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Pallav Vansh ka Itihas in Hindi  पल्लव वंश के शासक

Pallav Vansh ka Itihas in Hindi पल्लव वंश के शासक

 Pallav Vansh ka Itihas in Hindi - आप इस पोस्ट में Pallav Vansh के महत्वपूर्ण राजाओ की जानकारी हिंदी में प्राप्त करेंगे

Pallav Vansh ka Itihas in Hindi

Pallav Vansh ka Itihas in Hindi  पल्लव वंश के शासक
Pallav Vansh ka Itihas in Hindi  पल्लव वंश के शासक

पल्लव वंश का इतिहास पल्लव राजवंश प्राचीन दक्षिण भारत के राजवंशों में से एक था । पल्लवों ने चौथी शताब्दी में कांची में अपने राज्य की स्थापना की ओर लगभग 600 वर्षों तक तमिल तथा तेलगु क्षेत्र पर शासन किया । पल्लव प्राचीन दक्षिण भारत की एक प्रमुख शक्ति थी ।

शिवकंद वर्मन 


शिवकंद वर्मन ने कांची को अपनी राजधानी बनाया।
प्राकृत भाषा के ग्रंथों से पता चलता है कि पहला पल्लव शासक सिंह वर्मा था।
प्रारंभिक Pallav Vansh के शासक शिवस्कंद वर्मन के बारे में, हमें माईडवोलू और हरि हेडागली के अनुदान पत्रों से जानकारी मिलती है।
उन्हें अग्निष्टोम, वाजपेयी और अश्वमेध जैसे यज्ञों का यज्ञ माना जाता है।

विष्णुगोप 

➽विष्णुगोप (चौथा शती ई. के मध्य काल) से लेकर सिंह वर्मा (लगभग छठी शती ई. का उत्तरार्ध) के बीच लगभग आठ शासकों ने शासन किया।
➽प्रयाग प्रशस्ति के विवरण से स्पष्ट होता है कि, जिस समय समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ को जीता, उस समय कांची पर विष्णुगोप शासन कर रहा था।
➽विष्णुगोप के बाद ईसा की पांचवीं एवं छठीं शताब्दी में Pallav Vansh का इतिहास अंधेरे में था।
➽समुद्रगुप्त द्वारा विष्णुगुप्त के पराजित होने के बाद पल्लव राज्य विघटन के कागार पर पहुँच गया था।
➽विभिन्न शासको ने भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर स्वतंत्र शाखाओं की स्थापना कर ली थी।
➽इन शासकों में-कुमार विष्णु प्रथम, बुद्ध वर्मा, कुमार विष्णु द्वितीय, स्कन्द वर्मा द्वितीय, सिंह वर्मा, स्कंद वर्मा तृतीय, नन्दिवर्मा प्रथम तथा शान्तिवर्मा चण्डदण्ड आदि प्रमुख थे सिंह वर्मा प्रथम के काल में प्रसिद्ध जैन ग्रंथ लोक विभाग की रचना की गईं।

➽सिंह विष्णु (575-600 ई.)

➽सिंह विष्णु (575-600 ई.) के समय में पल्लव इतिहास का नया अध्याय आरम्भ हुआ। 
➽विष्णु के दरबार में संस्कृत का महान् कवि भारवि रहता था।
➽सिंह विष्णु को सिंह विष्णुयोत्तर युग एवं अवनिसिंह भी कहा जाता था।
➽कशाक्कुडि लेख के अनुसार इसने कलभों, मालवों, चोलो, पाण्ड्यों, केरलों तथा सिंहल के शासकों के साथ युद्ध किया।
➽उसने चोलों को परास्त कर कावेरी नदी के मुहाने तक अपने राज्य को विस्तृत कर लिया और चोलमण्डल की विजय के बाद ही उसने अवनि सिंह तथा शिंगविष्णु पेरुमार की उपाधि धारण की।
➽भारवि वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसके समय में ही मामल्लपुरम के आदिवराह गुहा मंदिर का निर्माण किया गया।
➽इस मंदिर में सिंह विष्णु एवं उसकी दो रानियों की प्रतिमा भी स्थापित की गई है।

➽महेन्द्र वर्मन प्रथम (600-30ई.)

➽महेन्द्र वर्मन प्रथम (600-30ई.) सिंह विष्णु का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। 
➽छठी सदी से पल्लवों का इतिहास अधिक स्पष्ट हो जाता है।
➽इस सदी के अन्तिम भाग में सिंह विष्णु नाम के राजा ने दूर-दूर तक विजय यात्राएँ कर अपनी शक्ति का उत्कर्ष किया और दक्षिण दिशा में आक्रमण कर उसने चोल और पांड्य राज्यों को जीत लिया।
➽प्रसिद्ध चालुक्य सम्राट पुलकेशी द्वितीय के समय में पल्लव वंश का राजा महेन्द्र वर्मन प्रथम था, जो सातवीं सदी के शुरू में हुआ था।
➽पल्लवराज महेन्द्र वर्मन प्रथम के साथ पुलकेशी द्वितीय के अनेक युद्ध हुए, जिनमें पुलकेशी द्वितीय विजयी हुआ।
➽पुलकेशी द्वितीय से परास्त हो जाने पर भी महेन्द्र वर्मन प्रथम कांची में अपनी स्वतंत्र सत्ता क़ायम रखने में सफल रहा।
➽कसक्कुडी ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि, किसी युद्ध में महेन्द्र वर्मन प्रथम ने भी पुलकेशी को परास्त किया था।

