहाँ के राजा महेन्द्रगिरि को भी परास्त कर के समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया।

➽कोट्टर का राजा स्वामिदत्त
➽कोट्टर का राज्य गंजाम ज़िले में था।

➽ऐरण्डपल्ल का दमन

➽ऐरण्डपल्ल का राज्य कलिंग के दक्षिण में था।
➽इसकी स्थिति 'पिष्टपुर' और 'कोट्टर' के पड़ोस में सम्भवतः विजगापट्टम ज़िले में थी।

➽कांची का विष्णुगोप

➽कांची का अभिप्राय दक्षिण भारत के कांजीवरम से है।
➽आन्ध्र प्रदेश के पूर्वी ज़िलों और कलिंग को जीतकर अपने अधीन किया।

➽अवमुक्त का नीलराज

➽यह राज्य कांची के समीप में ही था।

➽वेंगि का हस्तवर्मन

➽यह राज्य कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच में स्थित था।
➽वेंगि नाम की नगरी इस प्रदेश में अब भी विद्यमान है।

➽पाल्लक का उग्रसेन

➽यह राज्य नेल्लोर ज़िले में था।

➽देवराष्ट्र का कुबेर

➽इस राजा के प्रदेश के सम्बन्ध में ऐतिहासिकों में मतभेद है।
➽कुछ विद्वान इसे सतारा ज़िले में मानते हैं, और अन्य विजगापट्टम ज़िले में।
➽काँची, वेंगि और अवमुक्त राज्यों के शासक पल्लव वंश के थे।
➽सम्भवतः उन सब की सम्मिलित शक्ति को समुद्रगुप्त ने एक साथ ही परास्त किया था।
➽देवराष्ट्र का प्रदेश दक्षिण से उत्तर की ओर लौटते हुए मार्ग में आया था।

➽कौस्थलपुर का धनंजय

➽यह राज्य उत्तरी आर्कोट ज़िले में था।
➽इसकी स्मृति कुट्टलूर के रूप में अब भी सुरक्षित है।


➽पुन: युद्ध

➽दक्षिण भारत के इन विभिन्न राज्यों को जीतकर समुद्रगुप्त वापस लौट आया।
➽दक्षिण में वह काँची से आगे नहीं गया था।
➽इन राजाओं को केवल परास्त ही किया गया था, उनका मूल से उच्छेद नहीं किया गया था।
➽प्रयाग की समुद्रगुप्त प्रशस्ति के अनुसार इन राजाओं को हराकर पहले क़ैद कर लिया गया था, पर बाद में अनुग्रह करके उन्हें मुक्त कर दिया गया था।

➽गुप्त साम्राज्य में विलय

➽ऐसा प्रतीत होता है, कि जब समुद्रगुप्त विजय यात्रा के लिए दक्षिण गया हुआ था, उत्तरी भारत (आर्यावर्त) के अधीनस्थ राजाओं ने फिर से विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया।
➽उन्हें फिर से दोबारा जीता गया।
➽इस बार समुद्रगुप्त उनसे अधीनता स्वीकार कराके ही संतुष्ट नहीं हुआ, अपितु उसने उनका मूल से उच्छेद कर दिया।
➽इस प्रकार जड़ से उखाड़े हुए राजाओं के नाम ये हैं - रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मा, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युतनन्दी और बलवर्मा।
➽इनमें से नागसेन और अच्युत के साथ समुद्रगुप्त के युद्ध हो चुके थे।
➽ उन्हीं को परास्त करने के बाद समुद्रगुप्त ने धूमधाम के साथ पाटलिपुत्र (पुष्पपुर) में प्रवेश किया था।
➽अब ये राजा फिर से स्वतंत्र हो गए थे, और इस बार समुद्रगुप्त ने इनका समूलोन्मूलन करके इनके राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया।
➽रुद्रदेव वाकाटक वंशी प्रसिद्ध राजा रुद्रसेन प्रथम था।
➽मतिल की एक मुद्रा बुलन्दशहर के समीप मिली है।
➽इसका राज्य सम्भवतः इसी प्रदेश में था।
➽नागदत्त और गणपतिनाथ के नामों से यह सूचित होता है, कि वे भारशिव नागों के वंश के थे, और उनके छोटे-छोटे राज्य आर्यावर्त में ही विद्यमान थे।
➽गणपतिनाथ के कुछ सिक्के बेसनगर में भी उपलब्ध हुए हैं।
➽चन्द्रवर्मा पुष्करण का राजा था।
➽दक्षिणी राजपूताना में सिसुनिया की एक चट्टान पर उसका एक शिलालेख भी मिला है।
➽सम्भवतः बलवर्मा कोटकुलज नृपति था, जिसे पहली बार भी समुद्रगुप्त ने पराजित किया था।
➽ये सब आर्यावर्ती राजा इस बार पूर्ण रूप से गुप्त सम्राट द्वारा परास्त हुए, और इनके प्रदेश पूरी तरह से गुप्त साम्राज्य में शामिल कर लिए गए।

➽कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार

➽आटविक राजाओं के प्रति समुद्रगुप्त ने प्राचीन मौर्य नीति का प्रयोग किया।
➽कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार आटविक राजाओं को अपना सहयोगी और सहायक बनाने का उद्योग करना चाहिए।
➽आटविक सेनाएँ युद्ध के लिए बहुत उपयोगी होती थीं।
➽समुद्रगुप्त ने इन राजाओं का अपना 'परिचारक' बना लिया था।

➽समुद्रगुप्त की अधीनता

➽इसके बाद समुद्रगुप्त को युद्धों की आवश्यकता की नहीं हुई।
➽ इन विजयों से उसकी धाक ऐसी बैठ गई थी, कि अन्य प्रत्यन्त (सीमा-प्रान्तों में वर्तमान) नृपतियों तथा यौधेय, मालव आदि गणराज्यों ने स्वयमेव उसकी अधीनता स्वीकृत कर ली थी।
➽ ये सब कर देकर, आज्ञाओं का पालन कर, प्रणाम कर, तथा राजदरबार में उपस्थित होकर सम्राट समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकृत करते थे।
➽इस प्रकार करद बनकर रहले वाले प्रत्यन्त राज्यों के नाम हैं -

