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Mugal kal History in Hindi - मुगल वंश

Mugal kal History in Hindi - मुगल वंश

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Mugal kal History in Hindi

मंगोलों के वंशज मुगल मध्य एशिया के निवासी थे। बाबर के भारतीय अभियान के समय में राजनैतिक एकता का बहुत अभाव था तथा सम्पूर्ण भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। भारत की सामाजिक आर्थिक-राजनैतिक स्थिति खराब थी। 
तत्कालीन स्थिति पर प्रकाश डालते हुए डॉ. वी.एन. मजूमदार ने लिखा है कि "बाबर के लिए परेशानी की कोई बात नहीं थी। भारत में मुसलमानों की विजय के लिए मंच तैयार था।" 

मुगल वंश

Mugal kal History in Hindi
Mugal kal History in Hindi


मुगल शब्द 'मंगोल' से बना है।महमूद गजनवी के आक्रमणों ने भारत में 'मुस्लिम राज्य' की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के समय में अधिकांश भारत पर मुस्लिम सत्ता' का प्रभुत्व कायम हो गया था, इससे राजपूताना भी अछूता नहीं रहा । तुगलक सुल्तानों के समय में अधिकांश राजपूत राज्य स्वतन्त्र हो चुके थे। मेवाड़ के राणा कुंभा और राणा सांगा के नेतृत्व में राजपूत पुनः अपनी सर्वोच्चता सिद्ध करने की ओर अग्रसर होने लगे थे, परन्तु खानवा के युद्ध ने स्थिति को एक बार पुन: मुसलमानों के पक्ष में मोड़ दिया।

बाबर (1526-30 ई.)

जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का जन्म 14 फरवरी, 1483 ई. को तुर्किस्तान के फरगना नामक स्थान पर हुआ था। वह तैमूर का वंशज एवं चुगताई तुर्क था। बाबर की माता कुतलुनिगार खानम थी। बाबर अपने पिता उमर शेख मिर्जा की मृत्यु के बाद 11 वर्ष की आयु में 1494 ई. में फरगना का शासक बना। बाबर ने भारत में सर्वप्रथम 1519 ई. में बाजौर व भेरा पर आक्रमण किया व विजय हासिल की।


पानीपत का प्रथम युद्ध- 

21 अप्रैल, 1526 ई. को बाबर और दिल्ली सल्तनत के सुल्तान इब्राहीम लोदी के मध्य पानीपत के मैदान में पानीपत का प्रथम युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में बाबर को निर्णायक विजय प्राप्त हुई। इस विजय के परिणामस्वरूप बाबर का दिल्ली एवं आगरा पर अधिकार हो गया। इसके साथ ही दिल्ली सल्तनत के शासन का अन्त हुआ तथा भारत में मुगल वंश के शासन की स्थापना हुई। बाबर ने इस युद्ध में तुलुगुमा रणनीति अपनाई।

खानवा का युद्ध- 

पानीपत विजय के पश्चात् 17 मार्च, 1527 ई. को बाबर ने खानवा के युद्ध में मेवाड़ के राणा सांगा को हराया। 1528 ई. में बाबर ने चन्देरी के शासक मेदिनीराय को परास्त किया। 1530 ई. में बाबर की मृत्यु हो गई। उसे उसकी अंतिम इच्छानुसार अफगानिस्तान में काबुल के बाग में दफना दिया गया।

बाबर ने तोपखाने का प्रयोग ईरानियों से तथा तुलुगुमा पद्धति का प्रयोग मंगोलों से सीखा।
बाबर ने भारत में पहली बार तोपखाने का प्रयोग किया। 

हुमायूँ ( 1530-40 ई. तथा 1555-56 ई.)

बाबर की मृत्यु के बाद नसीरुद्दीन हुमायूँ दिसम्बर, 1530 ई. में आगरा में 23 वर्ष की अवस्था में सिंहासन पर बैठा। 1533 ई. में चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर गुजरात के शासक बहादुरशाह द्वारा आक्रमण किए जाने पर रानी कर्मवती ने हुमायूँ को राखी भेजकर सहायता मांगी थी। परन्तु हुमायूँ ने सहायता नहीं भेजी। इस प्रकार हुमायूँ ने राजपूतों की सहानुभूति व सहयोग प्राप्त करने का अवसर खो दिया। अपने दस वर्ष के शासन के पश्चात् ही मई, 1540 ई. में कन्नौज (बिलग्राम) के युद्ध में हुमायूँ अफगान सरदार शेरशाह सूरी द्वारा पराजित हो गया। दिल्ली पर शेरशाह सूरी का शासन स्थापित हो गया एवं उसे 15 वर्ष तक निष्कासित जीवन व्यतीत करना पड़ा। इस अवधि में उसने अपने भाई हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरू मीर अली अकबर की पुत्री हमीदा बानो बेगम से 29 अगस्त, 1541 ई. को विवाह किया, कालान्तर में इसी से अकबर का जन्म हुआ। 15 वर्ष पश्चात् हुमायूँ ने 1555 ई. में पुन: दिल्ली पर अधिकार किया। 26 जनवरी, 1556 को उसके पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिर जाने के कारण हुमायूँ को मृत्यु हो गई।

शेरशाह सूरी (1540-1545 ई.)

अफगान सरदार शेरशाह सूरी ने 1540 में कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ का हराकर दिल्ली में सूरी वंश की स्थापना की। 1544 ई. में गिरि सुमेल के युद्ध में शेरशाह सूरी ने राजस्थान के मारवाड़ के शासक राव मालदेव के विरुद्ध बड़ा कठिनाई से विजय हासिल की। तब सूरी ने कहा था, "मुट्ठी भर बाजरी के लिए मैंने हिन्दुस्तान की बादशाहत खो दी होती।" शेरशाह सूरी की 1545 ई. में मृत्यु हो गई। उसके पश्चात् उनके पुत्र इस्लाम शाह ने 1545 से 1553 ई. तक शासन किया। इस्लाम शाह के पश्चात् अयोग्य सूरी शासकों के कारण कालान्तर में हुमायूँ ने पुनः दिल्ली पर अधिकार कर लिया व सूरी वंश का अंत हो गया।      

 अकबर महान् ( 1556-1605 ई.)

अमरकोट के राजा वीरसाल के यहाँ 15 अक्टूबर, 1542 ई. को अकबर का जन्म हुआ। हुमायूँ की मृत्यु के बाद 14 फरवरी, 1556 को अकबर का राज्याभिषेक किया गया। बैरम खाँ अकबर का संरक्षक था। 1560-62 ई. तक अकबर माहम अनगा के प्रभाव में रहा। इस काल को पर्दाशासन अथवा पेटीकोट सरकार के नाम से भी जाना जाता है।
पानीपत का द्वितीय युद्धः मुगल बादशाह अकबर व हेमू के मध्य 5 नवम्बर, 1556 ई. को पानीपत का द्वितीय युद्ध हुआ, जिसमें अकबर विजयी हुआ।
आमेर के राजपूत शासक भारमल अकबर की अधीनता स्वीकार करने वाले प्रथम राजपूत शासक थे।
अकबर ने 1568 ई. में मेवाड़ के राणा उदयसिंह को हराकर चित्तौड़ पर विजय प्राप्त की। अकबर और महाराणा प्रताप सिंह के मध्य 21 जून, 1576 ई. में प्रसिद्ध हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया, जिसमें महाराणा प्रताप हार गये। (नोट: प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री गोपीनाथ शर्मा की पुस्तक 'राजस्थान का इतिहास तथा राजस्थान सरकार के प्रकाशन Rajasthan Through the Ages' के Volume-2 में इस युद्ध की तिथि 21 जून, 1576 दी गई है।) (कुछ पुस्तकों में इसकी तिथि 18 जून भी दी गई है।) 
अकबर की धार्मिक नीति का मूल उद्देश्य 'सार्वभौमिक सहिष्णुता' था। इसे 'सुलहकुल' की नीति कहते हैं।
अकबर ने 'दीन-ए-इलाही' या तौहीद-ए-इलाही' नामक एक धार्मिक पथ चलाया।
अकबर ने 1583 ई. में एक नवीन कलैण्डर 'इलाही संवत्' प्रचलित किया था।
अकबर के नवरत्न में बीरबल, अबुल फजल, फैजी, टोडरमल, तानसेन, मानसिंह, अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना तथा मुल्ला दो प्याजा आदि शामिल थे।
अक्टूबर, 1605 में अकबर की मृत्यु हो गई। अकबर को सिकन्दरा (आगरा ) में मुस्लिम रीति से दफनाया गया। 
अकबर ने मुगल सम्राटों में सर्वाधिक अवधि तक शासन किया, परन्तु वास्तविक शासन औरंगजेब ने सर्वाधिक अवधि तक किया क्योंकि अकबर शासन के प्रारंभ में अवयस्क था।

जहाँगीर ( 1605-27 ई.)