सांस्कृतिक, साहित्यिक


➽उसके समय में पल्लव साम्राज्य न केवल राजनीतिक दृष्टि से, बल्कि सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं कलात्मक दृष्टि से भी अपने चरमोत्कर्ष पर था।

➽उसने 'मत्तविलास' 'विचित्र चित्त' एवं 'गुणभर शत्रुमल्ल, ललिताकुर, अवनिविभाजन, संर्कीणजाति, महेन्द्र विक्रम, अलुप्तकाम कलहप्रीथ आदि प्रशंसासूचक पदवी धारण की थी।
➽उसकी उपाधियां 'चेत्थकारी' और 'चित्रकारपुल्ली' भी थीं।
➽उसके समय में ही दक्षिण भारत में प्रभुसत्ता की स्थापना के लिए पल्लव-चालुक्य एवं पल्लव-पाण्ड्य संघर्ष शुरू हो गया था।
➽पल्लव वंश के इतिहास में इस राजा का बहुत अधिक महत्त्व है। उसने ब्रह्मा, विष्णु और शिव के बहुत से मन्दिर अपने राज्य में बनवाये, और 'चैत्यकारी' का विरुद धारण किया।
➽एहोल अभिलेख के उल्लेख के आधार पर कहा जाता है कि, पुलकेशी द्वितीय ने पल्लवों से वेंगी को छीन लिया था।
➽नंदि वर्मन द्वितीय के कशाक्कुडि अभिलेख से ज्ञात होता है कि, महेन्द्र वर्मन प्रथम ने पुल्ललूर में अपने प्रमुख शत्रु को पराजित किया था।
➽उसने 'मत्तविलास प्रहसन' तथा 'भगवदज्जुकीयम' जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। 'मत्तविलास प्रहसन' एक हास्य ग्रंथ है।
इसमें कपालियों तथा भिक्षुओं पर व्यंग्य कसा गया है। 
➽उसके संरक्षण में ही संगीतशास्त्र पर आधारित ग्रंथ 'कुडमिमालय' की रचना हुई, जो वीणाशास्त्र पर आधारित है।
➽महेन्द्र वर्मन प्रथम ने सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ रुद्राचार्य के निर्देशन में संगीत का अध्ययन किया था।
➽प्रारम्भ में यह जैन था, किन्तु बाद में अय्यर नामक शैव संत के प्रभाव में आकर शैव धर्म अपना लिया।
➽कहा जाता है कि, इसने पारलिपुरम के जैन मंदिर को तुड़वाकर उनके अवशेषों से तिवाड़ि (दक्षिण अर्काट) में एक जैन मंदिर बनवाया था।
➽महेन्द्र वर्मन प्रथम ने सर्वप्रथम दक्षिण भारत में आडम्बरयुक्त मंदिरों के स्थान पर सीधी-सादी आकर्षक शैल मण्डप वास्तु शैली प्रोत्साहित की।

नरसिंह वर्मन प्रथम (630-668ई.)