➽समतट या दक्षिण-पूर्वी बंगाल
➽कामरूप या असम
➽नेपाल
➽डवाक या असम का नोगाँव प्रदेश
➽कर्तृपुर या कुमायूँ और गढ़वाल के पार्वत्य प्रदेश।
➽निःसन्देह ये सब गुप्त साम्राज्य के प्रत्यन्त या सीमा प्रदेश में स्थित राज्य थे।

➽अधीनस्थ राज्य

➽इस प्रकार जिन गणराज्यों ने गुप्त सम्राट की अधीनता को स्वीकार किया, वे निम्नलिखित थे - मालव, आर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काक़ और ख़रपरिक।
➽ इनमें से मालव, आर्जुनायन, यौधेय, मद्रक और आभीर प्रसिद्ध गणराज्य थे।
➽ कुषाण साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर इन्होंने अपनी स्वतंत्रता को पुनः स्थापित किया था, और धीरे-धीरे अपनी शक्ति बहुत बढ़ा ली थी।
➽अब समुद्रगुप्त ने इन्हें अपने अधीन कर लिया, पर उसने इनको जड़ से उखाड़ फैंकने का प्रयत्न नहीं किया।
➽वह केवल कर, प्रणाम, राजदरबार में उपस्थिति तथा आज्ञाविर्तिता से ही संतुष्ट हो गया।
➽इन गणराज्यों ने भी सम्राट की अधीनता स्वीकार कर अपनी पृथक् सत्ता को बनाए रखा।
➽प्रार्जुन, काक, सनकादिक और ख़रपरिक छोटे-छोटे गणराज्य थे, जो विदिशा के समीपवर्ती प्रदेश में स्थित थे।
➽ अनेक विद्वानों के मत में इनकी स्थिति उत्तर-पश्चिम के गन्धार सदृश राज्यों के क्षेत्र में थी।

➽समुद्रगुप्त का प्रशस्ति गायन

➽दक्षिण और पश्चिम के अन्य बहुत से राजा भी सम्राट समुद्रगुप्त के प्रभाव में थे, और उसे आदरसूचक उपहार आदि भेजकर संतुष्ट रखते थे।
➽इस प्रकार के तीन राजाओं का तो समुद्रगुप्त प्रशस्ति में उल्लेख भी किया गया है।
➽ये 'देवपुत्र हिशाहानुशाहि', 'शक-मुरुण्ड' और 'शैहलक' हैं।
➽दैवपुत्र शाहानुशाहि से कुषाण राजा का अभिप्राय है।
➽ शक-मुरुण्ड से उन शक क्षत्रपों का ग्रहण किया जाता है, जिनके अनेक छोटे-छोटे राज्य इस युग में भी उत्तर-पश्चिमी भारत में विद्यमान थे।
➽उत्तरी भारत से भारशिव, वाकाटक और गुप्त वंशों ने शकों और कुषाणों के शासन का अन्त कर दिया था।
➽पर उनके अनेक राज्य उत्तर-पश्चिमी भारत में अब भी विद्यमान थे।
➽सिंहल के राजा को सैहलक कहा गया है।
➽इन शक्तिशाली राजाओं के द्वारा समुद्रगुप्त का आदर करने का प्रकार भी प्रयाग की प्रशस्ति में स्पष्ट रूप से लिखा गया है।

➽कन्योपायन

➽ये राजा आत्मनिवेदन, कन्योपायन, दान, गरुड़ध्वज से अंकित आज्ञापत्रों के ग्रहण आदि उपायों से सम्राट समुद्रगुप्त को प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते थे।
➽आत्मनिवेदन का अभिप्राय है, अपनी सेवाओं को सम्राट के लिए अर्पित करना।
➽कन्योपायन का अर्थ है - कन्या विवाह में देना।
➽राजा लोग किसी शक्तिशाली सम्राट से मैत्री सम्बन्ध बनाये रखने के लिए इस उपाय का प्रायः प्रयोग करते थे।
➽सम्भवतः सिंहल, शक और कुषाण राजाओं ने भी समुद्रगुप्त को अपनी कन्याएँ विवाह में प्रदान की थीं।
➽दान का अभिप्राय भेंट-उपहार से है।
➽सम्राट समुद्रगुप्त से ये राजा शासन (आज्ञापत्र) भी ग्रहण करते थे।
➽ इन सब उपायों से वे महाप्रतापी गुप्त सम्राट को संतुष्ट रखते थे, और उसके कोप से बचे रहते थे।
➽इस प्रकार पश्चिम में गान्धार से लगाकर पूर्व में असम तक और दक्षिण में सिंहल (लंका) द्वीप से शुरू कर उत्तर में हिमालय के कीर्तिपुर जनपद तक, सर्वत्र समुद्रगुप्त का डंका बज रहा था।
➽ आर्यावर्त के प्रदेश सीधे उसके शासन में थे, दक्षिण के राजा उसके अनुग्रह से अपनी सत्ता क़ायम रखे हुए थे। ➽सीमाप्रदेशों के जनपद और गणराज्य उसे बाक़ायदा कर देते थे, और दूरस्थ राजा भेंट-उपहार से तथा अपनी सेवाएँ समर्पण कर उसके साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित किए हुए थे।
➽प्रयाग की प्रशस्ति में गुप्त सम्राट की इस अनुपम शक्ति को कितने सुन्दर शब्दों में यह कहकर प्रकट किया है, कि पृथ्वी भर में कोई उसका 'प्रतिरथ' (ख़िलाफ़ खड़ा हो सकने वाला) नहीं था, सारी धरणी को उसने एक प्रकार से अपने बाहुबल से बाँध सा रखा था।