जहाँगीर का जन्म 30 अगस्त, 1569 ई. में राजा भारमल की पुत्री जोधाबाई (मरियम उज्जमानी) से हुआ। (माध्यमिक शिक्षा बोर्ड , राजस्थान की कक्षा 12 की पुस्तक' भारत का इतिहास व संस्कृति में मरियम उज्जमानी का नाम हरखा भी दिया गया है) शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से इसका जन्म होने के कारण इसका नाम मुहम्मद सलीम रखा गया। सलीम अब्दरहीम खान-ए-खाना से सर्वाधिक प्रभावित हुआ। सलीम का राज्याभिषेक 1605 ई. में आगरा के किले में हुआ। सलीम ने 'नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर बादशाह' की उपाधि धारण की।

1606 ई. में जहाँगीर के पुत्र खुसरो ने विद्रोह कर दिया। जहाँगीर ने खुसरो के विद्रोह करने पर उसे अंधा कर दिया। शाहजादा खुसरो के विद्रोह से ही गुरु अर्जुन देव की घटना भी जुड़ी हुई है। माना जाता है कि गुरु अर्जुन देव ने तरणतारण में खुसरो को शरण दी थी। अतः जहाँगीर ने उन पर दो लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया। गुरु के जुर्माना राशि देने से इंकार करने पर जहाँगीर ने गुरु को 30 मई, 1606 ई. को मृत्युदण्ड दे दिया। अर्जुन देव के पुत्र हरगोविंद को भी जहाँगीर ने जेल में डाल दिया जहाँ वे 1611 ई. तक रहे। 

. मई, 1611 ई. में जहाँगीर ने मेहरुन्निसा नामक विधवा से विवाह करके उसे 'नूरमहल' की उपाधि दी। यह नूर-ए-जहाँ के नाम से प्रसिद्ध हुई। कालांतर में नूरजहां ने काफी शक्ति अर्जित कर ली। 1613 ई. में उसे पादशाह बेगम की उपाधि दी गई। यह जहाँगीर के साथ शिकार पर जाती थी तथा उसके साथ झरोखा दर्शन में भी उपस्थित होती थी नूरजहाँ के प्रभाव से उसके पिता गयासबेग को एतमादुद्दौला की उपाधि मिली और उन्हें वजीर के पद पर नियुक्त किया गया।

. जहाँगीर के शासन काल में विलियम हॉकिन्स (1608 ई.), विलियम फिच (1608 ई.), सर टॉमस रो ( 1615 ई.), एडवर्ड हैरी (1616 ई.) आदि यूरोपीय यात्री आए। जहाँगीर ने ही 10 जनवरी, 1616 को अंग्रेजी दूत सर टॉमस रो अजमेर में मुलाकात कर ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में व्यापार करने की अनुमति प्रदान की।

जहाँगीर न्याय जंजीर' के लिए विख्यात था। 1627 ई. में जहाँगीर की मृत्यु हो गई।


शाहजहाँ (1627-58 ई.)


शाहजहाँ का जन्म 6 जनवरी, 1592 ई. में लाहौर में हुआ था। 1612 ई. में इसका विवाह आसफ खाँ की पुत्री अरजुमन्द बानो बेगम ( मुमताज महल) से हुआ। शाहजहाँ के बचपन का नाम खुर्रम था। 1627 ई. में जहाँगीर की मृत्यु के समय खुर्रम दक्कन में था तथा लाहौर में नूरजहाँ ने शहरयार को सम्राट घोषित कर दिया, परन्तु उन्हें हराकर वह 1628 ई. में शाहजहाँ के नाम से गद्दी पर बैठा। शाजहाँ के काल को 'स्थापत्य का स्वर्ण युग' कहा जाता है।

शाहजहाँ का अन्तिम समय अत्यन्त कष्टदायक था। सितम्बर, 1657 ई. में वह गम्भीर रूप से रोगग्रस्त हो गया, ऐसी स्थिति में उसके चार पुत्रों दाराशिकोह, शुजा, औरंगजेब और मुराद के मध्य उत्तराधिकार का युद्ध प्रारम्भ हो गया, जिसमें औरंगजेब की विजय हुई। औरंगजेब ने स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया एवं शाहजहाँ को आगरा के किले में कैद कर लिया, जहाँ 8 वर्ष पश्चात् 1666 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। शाहजहाँ को ताजमहल में उसकी पत्नी मुमताज महल की कब्र के निकट दफना दिया गया।

औरंगजेब (1658-1707 ई.)


मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब का जन्म नवम्बर, 1618 ई. में मुमताज महल से हुआ था। 16 मई, 1637 ई. को फारस के घराने के शाहनवाज की पुत्री दिलरस बानो बेगम से इसका विवाह हुआ। 31 जुलाई, 1658 ई. को उसका राज्याभिषेक हुआ। आगरा पर अधिकार के पश्चात् 1658 ई. में उसने 'आलमगीर' की उपाधि धारण की। 3 मार्च, 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु हो गई। दौलताबाद से चार मील दूर 'शेख जैम-उल-हक' के मजार के निकट उसे दफना दिया गया। औरंगजेब ने पूर्व मुगल सम्राटों की सहिष्णुता एवं सद्भाव  की नीति को त्याग कर साम्राज्य विस्तार की नीति का अनुसरण किया जिसके कारण विभिन्न भागों में विभिन्न वर्गों द्वारा विद्रोह किये गये। अपनी असहिष्णुता की नीति के कारण औरंगजेब ने उन राजपूत राजाओं पर भी विश्वास नहीं किया जिनके पूर्वजों ने मुगल साम्राज्य की नींव को सुदृढ़ किया था। फलतः मारवाड़, मेवाड़ तथा आमेर के राजपूत शासकों के साथ उसके संबंध बिगड़ गये। उसकी इस नीति का मुगल साम्राज्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और वह पतनोन्मुख होता गया जब औरंगजेब सम्राट बन गया तो उसने हरगोविन्द को शाही-दरबार में उपस्थित होने का आदेश दिया। हरगोविन्द स्वयं तो उपस्थित नहीं हुआ किन्तु अपने बड़े पुत्र रामराय को दरबार में भेज दिया। जब रामराय मुगलों के पक्ष में हो गया तो हरगोविन्द ने 1661 ई. में अपनी मृत्यु के पूर्व अपने दूसरे पुत्र हरकिशन को अपना उत्तराधिकारी  बना दिया। औरंगजेब ने हरकिशन को दरबार में बुलाया किन्तु 1664 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। सिखों ने हरगोविन्द के तीसरे पुत्र तेगबहादुर को अपना गुरु बनाया। कुछ समय तक तेग बहादुर के मुगलों से अच्छे संबंध रहे। लेकिन बाद में औरंगजेब की असहिष्णुता की नीति की प्रतिक्रियास्वरूप वह मुगलों का विरोधी हो गया। औरंगजेब ने उसे बन्दी बना 1675 ई. में उनका वध करवा दिया। उनकी शहीदी की स्मृति में वहीं गुरुद्वारा शीशगंज, दिल्ली में बना हुआ है। तेगबहादुर के 13 वर्षीय पुत्र गोविन्दसिंह दसवें तथा अन्तिम सिख गुरु बने । गुरु गोविन्द सिंह ने 1699 ई. में अपने पिता के वध का बदला लेने तथा औरंगजेब के अत्याचारों के विरुद्ध सिखों में एकता स्थापित कर उन्हें एक सैनिक संगठन में परणित कर दिया जिसे उन्होंने 'खालसा पंथ का नाम दिया। गुरु गोविंद सिंह जी ने आनन्दपुर को अपना केन्द्र बनाया जहाँ मुगलों से उनके दो युद्ध हुए। चमकौर के युद्ध में उनके दो पुत्र मारे गये तथा अन्य दो पुत्र जीवित दीवार में चुन दिये गये। इतना होने पर भी गोविन्दसिंह ने मुगलों के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं किया। औरंगजेब ने सिख जैसी वीर जाति को अपनी कट्टर धार्मिक एवं अत्याचारपूर्ण नीति से विद्रोही बना दिया जिससे मुगल साम्राज्य को बड़ा धक्का लगा। औरंगजेब का कुछ वर्ष बाद ही 1707 ई. में देहान्त हो गया। औरंगजेब को 'जिन्दापीर' कहा जाता था। उसने जजिया कर लगाया था।