➽अश्वमेध यज्ञ

➽सम्पूर्ण भारत में एकछत्र अबाधित शासन स्थापित कर और दिग्विजय को पूर्ण कर समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया।
➽शिलालेखों में उसे 'चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्ता' (देर से न हुए अश्वमेध को फिर से प्रारम्भ करने वाला) और 'अनेकाश्वमेधयाजी' (अनेक अश्वमेध यज्ञ करने वाला) कहा गया है।
➽इन अश्वमेधों में केवल एक पुरानी परिपाटी का ही अनुसरण नहीं किया गया था, अपितु इस अवसर से लाभ उठाकर कृपण, दीन, अनाथ और आतुर लोगों को भरपूर सहायता देकर उनके उद्धार का भी प्रयत्न किया गया था।
➽प्रयाग की प्रशस्ति में इसका बहुत स्पष्ट संकेत है।
➽समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों में यज्ञीय अश्व का भी चित्र दिया गया है।
➽ये सिक्के अश्वमेध यज्ञ के उपलक्ष्य में ही जारी किए गए थे।
➽इन सिक्कों में एक तरफ़ जहाँ यज्ञीय अश्व का चित्र है, वहीं दूसरी तरफ़ अश्वमेध की भावना को इन सुन्दर शब्दों में प्रकट किया गया है - 'राजाधिराजः पृथिवीमवजित्य दिवं जयति अप्रतिवार्य वीर्यः'—राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर अब स्वर्ग की जय कर रहा है, उसकी शक्ति और तेज़ अप्रतिम है।

➽गुण और चरित्र

➽सम्राट समुद्रगुप्त के वैयक्तिक गुणों और चरित्र के सम्बन्ध में प्रयाग की प्रशस्ति में बड़े सुन्दर संदर्भ पाये जाते हैं।
➽इसे महादण्ड नायक ध्रुवभूति के पुत्र, संधिविग्रहिक महादण्डनायक हरिषेण ने तैयार किया था।
➽हरिषेण के शब्दों में समुद्रगुप्त का चरित्र इस प्रकार का था - 'उसका मन विद्वानों के सत्संग-सुख का व्यसनी था।
➽उसके जीवन में सरस्वती और लक्ष्मी का अविरोध था।
➽वह वैदिक मार्ग का अनुयायी था।
➽उसका काव्य ऐसा था, कि कवियों की बुद्धि विभव का भी उससे विकास होता था, यही कारण है कि उसे 'कविराज' की उपाधि दी गई थी।
➽ ऐसा कौन सा ऐसा गुण है, जो उसमें नहीं था।
➽ सैकड़ों देशों में विजय प्राप्त करने की उसमें अपूर्व क्षमता थी।
➽अपनी भुजाओं का पराक्रम ही उसका सबसे उत्तम साथी था।
➽परशु, बाण, शंकु, शक्ति आदि अस्त्रों-शस्त्रों के सैकड़ों घावों से उसका शरीर सुशोभित था।
➽उसकी नीति यह थी, कि साधु का उदय और असाधु का प्रलय हो।
➽उसका हृदय इतना कोमल था, कि भक्ति और झुक जाने मात्र से वश में आ जाता था।'

 ➽समुद्रगुप्त के सिक्के

➽समुद्रगुप्त के सात प्रकार के सिक्के इस समय में मिलते हैं।
➽पहले प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें वह युद्ध की पोशाक पहने हुए है।
➽उसके बाएँ हाथ में धनुष है, और दाएँ हाथ में बाण।
➽सिक्के के दूसरी तरफ़ लिखा है, "समरशतवितत-विजयी जितारि अपराजितों दिवं जयति" सैकड़ों युद्धों के द्वारा विजय का प्रसार कर, सब शत्रुओं को परास्त कर, अब स्वर्ग को विजय करता है।
➽दूसरे प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें वह परशु लिए खड़ा है।
➽इन सिक्कों पर लिखा है, "कृतान्त (यम) का परशु लिए हुए अपराजित विजयी की जय हों।
➽तीसरे प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें उसके सिर पर उष्णीष है, और वह एक सिंह के साथ युद्ध कर उसे बाण से मारता हुआ दिखाया गया है।
➽ये तीन प्रकार के सिक्के समुद्रगुप्त के वीर रूप को चित्रित करते हैं।
➽पर इनके अतिरिक्त उसके बहुत से सिक्के ऐसे भी हैं, जिनमें वह आसन पर आराम से बैठकर वीणा बजाता हुआ प्रदर्शित किया गया है।
➽इन सिक्कों पर समुद्रगुप्त का केवल नाम ही है, उसके सम्बन्ध में कोई उक्ति नहीं लिखी गई है।
➽इसमें सन्देह नहीं कि जहाँ समुद्रगुप्त वीर योद्धा था, वहाँ वह संगीत और कविता का भी प्रेमी था।

➽सिंहल से सम्बन्ध

➽समुद्रगुप्त के इतिहास की कुछ अन्य बातें भी उल्लेख योग्य हैं।
➽इस काल में सीलोन (सिंहल) का राजा मेघवर्ण था।
➽ उसके शासन काल में दो बौद्ध-भिक्षु बोधगया की तीर्थयात्रा के लिए आए थे।
➽वहाँ पर उनके रहने के लिए समुचित प्रबन्ध नहीं था।
➽जब वे अपने देश को वापिस गए, तो उन्होंने इस विषय में अपने राजा मेघवर्ण से शिकायत की।
➽मेघवर्ण ने निश्चय किया, कि बोधगया में एक बौद्ध-विहार सिंहली यात्रियों के लिए बनवा दिया जाए।
➽ इसकी अनुमति प्राप्त करने के लिए उसने एक दूत-मण्डल समुद्रगुप्त की सेवा में भेजा।
➽समुद्रगुप्त ने बड़ी प्रसन्नता से इस कार्य के लिए अपनी अनुमति दे दी, और राजा मेघवर्ण ने 'बौधिवृक्ष' के उत्तर में एक विशाल विहार का निर्माण करा दिया।
➽जिस समय प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यू-त्सांग बोधगया की यात्रा के लिए आया था, यहाँ एक हज़ार से ऊपर भिक्षु निवास करते थे।

➽पटरानी

➽सम्राट समुद्रगुप्त की अनेक रानियाँ थी, पर पटरानी (अग्रमहिषी पट्टमहादेवी) का पद दत्तदेवी को प्राप्त था। ➽इसी से चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का जन्म हुआ था।
➽पचास वर्ष के लगभग शासन करके 378 ई. में समुद्रगुप्त स्वर्ग को सिधारे।