औरंगजेब द्वारा लड़े गए उत्तराधिकार युद्धः

  1. धरमत का युद्धः औरंगजेब ने 1658 ई.में दारा के सेनापति जसवंत सिंह तथा कासिम खाँ को हराया।
  2. सामूगढ़ का युद्ध: औरंगजेब ने 1658 ई. में दारा शिकोह को हराया। 
  3. रूपनगढ़ का युद्धः औरंगजेब ने मुराद को पराजित किया।
  4. खजवा का युद्धः औरंगजेब ने शुजा को परास्त किया।
  5. दौराई का युद्ध: औरंगजेब ने अन्तिम रूप से अजमेर के निकट दौराई में दारा शिकोह को हराया।


बहादुरशाह प्रथम ( 1707-12 ई.)


औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों मुअज्जम, आजम एवं कामबख्श में उत्तराधिकार के युद्ध में मुअज्जम विजयी हुआ। वह बहादुरशाह' की उपाधि धारण कर 63 वर्ष की आयु में शासक बना। उसने अपने शासन काल में राजपूतों एवं मराठों के प्रति सहनशीलता व शान्ति की नीति अपनाई। खाफी खान ने उसे 'शाह-ए-बेखबर' कहा है।

अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुगल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य जर्जर होने लगा। 1713 ई. में फर्रुखसियर मुगल बादशाह बना। उस समय अब्दुल्ला खाँ और हुसैन अली खाँ जिन्हें 'सैयद बन्धु' कहा जाता था, अत्यधिक प्रभावशाली सरदार थे। उन्होंने फर्रुखसियर की हत्या कर दी। उन्हें भारतीय इतिहास में 'किंग मेकर्स' (King makers) कहा जाता है। 1719 में मुहम्मद शाह मुगल सम्राट बना। उसके समय में चिनकिलिच खाँ ने 'सैयद बन्धुओं' को उखाड़ फेंका। उसी के समय 1739 में नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण किया। उसने दिल्ली में भयंकर कत्लेआम व लूटपाट की। वह प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा व शाहजहाँ का रत्न जड़ित मयूर सिंहासन ( तख्ते ताऊस) भी अपने साथ ले गया।


शाह आलम द्वितीय (1759-1806 ई)


1759 ई. में आलमगीर द्वितीय का पुत्र अली गौहर शाह आलम द्वितीय के नाम से मुगल शासक बना। उसने 1764 ई. में अंग्रेजों के विरूद्ध बक्सर के युद्ध में भाग लिया जिसमें उनकी हार हुई। 1765 ई. में शाह आलम द्वितीय और अंग्रेजों के मध्य इलाहाबाद की संधि हुई। अंग्रेजों को बंगाल और बिहार की दीवानी, एवं कड़ा प्रदेश 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन के बदले प्रदान की। 1806 ई. में इसकी मृत्यु हो गई।


बहादुरशाह जफर द्वितीय ( 1837-57 ई.)


यह अन्तिम मुगल शासक था। इसने 1857 ई. के विद्रोह में भाग लिया था। क्रांतिकारियों ने इसे भारत का सम्राट घोषित कर दिया था। अतः अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर उसे रंगून भेज दिया गया, जहाँ 1862 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।


मुगल राजत्व का सिद्धान्त


मुगलों के राजत्व की अवधारणा तुर्की मंगोल परम्परा पर आधारित थी। । इस परम्परा में शक्तिशाली राजतंत्र की अवधारणा थी। मुगल शासकों ने खुद को पादशाह तथा खलीफा घोषित किया। बाबर ने स्वयं को 'खाकान' कहा था जो राजत्व में मंगोल प्रभाव को दर्शाता है। अकबर ने जागीरदारी व मनसबदारी व्यवस्था की स्थापना की। इस व्यवस्था ने अमीर वर्ग को कमजोर, विभाजित तथा राज्य द्वारा राजस्व के पुनर्वितरण पर आधारित कर दिया। अकबर का राजत्व सुलह-ए-कुल पर आधारित था। अकबर के समय राजत्व का भारतीयकरण भी हुआ। औरंगजेब का घोषित उद्देश्य 'दर-उल- हर्ब' (मूर्तिपूजक का देश) को 'दर-उल-इस्लाम' (इस्लाम का देश) बनाना था। औरंगजेब विचार-व्यवहार तथा कार्य में अकबर के विपरीत था। |

मुगल प्रशासन


केन्द्रीय प्रशासनः

मुगल सम्राट साम्राज्य का प्रमुख होने के साथ ही सेना का प्रधान, न्याय व्यवस्था का प्रमुख, इस्लाम का रक्षक और मुस्लिम जनता का आध्यात्मिक नेता होता था। शासन में अपनी सहायता के लिए बादशाह विभिन्न मंत्रियों की नियुक्ति करता था। प्रत्येक मंत्री का अपना पृथक कार्यालय होता था । मुगलकाल में निम्न विभाग व मंत्री कार्यरत थे-

प्रमुख विभाग व मंत्री


वकील या प्रधानमंत्री- वह सम्राट को सलाह देने के साथ ही प्रशासन के सभी विभागों का निरीक्षण करता था। वकील को वजीर-ए- आला या वकील-ए-मुतलक नाम से भी जाता था।
दीवान-ए-कुल- अकबर द्वारा वकील पद को समाप्त कर स्थापित पद जो वित्त व राजस्व का सर्वोच्च अधिकारी था । उसकी सहायता हेतु दीवान-ए-खालसा, दीवान-ए-तन व मुस्तौफी होते थे।
मीर बक्शी या सेनापति- मुगल काल में सैनिक विभाग के मुखिया को मीर बक्शी' कहा जाता था।
मीर-ए-समान- बादशाह के घरेलू व व्यक्तिगत मामलों का प्रधान होता था।

सद-उस-सूद- वह दान-सम्पत्ति का निर्णायक, निरीक्षक एवं सम्राट का धार्मिक सलाहकार होता था। छात्रवृत्तियों का निर्धारण करना, शिक्षण संस्थाओं को भूमि दान करना, दान-पुण्य की व्यवस्था करना उसका प्रमुख कर्त्तव्य था।
काजी-उल-कुजात- यह प्रधान काजी था व न्याय विभाग का प्रमुख होता था।
मीर-ए-आतिरा- तोपखाने का अधीक्षक होता था।
मुहतसिब- इनका प्रमुख कार्य शरीयत के विरुद्ध कार्य करने वालों को रोकना तथा प्रजा के नैतिक स्तर को ऊँचा उठाना था। दरोगा-ए-डाक चौकी- मुगल काल में गुप्तचर व डाक विभाग का प्रमुख होता था।