➽पुत्र

➽समुद्र गुप्त के दो पुत्र थे-
रामगुप्त
चंद्रगुप्त 
➽समुद्र गुप्त के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त मगध का सम्राट हुआ था ।

➽रामगुप्त

➽रामगुप्त गुप्त राजवंश के ख्याति प्राप्त समुद्रगुप्त का पुत्र था।
➽प्राचीन काव्य ग्रंथों से यह संकेत मिलता है कि समुद्रगुप्त के बड़े लड़के का नाम रामगुप्त था और पिता की मृत्यु के बाद शुरू में वही राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ था।
➽वह बड़ा निर्बल, कामी तथा नपुँसक व्यक्ति था।

निर्बल शासक

➽रामगुप्त का विवाह ध्रुवदेवी के साथ हुआ था।
➽पर पति के नपुँसक और निर्बल होने के कारण वह उससे संतुष्ट नहीं थी।
➽ रामगुप्त की निर्बलता से लाभ उठाकर साम्राज्य के अनेक सामन्तों ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया।
➽विशेषत: 'शाहानुशाहि कुषाण या शक' राजा, जो समुद्रगुप्त की शक्ति के कारण आत्मनिवेदन, भेंट-उपहार, कन्योपदान आदि उपायों से उसे संतुष्ट रखने का प्रयत्न करते थे, अब रामगुप्त की कमज़ोरी से लाभ उठाकर उद्दण्ड हो गए और उन्होंने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया।

➽पराजय

➽हिमालय की उपत्यका में युद्ध हुआ, जिसमें रामगुप्त हार गया। एक पहाड़ी दुर्ग में गुप्त सेनाएँ घिर गईं और नपुँसक रामगुप्त ने शक राज्य की सेवा में सन्धि के लिए याचना की।
➽जो सन्धि के शर्तें शकराज की ओर से पेश की गईं, उनमें से एक यह भी थी कि "पट्ट-महादेवी ध्रुवदेवी को शकराज के सुपुर्द कर दिया जाए।
➽ " नपुँसक रामगुप्त इसके लिए भी तैयार हो गया।
➽पर उसका छोटा भाई चंद्रगुप्त इसे सह न सका।

➽चंद्रगुप्त द्वारा वध

➽चंद्रगुप्त ने स्वयं ध्रुवदेवी का रूप धारण किया।
➽अन्य बहुत-से सैनिकों को भी परिचारिका के रूप में स्त्री-वेश पहनाया गया।
➽शकराज के अन्तःपुर में पहुँचकर स्त्री-वेशधारी चंद्रगुप्त ने शकराज का घात कर दिया।
➽इसके बाद निर्बल रामगुप्त को भी मारकर चंद्रगुप्त ने राजगद्दी पर अधिकार कर लिया और अपनी भाभी ध्रुवदेवी के साथ विवाह किया।
➽ध्रुवदेवी चंद्रगुप्त द्वितीय की 'पट्टमहादेवी' बनी।
➽इस कथा के निर्देश न केवल प्राचीन काव्य-साहित्य में, अपितु शिलालेखों में भी उपलब्ध होते हैं।

➽कथा साहित्य में उल्लेख

➽प्राचीन समय में यह कथा इतनी लोकप्रिय थी कि प्रसिद्ध कवि विशाखदत्त ने भी इसे लेकर 'देवीचन्द्रगुप्तम्' नाम का एक नाटक लिखा।
➽विशाखदत्त कृत देवीचन्द्रगुप्तम् नामक नाटक में सर्वप्रथम रामगुप्त का अस्तित्व प्रकाश में आया।
➽यह नाटक इस समय उपलब्ध नहीं होता, पर इसके उद्धरण अनेक ग्रंथों में दिए गए हैं, जिनसे इस कथा कि रूपरेखा का परिचय मिल जाता है।
 ➽बाण के 'हर्षचरित' में भी इस कथा का निर्देश यह लिखकर किया गया है कि 'दूसरी पत्नी का कामुक शकपति कामिनी-वेशधारी चंद्रगुप्त के द्वारा मारा गया।'
➽राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' में 'ध्रुववदेवी' के नाम का श्लोक है, जिसमें यह वर्णन मिलता है कि चन्द्रगुप्त ने रामगुप्त की हत्या कर गद्दी हथिया ली तथा ध्रुवदेवी से शादी कर ली।
➽ काव्यमीमांसा के 'शर्मगुप्त' या 'सेनगुप्त' को ही रामगुप्त माना गया है।
➽मुद्रा साक्ष्य के आधार पर देखा जाए तो रामगुप्त के कुछ तांबे के सिक्के विदिशा व उदयगिरि से प्राप्त हुए हैं जिन पर रामगुप्त, गरुण अंकित है व तिथि गुप्त कालीन है।
➽रामगुप्त की ऐतिहासिकता का पुर्ननिर्माण करने वाले विद्धान सर्वप्रथम 'राखालदास बनर्जी' थे।
➽इसके अतिरिक्त डॉ. अल्टेकर , डॉ मिराशी, श्री पी.एल. गुप्त, डॉ. बाजपेयी आदि है।
➽रामगुप्त के ऐतिहासिकता के विरोध में डॉ. स्मिथ, हेमचंद्र रायचौधरी, डॉ, जे.एन. बनर्जी, डॉ. वसाक तथा डॉ. नारायण आदि विद्वान् है।
➽राजा अमोधवर्ष के ताम्रपात्र में भी इस कथा का निर्देश किया गया है।
➽अरब लेखकों ने भी इस कथा को लेकर पुस्तकें लिखी थीं।
➽बाद में अरबी के आधार पर फ़ारसी में भी इस कथानक को लिखा गया।
➽बारहवीं सदी में अब्दुलहसन अली नाम के एक लेखक ने इस कथा को "मलमलुतवारीख़" नामक पुस्तक में लिखा।
➽यह पुस्तक इस समय भी उपलब्ध है।
➽अब यह प्रमाणित होता है कि समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त द्वितीय नहीं अपित रामगुप्त था।
➽ 'रामचंद्र गुणचंद्र' कृत नाटक 'दपर्ण' से ज्ञात होता है कि रामगुप्त समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी था।

➽चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य

➽चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (शासन: 380-412 ईसवी) गुप्त राजवंश का राजा था।
➽समुद्रगुप्त का पुत्र 'चन्द्रगुप्त द्वितीय' समस्त गुप्त राजाओं में सर्वाधिक शौर्य एवं वीरोचित गुणों से सम्पन्न था।
➽शकों पर विजय प्राप्त करके उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की।
➽वह 'शकारि' भी कहलाया।
➽वह अपने वंश में बड़ा पराक्रमी शासक हुआ।
➽मालवा, काठियावाड़, गुजरात और उज्जयिनी को अपने साम्राज्य में मिलाकर उसने अपने पिता के राज्य का और भी विस्तार किया।
➽चीनी यात्री फ़ाह्यान उसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा।
➽चन्द्रगुप्त द्वितीय का सेनापति आम्रकार्द्दव था।
➽उसे देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री, श्रीविक्रम, विक्रमादित्य, परमाभागवत्, नरेन्द्रचन्द्र, सिंहविक्रम, अजीत विक्रम आदि उपाधि धारण किए थे।
➽अनुश्रूतियों में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक नपरेश रुद्रसेन से किया, रुद्रसेन की मृत्यु के बाद चन्द्रगुप्त ने अप्रत्यक्ष रूप से वाकाटक राज्य को अपने राज्य में मिलाकर उज्जैन को अपनी दूसरी राजधानी बनाई।
➽इसी कारण चन्द्रगुप्त द्वितीय को 'उज्जैनपुरवराधीश्वर' भी कहा जाता है।
➽उसकी एक राजधानी पाटलिपुत्र भी थी।
➽अतः चन्द्रगुप्त द्वितीय को 'पाटलिपुत्र पुरावधीश्वर' भी कहा गया है।
➽दक्षिण भार में कुंतल एक प्रभावशाली राज्य था।
➽ 'श्रृंगार प्रकाश' तथा' कंतलेश्वरदीत्यम्' से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय का कुंतल नरेश से मैत्रीपूर्ण संबंध था।
➽कुंतल नरेश ककुत्स्थवर्मन ने अपनी पुत्री का विवाह गुप्त नरेश से कर दिया।
➽ इस वैवाहिक संबंध की पुष्टि क्षेमेन्द्र की औचित्य विचार चर्चा से भी होती है।
➽चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन-काल भारत के इतिहास का बड़ा महत्त्वपूर्ण समय माना जाता है।
➽ चीनी यात्री फ़ाह्यान उसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा।
➽वह बड़ा उदार और न्याय-परायण सम्राट था।
➽उसके समय में भारतीय संस्कृति का चतुर्दिक विकास हुआ।
➽महाकवि कालिदास उसके दरबार की शोभा थे।
➽वह स्वयं वैष्णव था, पर अन्य धर्मों के प्रति भी उदार-भावना रखता था।
➽गुप्त राजाओं के काल को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' कहा जाता है।
➽इसका बहुत कुछ श्रेय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की शासन-व्यवस्था को है।
➽राजगद्दी पर आरूढ़ होने के बाद चंद्रगुप्त के सम्मुख दो कार्य मुख्य थे -
➽रामगुप्त के समय में उत्पन्न हुई अव्यवस्था को दूर करना
➽उन म्लेच्छ शकों का उन्मूलन करना, जिन्होंने ने केवल गुप्तश्री के अपहरण का प्रयत्न किया था, अपितु जिन्होंने कुलवधू की ओर भी दृष्टि उठाई थी।
➽चंद्रगुप्त के सम्राट बनने पर शीघ्र ही साम्राज्य में व्यवस्था क़ायम हो गई।
➽ वह अपने पिता का योग्य और अनुरूप पुत्र था।
➽अपनी राजशक्ति को सुदृढ़ कर उसने शकों के विनाश के लिए युद्धों का प्रारम्भ किया।
➽विष्णुपुराण 4,24,68 से विदित होता है कि संभवत: गुप्तकाल से पूर्व अवन्ती पर आभीर इत्यादि शूद्रों या विजातियों का आधिपत्य था-
➽ऐतिहासिक परंपरा से हमें यह भी विदित होता है कि प्रथम शती ई. पू. में (57 ई. पू. के लगभग) विक्रम संवत के संस्थापक किसी अज्ञात राजा ने शकों को हराकर उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया था।
➽गुप्तकाल में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अवंती को पुन: विजय किया और वहाँ से विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंका।

➽कुछ विद्वानों के मत में 57 ई. पू. में विक्रमादित्य नाम का कोई राजा नहीं था और चंद्रगुप्त द्वितीय ही ने अवंती-विजय के पश्चात् मालव संवत् को जो 57 ई. पू. में प्रारम्भ हुआ था, विक्रम संवत का नाम दे दिया।