मुगलकालीन अन्य अधिकारी

दीवाने-ए-तन- युद्ध समय को छोड़कर सेना को वेतन देने का कार्य करता था।
वाकिया-नवीस- समाचार लेखक था। 
वतिकची- दरबार की घटनाओं को लिखने के साथ-साथ प्रांतों की भूमि एवं लगान संबंधी कागजात तैयार करता था।
मुशरिफ- प्रमुख लेखाधिकारी जो राज्य की आय-व्यय का लेखा जोखा रखता था। 
मुस्तौफी- यह मुशरिफ द्वारा तैयार आय-व्यय के लेखा-जोखा की जाँच करता था।
दरोगा-ए-टकसाल- राजकीय टकसाल पर नियंत्रण व उसके संचालन करने का कार्य।
मीर-ए-बर्र- यह वन-विभाग व का प्रमुख था। 
मीर-ए-बहर- नाविक विभाग व बंदरगाहों का प्रमुख होता था।

प्रांतीय शासन व्यवस्थाः

बाबर व हुमायूँ के शासन काल में शासन की प्रांतीय व्यवस्था विकसित नहीं हो पायी थी। उस समय साम्राज्य जागीरों में बँटा हुआ था। मानक प्रांतीय प्रशासन के विकास का श्रेय अकबर को जाता है। सन् 1580 (शासन के 24वें वर्ष) में सम्राट अकबर द्वारा मुगल साम्राज्य को सूबों में विभाजित किया गया। सूबों में प्रमुख अधिकारी सूबेदार, प्रांतीय दीवान, प्रांतीय बक्शी, प्रांतीय सद्र व कोतवाल थे।

सूबेदार- यह प्रांत का सर्वोच्च अधिकारी था। इसे प्रांत के सम्पूर्ण सैनिक व असैनिक अधिकार प्राप्त थे इसे सूबेदार, नाजिम या सिपहसालार (गवर्नर ) के नाम से जाना जाता था।
प्रांतीय दीवान- यह प्रांत में अर्थ विभाग का संचालक होता था। इसका प्रमुख कार्य आय-व्यय का लेखा-जोखा रखना तथा राजस्व संबंधी मुकदमों का निर्णय करना था।

प्रांतीय कोतवाल

प्रांत के प्रमुख नगरों और राजधानियों की सुरक्षा एवं पुलिस प्रबन्ध के लिए कोतवाल नाम का विशेष अधिकारी था। यह नगर पुलिस का प्रधान होता था।
इन अधिकारियों के अतिरिक्त प्रांतीय बक्शी (सेना विभाग), काजी (न्याय), वाकयानवीस (गुप्तचर) आदि प्रमुख अधिकारी थे जो केन्द्र द्वारा नियुक्त व निर्देशित होते थे ।

जिला शासन व्यवस्था- 

मुगल प्रशासन में सूबों (प्रांत) को जिला या सरकार में बाँटा गया था। यहाँ के प्रमुख अधिकारी फौजदार (सैनिक प्रमुख) व अमालगुजार (अर्थ विभाग) थे। अमालगुजार को करोड़ी भी कहा जाता था जो कि बतिकची (लिपिक) व खजानदार के माध्यम से कार्य करता था।

परगने का शासन- 

सरकार से नीचे की इकाई परगना थी। सरकार (जिला) कई परगों में विभक्त होता था। शिकदार प्रमुख अधिकारी या जिसके कर्त्तव्य फौजदार के समान होते थे। परगने का दूसरा प्रमुख अधिकारी आमिल था जो परगने का अर्थमंत्री था। इसके अलावा कानूनगो व पटवारी प्रमुख अधिकारी होते थे।

ग्राम प्रशासन- 

प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। गाँव का प्रशासन मुकद्दम, पटवारी व चौकीदार देखते थे। ग्राम प्रधान को खुत, मुकद्दम या चौधरी के नाम से जाना जाता है।

मुगलकालीन सेना- 

मुगल सेना 'दशमलव प्रणाली' पर संगठित थी, जिसमें ईरानी, तूरानी, अफगानी, भारतीय मुसलमान व मराठों को सम्मिलित किया गया था। मुगल में 'अहदी सैनिक' व' दाखिली सैनिक' होते थे। मुगल कालीन सेना विभिन्न भागों में बँटी हुई थी।
घुड़सवार सेना- इसमें मुख्यतया दो प्रकार के सैनिक थे। बरगीर (जिन्हें घोड़े, अस्त और शस्त्र राज्य की ओर से मिलते थे) और सिलेदार (जो अपने शस्त्र और घोड़े स्वयं लाते थे।)
पैदल सेना- पैदल सेना भी दो भागों में बँटी थी। बन्दूकची व शमशीर बाज (तलवारबाज)।

हाथी सेना व तोपखाना


नौ-सेना- मुगलों ने पश्चिमी समुद्रतट की रक्षा का भार अबीसिनिया और जंजीरा के सिद्दियों को दे रखा था व पूर्व में बंगाल में एक नाविक बेड़ा रखा था।

मुगलकालीन मनसबदारी व्यवस्था:

बादशाह अकबर ने प्रशासन में मनसबदारी व्यवस्था प्रारंभ की। मनसबदारी पद्धति के माध्यम से अकबर ने अमीर वर्ग, सिविल अधिकारी एवं सैन्य अधिकारी सभी को एक दूसरे से जोड़ने का प्रयास किया था । मुगल मनसबदारी व्यवस्था मध्य एशिया से ग्रहण की गई थी व यह मंगोंलों के दशमलव सिद्धान्त पर आधारित थी। मनसब का अर्थ पद या श्रेणी से था। प्रत्येक मनसबदार का रैंक दो अंकों का होता था। प्रथम अंक जात रैंक तथा द्वितीय अंक सवाट रैंक का बोधक था। इसमें 'जात' व' सवार का प्रयोग किया जाता था। इसमें जात शब्द से व्यक्ति के वेतन तथा पद के अनुक्रम में उसकी स्थिति तय होती थी। जबकि 'सवार' शब्द से घुड़सवार दस्ते की संख्या का पता चलता था।

जहाँगीर ने मनसबदारी में 'दुह अस्पा' व 'सिंह-अस्पा' प्रथा को चलाया। दुह अस्पा में मनसबदारों को अपने 'सवार' पद से दुगने सवार रखने होते थे व सिंह-अस्पा में सवार-पद के तीन गुने सवार रखने पड़ते थे।
इजारेदारी: इजारेदारी व्यवस्था का प्रचलन सर्वप्रथम जागीर भूमि से हुआ।

मुगलकालीन आर्थिक जीवन

मुगलकालीन मुद्रा व्यवस्था: अकबर ने 1577 में दिल्ली में शाही-टकसाल बनवायी और उसका प्रधान ख्वाजा अब्दुल समद' को बनाया । अकबर द्वारा 'इलाही' व 'मुहर' नामक सोने के सिक्के चलाये गये जो सर्वाधिक प्रचलित सिक्का था।

  • मुगलकाल में शेरशाह द्वारा चलाया गया रुपया' (चाँदी का सिक्का ) मानक सिक्का था जिसका वजन 175 ग्रेन था।
  • अकबर ने चाँदी के चौकोर सिक्के चलाये जो ‘जलाली' कहे जाते थे। अकबर ने ताँबे का एक सिक्का 'दाम' चलाया जो रुपये के चालीसवें भाग के बराबर था। 
  • जहाँगीर ने 'निसार' नामक सिक्का चलाया जो रुपये के चौथाई मूल्य के बराबर होता था। 
  • आना' नामक सिक्का शाहजहाँ ने चलाया जो कि 'दाम' रुपये के बीच का सिक्का था।
  • मुगल काल में सोने के सिक्के बनाने की 4 तथा चाँदी के सिक्के बनाने की 14 टकसालें थी।
  • जीतल- ताँबे का छोटा सिक्का।

मुगलकालीन भू-राजस्व व्यवस्था: 

अकबर ने शेरशाह की भू-राजस्व नीति का अनुसरण कर नवीन प्रयोग किये व अंत में टोडरमल के नेतृत्व में 1580 में भू-राजस्व की आइन-ए-दहसाला पद्धति का श्रीगणेश किया जो कि पिछले दस वर्षों के रिकार्ड के आकलन पर तैयार की गई थी। इसके कई चरण थे।

भूमि की पैमाइश- 

अकबर ने भू मापन हेतु सर्वप्रथम शेरशाह द्वारा प्रचलित नापने की पटवे की रस्सी को हटाकर सर्वप्रथम 'जरीब' का प्रयोग किया। जरीब बाँस के डंडे होते थे जिन पर लोहे की कड़ियाँ लगी होती थी। अकबर ने सिंकदरी गज (39 अंगुल) के स्थान पर इलाही गज (41 अंगुल 33 इंच) का प्रयोग किया।

भूमि का वर्गीकरण - उपज के आधार पर भूमि को चार भागों में विभाजित किया जाता था।
पोलज- जिस भूमि पर प्रति वर्ष कृषि की जाती थी।
पड़ती- जिस भूमि पर एक या दो वर्ष छोड़कर कृषि की जाती थी। 
चाचर- जिस भूमि पर तीन-चार वर्ष छोड़कर कृषि की जाती थी। बंजर- जो भूमि कृषि योग्य नहीं थी।

भूमि कर का निर्धारण- 

अकबर द्वारा गत 10 वर्ष की औसत उपज के आधार पर औसत पैदावार का एक-तिहाई भाग भूमि कर के रूप में लिया जाता था। दहसाला पद्धति में राजस्व निर्धारण की जब्त, कनकूट, नस्क एवं बटाई पद्धतियाँ प्रचलित थी।

भू-राजस्व अधिकारी- आमलगुजार, आमिल, मुकद्दम, पाटील, पटवारी, कानूनगो। 

मुगल भू-राजस्व दर- 

अकबर के समय 1/3 भाग भू-राजस्व वसूला जाता था। शाहजहाँ के काल में 70 प्रतिशत तक भू-राजस्व वसूला जाता था। इसके अलावा किसान से जाबिताना (जमीन मापने का व्यय), जरीबाना (2% %) एवं महासिलाना (5 %) वसूला जाता था।

मुगलकालीन राजस्व के अन्य स्रोत:

जजिया- गैर मुसलमानों से वसूला जाने वाला कर। यह आय के आधार पर वसूला जाता था।
जकात- मुसलमानों से उनकी सम्पत्ति की राज्य द्वारा सुरक्षा करने । के एवज में सम्पत्ति का 40वाँ भाग वसूला जाता था।
खुम्स- युद्ध में लूट के माल का भाग होता था।        

मुगलकालीन जागीरों के प्रकार


 वतन जागीर- यह मनसबदारों या अधीनस्थ राजाओं को उनके ही शासन क्षेत्र में दी गई जागीर होती थी जो अहस्तान्तरित होती थी।

अलमतगा जागीर- विशेष कृपा प्राप्त धार्मिक व्यक्ति को वंशानुगत रूप से दी जाती थी। इसे जहाँगीर द्वारा प्रारंभ किया गया था।

खालसा- केन्द्रीय सरकार के अधीन भूमि जिसका प्रबंध व आय केन्द्र सरकार करती थी।

मुगलकालीन कृषक वर्ग- मुगलकालीन कृषकों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है। 

खुदकाश्त- वे किसान जो स्वयं की भूमि पर स्थायी व वंशानुगत कृषि करते थे।

पाहीकाश्त - वे किसान जो दूसरे गाँव में जाकर अस्थायी रूप से बँटाईदार के रूप में कार्य करते थे । 
मुजारियान - वे किसान जो खुदकाश्त किसान की जमीन को किराये पर लेकर उस पर खेती करते थे।

नहर सिंचाई:


मुगलकाल में नहर प्रणाली का विकास हुआ। शाहजहाँ ने दो नहरें बनवाई।

1. नहर फैज- यमुना नदी पर 150 मील लंबा। 
2.शाही नहर- रावीं नदी पर लाहौर में।

फिरोजशाह तुगलक की यमुना नहर का फिरोजशाह तुगलक काल में मरम्मत की गई। शाहजहाँ ने इस नहर का विस्तार किया तथा 72 मील बढ़ाकर दिल्ली से जोड़ दिया।

वाणिज्य और व्यापारः 

मुगलकाल में वाणिज्य तथा व्यापार का विकास हुआ। इसकी वजह थी कि काबुल एवं कंधार कुषाण काल के पश्चात पहली बार भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत आए। काबुल, कंधार व मुल्तान पश्चिम एशिया एवं मध्य एशिया के महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों पर होने के कारण व्यापारिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र थे। लाहौर तथा बुरहानपुर भी महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र थे। लाहौर एक तरफ काबुल तथा कंधार से जुड़ा था तो दूसरी ओर दिल्ली तथा आगरा से भी जुड़ा था। 

वस्त्र उद्योग - 

उप-हिमालय को छोड़कर लगभग पूरे भारत में सूती कपड़ा बनाया जाता था। सूती वस्त्र के प्रमुख केन्द्रों में गुजरात- अहमदाबाद, भड़ौंच, बड़ौदा, कैम्बे, सूरत, पाटन
राजस्थान- अजमेर, सिंरोज।
उत्तरप्रदेश- लखनऊ, बनारस, आगरा, इलाहाबाद, जौनपुर, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, सोनारगाँव, ढाका, राजमहल, कासिम बाजार, बालासोर, पटना। 
दक्कन- बुरहानपुर, औरंगाबाद।

बंगाल में ढाका का मलमल विश्व प्रसिद्ध था। खासा उत्तम कोटिल के मलमल का ही एक प्रकार था 

भारत रेशम उत्पादन के प्रमुख केन्द्र था। यहाँ पर कश्मीर में बड़ी मात्रा में रेशम के कपड़े बनाये जाते थे। पटना, अहमदाबाद, बनारस तथा बंगाल में भी रेशम उत्पादन होता था।
अकबर के समय गलीचा तथा शॉल बनाने की कला विकसित हुई। आगरा तथा लाहौर गलीचा बनाने के केन्द्र थे जबकि शॉल बनाने का केन्द्र आगरा तथा कश्मीर था।

महत्वपूर्ण बंदरगाह-

गुजरात - पाटन, खंभात, भड़ौंच 
बंगाल - सतगाँव, सोनार गाँव, 
मालाबार- कोचीन, कालीकट
सिंध -लाहौर बंदरगाह,
महाराष्ट्र - रत्नगिरी, दाभोल, भतकल

निर्यात की प्रमुख मदें- कपड़ा, शोरा, नील, चीनी, अफीम, मसाले, मलमल। बंगाल से चीनी, चावल

व्यापार के प्रमुख साधन

सभी व्यापार स्थल तथा जल मार्ग से होता था जिसमें बैलगाडी तथा नाव शामिल थे। पटेला एक प्रकार की नाव होती थी जो पटना तथा हुगली के मध्य चलती थी। इसी प्रकार अनाज ढ़ोने वाले जानवर को रंडा कहा जाता था।

इस काल में हुंडी मुद्रा विनिमय का प्रमुख साधन थी। यहाँ कुलीन भी व्यक्तिगत मुद्रा स्थानांतरण के लिये हुंडी का सहारा लेते थे। धन को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने हेतु हण्डियों का प्रयोग किया जाता था।

मुगलों की धार्मिक नीतिः

1582 ई. में अकबर ने दीन-ए-इलाही नामक नया धर्म चलाया। प्रारंभ में इसे तौहीद-ए-ईलाही कहा जाता था। बदायुनी तथा अबुल फजल ने दीन-ए-इलाही को तौहीद-ए-ईलाही ही कहा है।

आइन-ए-अकबरी के अनुसार इस नये धर्म के 12 सिद्धान्त थे। इसके कुल अनुयाइयों की संख्या 22 थी जिनमें एकमात्र हिंदू बीरबल था।

तौहीद-ए-इलाही में दीक्षित होने का एक संस्कार प्रचलित किया गया। इस संस्कार का विवरण अबुल फजल ने दिया है।

अप्रैल 1679 ई. में हिन्दुओं पर पुनः जजिया लगा दिया गया। यह कर इनायत खां दीवाने खालसा के कहने पर लगाया गया था। यद्यपि दक्कन से उसे इस कर को 1704 ई. में उठा लेना पड़ा।