➽शक-विजय

➽विदेशी जातियों की शक्ति के इस समय दो बड़े केन्द्र थे -
➽काठियावाड़ और गुजरात के शक - महाक्षत्रप
➽गान्धार-कम्बोज के कुषाण।
➽शक-महाक्षत्रप सम्भवतः 'शाहानुशाहि कुषाण' राजा के ही प्रान्तीय शासक थे, यद्यपि साहित्य में कुषाण राजाओं को भी शक-मुरुण्ड (शकस्वामी या शकों के स्वामी) संज्ञा कहा गया है।
➽पहले चंद्रगुप्त द्वितीय ने काठियावाड़ - गुजरात के शक-महाक्षत्रपों के साथ युद्ध किया।
➽उस समय महाक्षत्रप 'रुद्रसिंह तृतीय' इस शक राज्य का स्वामी था।
➽चंद्रगुप्त के द्वारा वह परास्त हुआ, और गुजरात-काठियावाड़ के प्रदेश भी गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित हो गए।
➽शकों की पराजय में वाकाटकों से भी बड़ी सहायता मिली।
➽दक्षिणापथ में वाकाटकों का शक्तिशाली राज्य था।
➽समुद्रगुप्त ने वहाँ के राजा 'रुद्रदेव या रुद्रसेन' को परास्त किया था, पर अधीनस्थ के रूप में वाकाटक वंश की सत्ता वहाँ पर अब भी विद्यमान थी।
वाकाटक राजा बड़े ही प्रतापी थे, और उनकी अधीनता में अनेक सामन्त राजा राज्य करते थे।
➽ वाकाटक राजा रुद्रसेन द्वितीय के साथ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की कन्या 'प्रभावती गुप्त' का विवाह भी हुआ था।
➽ 'रुद्रसेन द्वितीय' के साथ गुप्त वंश की राजकुमारी का विवाह हो जाने से गुप्तों और वाकाटकों में मैत्री और घनिष्ठता स्थापित हो गई थी।
➽ इस विवाह के कुछ समय बाद ही तीस वर्ष की आयु में रुद्रदेन द्वितीय की मृत्यु हो गई।
➽उसके पुत्र अभी छोटी आयु के थे, अतः राज्यशासन प्रभावती गुप्त ने अपने हाथों में ले लिया, और वह वाकाटक राज्य की स्वामिनी बन गई।
➽इस स्थिति में उसने 390 ई. से 410 ई. के लगभग तक राज्य किया।
➽अपने प्रतापी पिता चंद्रगुप्त द्वितीय का पूरा साहाय्य और सहयोग प्रभावती को प्राप्त था।
➽जब चंद्रगुप्त ने महाक्षत्रप शक-स्वामी रुद्रसिंह पर आक्रमण किया, तो वाकाटक राज्य की सम्पूर्ण शक्ति उसके साथ थी।

 ➽उपाधियाँ

➽गुजरात-काठियावाड़ के शकों का उच्छेद कर उनके राज्य को गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत कर लेना चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है।
➽ इसी कारण वह भी 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' कहलाया।
➽कई सदी पहले शकों का इसी प्रकार से उच्छेद कर सातवाहन सम्राट 'गौतमी पुत्र सातकर्णि' ने 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' की उपाधियाँ ग्रहण की थीं।
➽अब चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी एक बार फिर उसी गौरव को प्राप्त किया।
➽गुजरात और काठियावाड़ की विजय के कारण अब गुप्त साम्राज्य की सीमा पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत हो गई थी।
➽नये जीते हुए प्रदेशों पर भली-भाँति शासन करने के लिए पाटलिपुत्र बहुत दूर पड़ता था।
➽ इसलिए चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।

➽साम्राज्य विस्तार

➽गुजरात-काठियावाड़ के शक-महाक्षत्रपों के अतिरिक्त गान्धार कम्बोज के शक-मुरुण्डों (कुषाणों) का भी चंद्रगुप्त ने संहार किया था।
➽ दिल्ली के समीप महरौली में लोहे का एक 'विष्णुध्वज (स्तम्भ)' है, जिस पर चंद्र नाम के एक प्रतापी सम्राट का लेख उत्कीर्ण है।
➽ऐतिहासिको का मत है, कि यह लेख गुप्तवंशी चंद्रगुप्त द्वितीय का ही है।
➽इस लेख में चंद्र की विजयों का वर्णन करते हुए कहा गया है, कि उसने सिन्ध के सप्तमुखों (प्राचीन सप्तसैन्धव देश की सात नदियों) को पार कर वाल्हीक (बल्ख) देश तक युद्ध में विजय प्राप्त की थी।
➽पंजाब की सात नदियों यमुना, सतलुज, व्यास, रावी, चिनाब, जेलहम और सिन्धु का प्रदेश प्राचीन समय में 'सप्तसैन्धव' कहाता था।
➽इसके परे के प्रदेश में उस समय शक-मुरुण्डों या कुषाणों का राज्य विद्यमान था।
➽सम्भवतः इन्हीं शक-मुरुण्डों ने ध्रुवदेवी पर हाथ उठाने का दुस्साहस किया था।
➽अब ध्रुवदेवी और उसके पति चंद्रगुप्त द्वितीय के प्रताप ने बल्ख तक इन शक-मुरुण्डों का उच्छेद कर दिया, और गुप्त साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा को सुदूर वंक्षु नदी तक पहुँचा दिया।

➽बंगाल

➽महरौली के इसी स्तम्भलेख में यह भी लिखा है, कि बंगाल में प्रतिरोध करने के लिए इकट्ठे हुए अनेक राजाओं को भी चंद्रगुप्त ने परास्त किया था।
➽सम्भव है, कि जब चंद्रगुप्त द्वितीय काठियावाड़-गुजरात के शकों को परास्त करने में व्यापृत था, बंगाल के कुछ पुराने राजकुलों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया हो, और उसे बंगाल जाकर भी अपनी तलवार का प्रताप दिखाने की आवश्यकता हुई हो।

➽दक्षिणी भारत

➽चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में गुप्त साम्राज्य अपनी शक्ति की चरम सीमा पर पहुँच गया था।
➽दक्षिणी भारत के जिन राजाओं को समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया था, वे अब भी अविकल रूप से चंद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते थे।
➽शक-महाक्षत्रपों और गान्धार-कम्बोज के शक-मुरुण्डों के परास्त हो जाने से गुप्त साम्राज्य का विस्तार पश्चित में अरब सागर तक और हिन्दूकुश के पार वंक्षु नदी तक हो गया था।

➽अश्वमेध

➽चंद्रगुप्त की उपाधि केवल 'विक्रमादित्य' ही नहीं थी।
➽शिलालेखों में उसे 'सिंह-विक्रम', 'सिंहचन्द्र', 'साहसांक', 'विक्रमांक', 'देवराज' आदि अनेक उपाधियों से विभूषित किया गया है।
➽उसके भी अनेक प्रकार के सिक्के मिलते हैं।
➽शक-महाक्षत्रपों को जीतने के बाद उसने उनके प्रदेश में जो सिक्के चलाए थे, वे पुराने शक-सिक्कों के नमूने के थे।
➽उत्तर-पश्चिमी भारत में उसके जो बहुत से सिक्के मिले हैं, वे कुषाण नमूने के हैं।
➽चंद्रगुप्त की वीरता उसके सिक्कों के द्वारा प्रकट होती है।
➽सिक्कों पर उसे भी सिंह के साथ लड़ता हुआ प्रदर्शित किया गया है, और साथ में यह वाक्य दिया गया है, ➽क्षितिमवजित्य सुचरितैः दिवं जयति विक्रमादित्यः पृथिवी का विजय प्राप्त कर विक्रमादित्य अपने सुकार्य से स्वर्ग को जीत रहा है।
➽अपने पिता के समान चंद्रगुप्त ने भी अश्वमेध यज्ञ किया।