मुगल राजपूत संबंध

बाबर द्वारा पानीपत युद्ध (1526) के पश्चात भारत के सबसे शक्तिशाली राज्य चित्तौड़ से युद्ध अनिवार्य हो गया। राजस्थान के राजपूत सल्तनत काल से ही मुस्लिम सुल्तानों से संघर्ष करते रहे थे। बाबर व हुमायूँ आमेर व मेवाड़ के राजाओं के सम्पर्क में आये, किन्तु वे इन्हें अपनी अधीनता में पूर्णतः नहीं ला सके। 
वे राजपूतों की संधि व मित्रता का लाभ न उठा सके। सर्वप्रथम अकबर ने राजपूत नीति में परिवर्तन किया व उसने राजपूतों को मुगल साम्राज्य का आधार स्तम्भ बनाया जो लगभग 350 सालों तक चलता रहा। 

बाबर की राजपूत नीति

पानीपत युद्ध (1526) के पश्चात् मुगल वंश के संस्थापक बाबर के लिए यह आवश्यक था कि वह राजपूतों की शक्ति का दमन करे। बाबर राणा साँगा को परास्त करके ही मुगल साम्राज्य का वास्तविक शासक बन सकता था। बयाना के युद्ध में चित्तौड़ के महाराणा सांगा ने बाबर की सेनाओं को पराजित कर दिया था। परंतु उसके 1 माह बाद ही खानवा के युद्ध में राणा सांगा बाबर से पराजित हो गये

खानवा का युद्ध 

17 मार्च, 1527 को खानवा के मैदान में दोनों सेनाओं के मध्य भीषण युद्ध हुआ। खानवा का मैदान आधुनिक भरतपुर जिले की रूपवास तहसील में है। इस युद्ध में महाराणा साँगा के झंडे के नीचे प्रायः सारे राजपूताने के राजा थे।
इस युद्ध में राणा साँगा व राजस्थान के अन्य राजपूत राजा पराजित हुये व बाबर विजयी हुआ। इसके बाद बाबर ने प्रसिद्ध राजपूत सरदार मेदिनीराय को 1528 में हराकर चंदेरी पर भी अधिकार किया। 

खानवा युद्ध के निम्न परिणाम रहे 

  • भारतवर्ष में मुगलों का राज्य स्थायी हो गया तथा बाबर स्थिर रूप से भारतवर्ष का बादशाह बना।
  • इससे राजसत्ता राजपूतों के हाथ से निकलकर मुगलों के हाथ में आ गयी जो लगभग 200 वर्ष से अधिक समय तक उनके पास बनी रही।

हुमायूँ व राजपूत नीति: 

हुमायूँ बाबर के समान न तो योग्य सेनापति था न ही उसमें राजनीतिक दूरदर्शिता थी। वह राजपूतों के महत्त्व को न समझ सका व जब मेवाड़ की महारानी कर्मवती ने गुजरात के शासक बहादुरशाह के चित्तौड़ आक्रमण के समय सहायता पाने के उद्देश्य से हुमायूँ को राखी भेजी लेकिन हुमायूँ ने रानी कर्मवती की सहायता नहीं की। इसके पश्चात् शेरशाह द्वारा मुगल सत्ता हथियाने के समय हुमायूँ राजपूतों के सहयोग से वंचित रहा व उसे भारत से पलायन करना पड़ा। 
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अकबर की राजपूत नीतिः 

अकबर भारत में मुगल सामान्य को स्थायित्व प्रदान करना चाहता था। उस समय मुगल अमीरों और संगठन के सदस्यों के बीच परस्पर विरोध की स्थिति बनी रहती थी। राजपूतों के शौर्य, वीरता व  बलिदान की     भावना से अकबर प्रभावित था। राजपूतों को अपने अधीन लाने के लिए उसने स्नेह व दंड की नीति अपनायी अर्थात् उसके एक हाथ में पुल और दूसरे हाथ में तलवार होती थी। 

जहाँ तक संभव हो सका, वहाँ उसने राजपूतों से सामरिक गतिविधियों में सहायता लेना शुरू किया। उसने उदारवादी दृष्टिकोण अपनाकर उनका हृदय जीत लिया तथा साम्राज्य के लिए उनकी अमुल्य सेवाएँ प्राप्त की। वैमनस्य के माहौल को समाप्त किया जिससे सद्भाव का एक नया वातावरण बना, जिसमें कठोर जातीय अभिमान तथा कट्टर धार्मिक उन्माद का कोई स्थान नहीं था।

अकबर ने महसूस किया कि राजपूतों के सहयोग के बिना एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना नहीं हो सकती है। सामाजिक-राजनैतिक स्थिरता के लिए भी उनका सहयोग अपेक्षित था। उसने साम्राज्य के सैन्य क्षेत्र में एक मिश्रित परंपरा को अपनाया, जिससे साम्राज्य का अभूतपूर्व विकास हुआ। उसने राजपूतों के सहयोग एवं सम्मानपूर्ण संबंधों पर ध्यान दिया।

इस विषय में चित्तौड़ की विजय से ही उसकी राजपूत-नीति तथा उदारवादी दृष्टिकोण का पता लग जाता है, जिसमें उन्हें साम्राज्य के प्रति राजभक्त मात्र बने रहना था। उसने राजपूतों के अहं का सदा सम्मान किया उसने मुसलमानों के समकक्ष राजपूतों को रखा जिससे कि राजपूतों ने साम्राज्य की रक्षा तथा विस्तार के लिए अपना खून बहाया । अकबर ने राजपूत राजकुमारियों से विवाह भी किया। उसने राजपूतों को मरुस्थलीय पर्वतीय क्षेत्रों से निकाल कर साम्राज्य का भार दिया तथा उसकी गरिमा में हिस्सेदार बनाया। उसने अनेक राजपूतों को राज्य में प्रतिष्ठित पद दिये। टोडरमल ने अकबर की राजस्व नीति की रूपरेखा बनायी तथा मानसिंह सेनापति बना। यह मित्रता वैवाहिक संबंधों द्वारा और भी मजबूत बनायी गयी। साम्राज्य की अनेक जिम्मेदारियों को उन्हें सौंपा गया तथा उन्हें उसकी बढ़ती गरिमा में भी साझीदार बनाया गया। इन राजपूत अधिकारियों के दरबार में रहने से राज्य की कलात्मक प्रगति और भी अधिक बहुमुखी होती गयी।

सन् 1562 ई. में उसने आमेर के राजा भारमल की पुत्री के साथ विवाह किया। राजा भारमल तथा उसका बेटा भगवानदास उच्च सैनिक पदों पर नियुक्त किए गए। कुछ समय बाद राजपूत राजकुमारी से सलीम का विवाह हुआ। हालाकि तब तक उनका राजनैतिक रूप से साम्राज्यीकरण नहीं हो पाया था।

मेड़ता विजय - 1562 ई. में मेड़ता विजय की व जयमल राठौड़ को हराया।
 मालवा विजय के बाद अकबर ने गोंडवाना जीता, जिस पर रानी दुर्गावती का शासन था।

• 1567 में अकबर ने मेवाड़ पर ध्यान दिया, जिसने मुगलों के साथ सभी वैवाहिक संबंधों को को अस्वीकार कर दिया था मुगल बादशाह अकबर ने 23 अक्टूबर, 1567 को चित्तौड़ किले पर आक्रमण किया। महाराणा उदयसिंह ने मालवा के पदच्युत शासक राजबहादुर को अपने यहाँ शरण देकर अकबर के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण करने का अवसर उपस्थित कर दिया था। 
महाराणा उदयसिंह राठौड़ जयमल और रावत पत्ता को सेनाध्यक्ष नियुक्त कर किले की सुरक्षा का भार उन्हें सौंपकर कुछ सरदारों सहित मेवाड़ के पहाड़ों में चले गए 25 फरवरी, 1568 को अकबर ने किले पर अधिकार किया। राजपूत स्त्रियों ने जौहर किया। यह चित्तौड़ दुर्ग का तृतीय शाका था। 
जयमल और पत्ता की वीरता पर मुग्ध होकर अकबर ने आगरा जाने पर हाथियों पर चढ़ी हुई उनकी पाषाण की मूर्तियाँ बनवा कर किले के द्वार पर खड़ी करवाई। महाराणा उदयसिंह का 28 फरवरी, 1572 ई. का गोगुन्दा में देहान्त हो गया, जहाँ उनकी छतरी बनी हुई है।

रणथम्भौर विजय - 1568 में अकबर ने रणथम्भौर के शासक सुर्जन हाडा पर आक्रमण किया व संधि हो गई। वह शाही सेवा का सदस्य बन गया। उसके बाद शाही सेना द्वारा कालिंजर को जीता गया।

मारवाड़ (जोधपुर) से संबंधः 

राव चन्द्रसेन मारवाड़ नरेश राव मालदेव के छठे पुत्र थे । राव मालदेव के देहान्त के बाद उन्हीं की इच्छानुसार उनका कनिष्ठ पुत्र राव चन्द्रसेन 1562 में जोधपुर की गद्दी पर बैठा। इस राज्यारोहण से असंतुष्ट सामंतों ने राव चंद्रसेन के भाइयों में कलह उत्पन्न कर दी।

राव चंद्रसेन व उनके भाइयों की कलह का लाभ मुगल बादशाह अकबर ने उठाया। अकबर ने नागौर में अपने हाकिम हुसैनकुली बेग को राव चंद्रसेन पर चढ़ाई कर जोधपुर का किला छीनने का आदेश दिया। युद्ध के दौरान राव चन्द्रसेन परिवार सहित भाद्राजण की तरफ चले गए। 1564 ई. में जोधपुर किले पर मुगल सेना का अधिकार हो गया।

नागौर दरबार - 

नवम्बर, 1570 ई. में अकबर अजमेर से नागौर पहुँचा और वहाँ कुछ समय तक अपना दरबार लगाया। राजस्थान के कई राजपूत राजा उसकी सेवा में वहाँ उपस्थित हुए और अकबर की अधीनता स्वीकार की जिनमें जैसलमेर नरेश रावल हरराय जी, बीकानेर नरेश राव कल्याण मल जी व उनके पुत्र रायसिंह जी तथा राव चन्द्रसेन के बड़े भाई उदयसिंह जी प्रमुख थे। राव चन्द्रसेन जी भी भाद्राजूण से नागौर दरबार में आये थे परंतु अन्य राजाओं की तरह उन्होंने अकबर की गुलामी स्वीकार नहीं की एवं चुपचाप वहाँ से भाद्राजण चले गये। इस पर अकबर उनसे नाराज हो गया और उन्हें अपने अधीन करने के लिए सन् 1574 ई.में अपनी सेनाएँ भाद्राजूण भेजी। भाद्राजूण पर अकबर की सेना का अधिकार हो गया और राव चन्द्रसेन वहाँ से सिवाणा की तरफ निकल गये। इस प्रकार 'नागौर दरबार' मारवाड़ की परतंत्रता की कड़ी में महत्त्वपूर्ण कड़ी साबित हुआ। अकबर ने इस दरबार के बाद जोधपुर का शासन 30 अक्टूबर, 1572 को बीकानेर के राजकुमार रायसिंह को संभला दिया।

राव चन्द्रसेनजी ही अकबरकालीन राजस्थान के प्रथम मनस्वी वीर और स्वतंत्र प्रकृति के नरेश थे और महाराणा प्रताप ने इन्हीं के दिखलाए मार्ग का अनुसरण किया था। वास्तव में उस समय राजपूताने में महाराणा प्रताप और राव चन्द्रसेन यही दो स्वाभिमानी वीर अकबर की आंखों के कांटे बने थे।

राव चंद्रसेन ने सिवाना की पहाड़ियों का आश्रय लेकर मुगल सेना से टक्कर ली। चन्द्रसेन अंतिम राठौड़ शासक था जिसने अकबर की अधीनता को नकारते हुए कष्टों के मार्ग को अपनाया था । इसकी मृत्यु के साथ ही राठौड़ों की स्वाधीनता का स्वप्न भी समाप्त हो गया।

मोटाराजा राव उदयसिंह (1583-1595): 

राव चन्द्रसेन के बड़े भ्राता उदयसिंह नागौर दरबार में अकबर की सेवा में आ चुके थे, अतः इनका वीरता व सेवा से प्रसन्न हो अकबर ने उन्हें 4 अगस्त, 1583 को जोधपुर का शासक बना दिया। राव उदयसिंह जोधपुर के प्रथम शासक थे 

जिन्होंने मुगल अधीनता स्वीकारकर अपनी पुत्री का विवाह शाहजादा सलीम से कर मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित किये। राव उदयसिंह ने अकबर को अनेक युद्धों में विजय दिलवाई और अन्तत: 1595 लाहौर में इनका स्वर्गवास हुआ। 

बीकानेर से संबंध: 

1570 ई. में सम्राट अकबर के नागौर दरबार में राव कल्याणमल अपने पुत्र पृथ्वीराज एवं रायसिंह सहित बादशाह की सेवा में उपस्थित हुए तथा अकबर की अधीनता स्वीकार की। अकबर की अधीनता स्वीकार करने वाले वे बीकानेर रियासत के प्रथम नरेश थे। उन्होंने अपने पुत्र रायसिंह व पृथ्वीराज को अकबर की सेवा में भेज दिया।

महाराजा रायसिंह का जन्म 20 जुलाई, 1541 को हुआ था। पिता कल्याणमल के देहावसान के बाद सन् 1574 में वे बीकानेर के शासक बने। महाराजा रायसिंह के शासनकाल में बीकानेर रियासत के मुगलों से घनिष्ठ संबंध कायम हुए। जिस संबंध का सूत्रपात इनके पिता राव कल्याणमल ने अकबर के शासन के 15वें वर्ष (1570 ई.) में उनकी सेवा में उपस्थित होकर किया, उसको महाराजा रायसिंह ने उत्तरोत्तर बढ़ाया। रायसिंह अकबर के वीर, कार्यकुशल एवं राजनीति निपुण योद्धाओं में से एक थे। बहुत थोड़े समय में ही वे अकबर के अत्यधिक विश्वासपात्र बन गए थे। हम उन्हें अकबर के साम्राज्य का एक सुदृढ़ स्तम्भ कह सकते हैं । हिन्दू नरेशों में जयपुर के बाद बीकानेर से ही अकबर के अच्छे संबंध कायम हो सके।

कुछ ही दिनों में वे अकबर के चारहजारी मनसबदार बन गए। फिर जहाँगीर के शासन में रायसिंह का मनसब 5 हजारी हो गया। अकबर और जहाँगीर का विश्वासपात्र होने के कारण विशेष अवसरों पर रायसिंह की नियुक्ति की जाती थी।

शहजादा सलीम (जहाँगीर ) का रायसिंह के प्रति अधिक विश्वास था। यही कारण था कि बादशाह अकबर के बीमार पड़ने पर शहजादा सलीम ने रायसिंह को ही शीघ्रातिशीघ्र दरबार में आने के लिए लिखा था।

मेवाड़ का प्रतिरोध (1572-97 )- इस काल में मेवाड़ एकमात्र राज्य था जिसने अकबर का प्रतिरोध किया व इस समय मेवाड़ के नायक महाराणा प्रताप थे। महाराणा प्रताप 1572 में उदयसिंह की मृत्यु पश्चात् शासक बने।

अकबर द्वारा प्रताप से समझौते के प्रयत्न

सम्राट अकबर की पहल पर 1572-1573 में महाराणा प्रताप से समझौते के चार प्रयत्न हुए। सम्राट का पहला प्रतिनिधि ' वाक् चतुर और तुरन्तबुद्धि दरबारी' जलालखान कोरची था जिसे नवम्बर, 1572 में महाराणा प्रताप के पास भेजा गया। इसके बाद जून, 1573 में 'उच्चपदीय और प्रभावशाली राजपूत' आमेर के कुँवर मानसिंह को भेजा गया। उसके असफल होने पर सितम्बर, 1573 में मानसिंह के पिता आमेर के राजा भगवन्तदास को भेजा गया। इसके बाद अंतिम प्रयत्न के रूप में सैन्य संचालन एवं प्रशासन व्यवस्था दोनों में ही दक्ष तथा अपने निजी जीवन में श्रेष्ठ राजा टोडरमल' को दिसम्बर 1573 में प्रताप से संधि हेतु भेजा गया। लेकिन सभी दूत महाराणा प्रताप को राजी करने में असफल रहे एवं वे महाराणा प्रताप को अकबर की अधीनता स्वीकार करने हेतु न मना सके। 