 ➽विभिन्न संदर्भ

➽शकारि समुद्रगुप्त के पुत्र एवं उज्जयनी के विख्यात विद्याप्रेमी सम्राट के रूप में ये प्रसिद्ध हैं।
➽इनका वास्तविक नाम चन्द्रगुप्त है।
➽अश्वमेध के अनंतर इन्होंने 'विक्रमादित्य' की उपाधि ग्रहण की थी।
➽इतिहास में इनकी सभा के नौ रत्न उस समय के अपने विषय में पारंगत एवं मनीषी विद्वान् थे।
➽इनके नाम क्रमश: कालिदास, वररुचि, अमर सिंह, धंवंतरि, क्षपणक, वेतालभट्ट, वराहमिहिर, घटकर्पर, और शंकु थे।
➽ इनका समय इतिहास के विद्वान् लेखकों द्वारा ईसा पूर्व पह्ली शती निर्धारित होता है।
➽इनके नाम से चलाया गया विक्रमी संवत संवत्सर की गणना में आज भी प्रयुक्त होता है।

➽कुमारगुप्त प्रथम

➽कुमारगुप्त प्रथम (414-455 ई.) गुप्तवंशीय सम्राट था।
➽पिता चंद्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के बाद वह राजगद्दी पर बैठा था।
➽वह पट्टमहादेवी ध्रुवदेवी का पुत्र था।
➽उसके शासन काल में विशाल गुप्त साम्राज्य अक्षुण रूप से क़ायम रहा।
➽बल्ख से बंगाल की खाड़ी तक उसका अबाधित शासन था।
➽सब राजा, सामन्त, गणराज्य और प्रत्यंतवर्ती जनपद कुमारगुप्त के वशवर्ती थे।
➽गुप्त वंश की शक्ति उसके शासन काल में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी।
➽कुमारगुप्त को विद्रोही राजाओं को वश में लाने के लिए कोई युद्ध नहीं करने पड़े।

➽अभिलेख

➽कुमारगुप्त प्रथम के समय के लगभग 16 अभिलेख और बड़ी मात्रा में स्वर्ण के सिक्के प्राप्त हुए हैं।
➽उनसे उसके अनेक विरुदों, यथा- 'परमदैवत', 'परमभट्टारक', 'महाराजाधिराज', 'अश्वमेघमहेंद्र', 'महेंद्रादित्य', 'श्रीमहेंद्र', 'महेंद्रसिंह' आदि की जानकारी मिलती है।
➽इसमें से कुछ तो वंश के परंपरागत विरुद्ध हैं, जो उनके सम्राट पद के बोधक हैं।
➽कुछ उसकी नई विजयों के द्योतक जान पड़ते हैं।
➽सिक्कों से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त प्रथम ने दो अश्वमेघ यज्ञ किए थे।
➽उसके अभिलेखों और सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से उसके विस्तृत साम्राज्य का ज्ञान होता है।
➽वे पूर्व में उत्तर-पश्चिम बंगाल से लेकर पश्चिम में भावनगर, अहमदाबाद, उत्तर प्रदेश और बिहार में उनकी संख्या अधिक है।
➽उसके अभिलेखों से साम्राज्य के प्रशासन और प्रांतीय उपरिकों का भी ज्ञान होता है।

➽राज्य पर आक्रमण

➽कुमारगुप्त के अंतिम दिनों में साम्राज्य को हिला देने वाले दो आक्रमण हुए थे।
➽पहला आक्रमण कदाचित्‌ नर्मदा नदी और विध्यांचल पर्वतवर्ती आधुनिक मध्य प्रदेशीय क्षेत्रों में बसने वाली पुष्यमित्र नाम की किसी जाति का था।
➽उनके आक्रमण ने गुप्त वंश की लक्ष्मी को विचलित कर दिया था; किंतु राजकुमार स्कंदगुप्त आक्रमणकारियों को मार गिराने में सफल हुआ।
➽दूसरा आक्रमण हूणों का था, जो संभवत उसके जीवन के अंतिम वर्ष में हुआ था।
➽हूणों ने गंधार पर कब्जा कर गंगा की ओर बढ़ना प्रारंभ कर दिया था।
➽स्कंदगुप्त ने उन्हें पीछे ढकेल दिया।

➽सुख-समृद्धि का युग

➽कुमारगुप्त का शासन काल भारतवर्ष में सुख और समृद्धि का युग था।
➽वह स्वयं धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु और उदार शासक था।
➽उसके अभिलेखों में पौराणिक हिन्दू धर्म के अनेक संप्रदायों के देवी-देवताओं के नामोल्लेख और स्मरण तो हैं ही, बुद्ध की भी स्मृति चर्चा है।
➽उसके उदयगिरि के अभिलेख में पार्श्वनाथ के मूर्ति निर्मांण का भी वर्णन है।
➽यदि ह्वेनत्सांग का 'शक्रादित्य' कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य ही हो, तो हम उसे 'नालन्दा विश्वविद्यालय' का संस्थापक भी कह सकते हैं।