हल्दी घाटी का युद्ध : 

संधि के सभी प्रयास विफल हो जाने पर अन्तत: सम्राट अकबर ने कुँवर मानसिंह के नेतृत्व में शाही सेना को महाराणा प्रताप पर आक्रमण करने हेतु 3 अप्रैल, 1576 को अजमेर से रवाना किया। 21 जून, 1576 को 'हल्दीघाटी का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। प्रताप की सेना के सबसे आगे के भाग का नेतृत्व हकीम खान सूर पठान के हाथ में था। इस युद्ध में शाही सेना के साथ प्रमुख इतिहासकार अलबदायूँनी भी उपस्थित था। इस युद्ध में अकबर विजयी हुए। जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी को मेवाड़ की थर्मोपोली' और दिवेर के मैदान को 'मेवाड़ का मैराथन' कहा था।

अकबर की मित्रता तथा समझौते की नीतियों ने अधिकांश राजपूतों को उसका मित्र बना दिया। वे मुगल राज्य के समर्थक बन गए, इसके कारण अत्यल्प समय में ही पूरा राजपूताना मुगल प्रभाव के अंतर्गत आ गया।
   

जहाँगीर की राजपूत नीतिः  

जहाँगीर ने राजपूतों के प्रति वहीं नीति अपनायी जो उसके पिता अकबर की थी।
जहाँगीर भी जो अकबर के बाद शासक बना, राजपूतों के प्रति मैत्री-भाव रखता था। उसके समय में राजपूतों के साथ सम्बन्धों में और भी मजबूती आयी। उसके समय में भी महाराणा प्रताप के पुत्र व उत्तराधिकारी अमर सिंह ने प्रतिरोध जारी रखा। विभिन्न अभियानों के उपरांत सन् 1614 ई. में शाहजादा खुर्रम को मेवाड़ भेजा गया। अंतत: 1615 ई. में महाराणा अमरसिंह के साथ संधि की गई।

1615 की मेवाड़-मुगल संधि


  • राजा ने मुगल-आधिपत्य को स्वीकार कर लिया। उसने अपने स्थान पर अपने पुत्र करणसिंह को मुगल दरवार में भेजना स्वीकार कर लिया।
  • राणा को मुगल-वंश से विवाह-सम्बन्धों हेतु बाध्य नहीं किया जायेगा। 
  • जहाँगीर से सम्पूर्ण मेवाड़ प्रदेश अमरसिंह को सौंप दिया व सिर्फ यह शर्त रखी कि राणा चित्तौड़ के किले की मरम्मत नहीं करायेगा । 

शाहजहाँ व राजपूत नीति 

शाहजहाँ ने भी अकबर व जहाँगीर की नीति का अनुसरण किया। इस समय मारवाड़ के राजा जसवंत सिंह और आमेर के राजा जयसिंह ने मुगल साम्राज्य की पूर्ण निष्ठा और योग्यता से सेवा की। राजा जसवंत सिंह व राजा जयसिंह ने शाहजहाँ के समय उत्तराधिकार युद्ध में सामूगढ़ व घरमत के युद्ध में शाहजहाँ का साथ दिया था शाहजहाँ के मेवाड़ के राणा जगतसिंह व राणा राजसिंह से भी संबंध ठीक रहे थे।

औरंगजेब व राजपूत नीति

अनुदारवादी रवैये में महत्वपूर्ण बदलाव औरंगजेब के समय आया। धार्मिक कारणों से उसने राजपूतों के प्रति अपनायी जा रही अकबर की मैत्री तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति को बदल दिया। उसने अनेक हिन्दू मंदिरों का विध्वंस किया तथा जजिया को पुनः लगाया। उसके समय के महत्वपूर्ण राजपूत सेनापतियों में जयसिंह प्रथम तथा जसवंतसिंह थे। शासन के प्रारंभिक दिनों में इनकी राजनैतिक तथा सैन्य प्रतिभा का परिचय मिला। शिवाजी के उदय ने साम्राज्य के समक्ष संकटपूर्ण स्थिति उत्पन्न कर दी।

शिवाजी के प्रति जयसिंह प्रथम की सफलताओं ने यह निश्चित किया कि साम्राज्य के लिए राजपूतों की सैन्य सेवाएँ अपेक्षित हैं जब सम्राट दक्षिण के युद्धों में व्यस्त था, तब राजपूतों की सैन्य सेवाएं उत्तर- पश्चिमी क्षेत्रों में अत्यंत उपयोगी प्रमाणित हुई। परन्तु औरंगजेब की उत्पीड़न की नीतियों के कारण राजपूत मुगल साम्राज्य के लिए खतरा भी बन चुके थे।

औरंगजेब ने अकबर द्वारा प्रारंभ राजपूति नीति में परिवर्तन किया। उत्तराधिकार युद्ध में जोधपुर महाराजा जसवंत सिंह व जयपुर राजा जयसिंह शाहजहाँ की तरफ से लड़े थे लेकिन युद्ध पश्चात् औरंगजेब ने इन दोनों को अपनी ओर मिला लिया। दोनों ने 1678 ई. तक मुगल साम्राज्य का साथ दिया लेकिन 1678 ई. में जोधपुर राजा जसवंत सिंह की जमरुद (अफगानिस्तान) में मृत्यु हो गयी। औरंगजेब ने उसकी मृत्यु का लाभ  उठाकर जोधपुर की गद्दी पर अपने समर्थक को बैठाया। इसके बाद उसने जोधपुर पर अधिकार कर लिया। इसका मारवाड़ के राजपूत सरदारों ने विरोध किया जिनका नेता दुर्गादास राठौड़ था। दुर्गादास राठौड़ ने महाराजा जसवंत सिंह के एकमात्र जीवित पुत्र अजीतसिंह जो कि उनकी मृत्यु पश्चात् पैदा हुआ था, को दिल्ली ले जाकर औरंगजेब से अजीतसिंह को शासक स्वीकार करने की माँग की लेकिन औरंगजेब ने अजीतसिंह को इस्लाम धर्म में परिवर्तित करने की इच्छा प्रकट की। यहीं से राजपूतों और औरंगजेब का संघर्ष आरम्भ हुआ जो औरंगजेब की मृत्युपर्यंत चलता रहा।

जब सन् 1679 ई.में औरंगजेब द्वारा पुनः जजिया कर लगाया गया, तब मेवाड़ ने भी मारवाड़ को समर्थन दिया। मुगल सेना को अत्यंत हानि उठानी पड़ी। मारवाड़ के साथ मुगलों का युद्ध चलता रहा। दुर्गादास ने उनका नेतृत्व किया। अंततः 1709 ई. में बहादुरशाह प्रथम ने अजीत सिंह को मारवाड़ का आधिकारिक तौर पर शासक मान लिया।

इस प्रकार औरंगजेब न तो मेवाड़ जीत सका और न ही मारवाड़ पर अपनी सत्ता को स्थापित कर सका। औरंगजेब नीति ने राजपूतों को अपना शत्रु बनाकर उसका विश्वास खोकर मुगल-साम्राज्य की सुरक्षा के एक प्रमुख स्तम्भ को उखाड़ दिया। उसने अकबर की नीति को पलट कर मित्रों को भी शत्रु बना दिया। जहाँ एक ओर इन मैत्रीपूर्ण संबंधों ने साम्राज्य को गरिमा प्रदान की, वहीं दूसरी ओर नीति बदलने से सारा साम्राज्य अस्त-व्यस्त हो गया। यदि अकबर द्वारा शुरू की गई राजपूत नीति आगे भी जारी रहती तो यह औरंगजेब तथा राज्य के हित में ही रहती। उत्तरकालीन मुगल बादशाह राजपूतों की वफादारी प्राप्त करने में असफल रहे और राजस्थान में शीघ्र स्वतंत्र राजपूत राज्यों का निर्माण हो गया।

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