➽निधन

➽455 ई. में कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु हुई।

➽स्कन्दगुप्त

➽कुमारगुप्त की पटरानी का नाम महादेवी अनन्तदेवी था।
➽उसका पुत्र पुरुगुप्त था।
➽स्कन्दगुप्त की माता सम्भवतः पटरानी या महादेवी नहीं थी।
➽ऐसा प्रतीत होता है, कि कुमारगुप्त की मृत्यु के बाद राजगद्दी के सम्बन्ध में कुछ झगड़ा हुआ, और अपनी वीरता तथा अन्य गुणों के कारण स्कन्दगुप्त गुप्त साम्राज्य का स्वामी बना।
➽अपने पिता के शासन काल में ही 'पुष्यमित्रों' को परास्त करके उसने अपनी अपूर्व प्रतिभा और वीरता का परिचय दिया था।
➽पुष्यमित्रों का विद्रोह इतना भयंकर रूप धारण कर चुका था, कि गुप्तकाल की लक्ष्मी विचलित हो गई थी और उसे पुनः स्थापित करने के लिए स्कन्दगुप्त ने अपने बाहुबल से शत्रुओं का नाश करते हुए कई रातें ज़मीन पर सोकर बिताईं।
➽जिस प्रकार शत्रुओं को परास्त कर कृष्ण अपनी माता देवकी के पास गया था, वैसे ही स्कन्दगुप्त भी शत्रुवर्ग को नष्ट कर अपनी माता के पास गया।
➽इस अवसर पर उसकी माता की आँखों में आँसू छलक आए थे।
➽राज्यश्री ने स्वयं ही स्कन्दगुप्त को स्थायी रूप में वरण किया था।
➽ सम्भवतः बड़ा लड़का होने के कारण राजगद्दी पर अधिकार तो पुरुगुप्त का था, पर शक्ति और वीरता के कारण राज्यश्री स्वयं ही स्कन्दगुप्त के पास आ गई थी।

➽हूणों की पराजय

➽स्कन्दगुप्त के शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना हूणों की पराजय है।
➽ हूण बड़े ही भयंकर योद्धा थे।
➽ उन्हीं के आक्रमणों के कारण 'युइशि' लोग अपने प्राचीन निवास स्थान को छोड़कर शकस्थान की ओर बढ़ने को बाध्य हुए थे, और युइशियों से खदेड़े जाकर शक लोग ईरान और भारत की तरफ़ आ गए थे।
➽हूणों के हमलों का ही परिणाम था, कि शक और युइशि लोग भारत में प्रविष्ट हुए थे।
➽उधर सुदूर पश्चिम में इन्हीं हूणों के आक्रमण के कारण विशाल रोमन साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया था।
➽हूण राजा 'एट्टिला' के अत्याचारों और बर्बरता के कारण पाश्चात्य संसार में त्राहि-त्राहि मच गई थी।
➽अब इन हूणों की एक शाखा ने गुप्त साम्राज्य पर हमला किया, और कम्बोज जनपद को जीतकर गान्धार में प्रविष्ट होना प्रारम्भ किया।
➽ हूणों का मुक़ाबला कर गुप्त साम्राज्य की रक्षा करना स्कन्दगुप्त के राज्यकाल की सबसे बड़ी घटना है।
➽एक स्तम्भालेख के अनुसार स्कन्दगुप्त की हूणों से इतनी ज़बर्दस्त मुठभेड़ हुई कि सारी पृथ्वी काँप उठी। अन्त में स्कन्दगुप्त की विजय हुई, और उसी के कारण उसकी अमल शुभ कीर्ति कुमारी अन्तरीप तक सारे भारत में गायी जाने लगी, और इसीलिए वह सम्पूर्ण गुप्त वंश में 'एकवीर' माना जाने लगा।
➽बौद्ध ग्रंथ 'चंद्रगर्भपरिपृच्छा' के अनुसार हूणों के साथ हुए इस युद्ध में गुप्त सेना की संख्या दो लाख थी।
➽हूणों की सेना तीन लाख थी।
➽तब भी विकट और बर्बर हूण योद्धाओं के मुक़ाबले में गुप्त सेना की विजय हुई।
➽स्कन्दगुप्त के समय में हूण लोग गान्धार से आगे नहीं बढ़ सके।
➽गुप्त साम्राज्य का वैभव उसके शासन काल में प्रायः अक्षुण्ण रहा।
➽स्कन्दगुप्त के समय के सोने के सिक्के कम पाए गए हैं।
➽उसकी जो सुवर्ण मुद्राएँ मिली हैं, उनमें भी सोने की मात्रा पहले गुप्तकालीन सिक्कों के मुक़ाबले में कम है।
➽इससे अनुमान किया जाता है, कि हूणों के साथ युद्धों के कारण गुप्त साम्राज्य का राज्य कोष बहुत कुछ क्षीण हो गया था, और इसीलिए सिक्कों में सोने की मात्रा कम कर दी गई थी।

➽सुदर्शन झील

➽स्कन्दगुप्त के समय में सौराष्ट्र (काठियावाड़) का प्रान्तीय शासक 'पर्णदत्त' था।
➽उसने गिरिनार की प्राचीन सुदर्शन झील की फिर से मरम्मत कराई थी।
➽इस झील का निर्माण सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के समय में हुआ था।
➽तब सुराष्ट्र का शासक वैश्य 'पुष्यगुप्त' था।
➽पुष्यगुप्त ही इस झील का निर्माता था।
➽बाद में अशोक के समय में प्रान्तीय शासक यवन 'तुषास्प' ने और फिर महाक्षत्रप 'रुद्रदामा' ने इस झील का पुनरुद्धार किया।
➽गुप्त काल में यह झील फिर ख़राब हो गई थी।
➽ अब स्कन्दगुप्त के आदेश से 'पर्णदत्त' ने इस झील का फिर जीर्णोद्वार किया।
➽उसके शासन के पहले ही साल में इस झील का बाँध टूट गया था, जिससे प्रजा को बड़ा कष्ट हो गया था।
➽स्कन्दगुप्त ने उदारता के साथ इस बाँध पर खर्च किया।
➽पर्णदत्त का पुत्र 'चक्रपालित' भी इस प्रदेश में राज्य सेवा में नियुक्त था।
➽उसने झील के तट पर विष्णु भगवान के मन्दिर का निर्माण कराया।
➽स्कन्दगुप्त ने किसी नए प्रदेश को जीतकर गुप्त साम्राज्य का विस्तार नहीं किया।
➽सम्भवतः इसकी आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि गुप्त सम्राट 'आसमुद्र क्षितीश' थे।

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