➽नरसिंह वर्मन प्रथम (630-668ई.) अपने पिता महेन्द्र वर्मन प्रथम की मुत्यु के बाद गद्दी पर बैठा।
➽वह अपने अभिलेखों में 'वातापीकोड' के रूप में उद्धृत है। 
➽वह पल्लव वंश का सबसे प्रतापी और शक्तिशाली राजा था।
➽असाधारण धैर्य एवं पराक्रम के कारण उसे 'महामल्ल' भी कहा गया है।
➽'कुर्रम दान पत्र' अभिलेख से ज्ञात होता है कि, नरसिंह वर्मन प्रथम ने चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय को परिमल, मणिमंगलाई एवं शूरमार के युद्धों में परास्त किया था।
➽नरसिंह वर्मन प्रथम की सेना के साथ युद्ध करते हुए ही पुलकेशी द्वितीय ने वीरगति प्राप्त की थी।
➽नरसिंह वर्मन ने पुलकेशी द्वितीय की पीठ पर 'विजय' शब्द अंकित करवाया था।
➽इस विजय का उल्लेख बादामी में मल्लिकार्जुन मंदिर के पीछे एक पाषाण पर उत्कीर्ण है, जिसे उसके सेनापति शिरुतोण्ड ने उत्कीर्ण करवाया था।
➽नरसिंह वर्मन प्रथम के काशाक्कुटि ताम्रपत्र अभिलेख एवं महावंश के उल्लेख से उसकी लंका विजय प्रमाणित होती है।
➽राजपद के अन्यतम उम्मीदवार मानवम्म ने नरसिंह वर्मन की शरण ली, और उसकी सहायता के लिए पल्लवराज ने दो बार नौसेना द्वारा लंका पर आक्रमण किया।
➽इसी कारण इस लेख में नरसिंह वर्मा प्रथम की तुलना लंका विजय राम से की गई।
➽महावंश के 47वें अध्याय के अनुसार लंका का राजकुमार मारवर्मन भारतीय राजा नरसिंह वर्मन के दरबार में रहता था।
➽कांची के निकट एक बन्दरगाह वाला नगर महामल्लपुरम (महाबलीपुरम) बसाने का श्रेय भी नरसिंह वर्मन प्रथम को दिया जाता है।
➽उसके शासन काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग कांची गया था।
➽इस प्रसिद्ध चीनी यात्री के अनुसार कांची में 100 संघाराम थे, जिनमें 1000 भिक्षु निवास करते थे।
➽बौद्ध विहारों के अतिरिक्त अन्य धर्मों के भी 80 मन्दिर और बहुत से चैत्य वहाँ पर थे।
➽इसके समय में सिंह शीर्षक स्तम्भ की नई शैली का विकास हुआ, जिसे इसके नाम पर मामल्य शैली का नाम दिया गया।
➽महाबलीपुरम के सप्तरथ इसी के शासनकाल में बनाए गए थे। 
➽इनका नामकरण पाण्डव, द्रौपदी तथा गणेश के नाम पर किया गया था।
➽प्रतापी चालुक्यों को परास्त कर उसकी राजधानी बादामी को जीत लेना, नरसिंह वर्मन प्रथम के जीवन की गौरवमयी घटना है। 
➽इसीलिए उसने 'वातापीकोड' का विरुद भी अपने नाम के साथ जोड़ लिया।
 
 
➽महेन्द्र वर्मन द्वितीय (668-70ई.)
➽महेन्द्र वर्मन द्वितीय (668-70ई.) नरसिंह वर्मन प्रथम का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।
➽उसने बहुत कम समय तक शासन किया था।
➽काशाक्कृदिलेख के वर्णन के आधार पर कहा जाता है कि, उसने घटिका (विद्वान् ब्राह्मणों की संस्था) का विस्तार किया।
➽कुछ लेखों में इसे ‘मध्यम लोकपाल‘ कहा गया है।
 
 
 

➽परमेश्वर वर्मन प्रथम (670-95ई.)

➽परमेश्वर वर्मन प्रथम (670-95ई.) महेन्द्र वर्मन द्वितीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।
➽उसका संघर्ष सबसे पहले चालुक्य नरेश विक्रमादित्य प्रथम से हुआ, जो पुलकेशी द्वितीय के समान ही वीर और विजेता था।
➽इस संघर्ष का परिणाम संदेहास्पद है, क्योंकि चालुक्यों के गदवल अभिलेख में विक्रमादित्य की विजय एवं पल्लवों के कुर्म अभिलेख में परमेश्वर वर्मन प्रथम व ईश्वर पोत की विजय प्रमाणित होती है।
➽शीघ्र ही परमेश्वर वर्मन प्रथम ने अपनी सैन्यशक्ति को पुनः संगठित कर लिया, और पेरुडनंल्लुर के युद्ध में चालुक्यराज विक्रमादित्य से अपनी पहली पराजय का बदला लिया।
➽दोनों ओर के अभिलेखीय साक्ष्यों के अध्ययन के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि, चालुक्य-पल्लव संघर्ष में पहले चालुक्यों की और अन्तिम रूप से पल्लवों की विजय हुई।
➽परमेश्वर वर्मन प्रथम ने विद्याविनीत उग्रदण्ड, लोकादित्य, चित्रमान, गुणाभाजन, श्रीभर एकमल्ल, रणंजय आदि विरुद धारण किए।
➽इसके समय में मामल्लपुर का प्रसिद्ध गणेश मंदिर निर्मित हुआ तथा कूरम के शिव मंदिर का निर्माण हुआ।
यह परम शैव था। 
➽यह बात इसकी परमाहेश्वर की उपाधि से प्रमाणित हो जाती है।
➽कूरम के शिव मंदिर का नामकरण इसी के नाम पर विद्या विनीत पल्लव परमेश्वरगहम किया।
 
 

➽नरसिंह वर्मन द्वितीय (695-720 ई.)

➽नरसिंह वर्मन द्वितीय (695-720 ई.) का समय सांस्कृतिक उपलब्धियों का रहा है। 
➽उसके महत्त्वपूर्ण निर्माण कार्यों में महाबलीपुरम का समुद्रतटीय मंदिर, कांची का कैलाशनाथार मंदिर एवं 'ऐरावतेश्वर मंदिर' की गणना की जाती है।
➽परमेश्वर वर्मन प्रथम के प्रताप और पराक्रम से पल्लवों की शक्ति इतनी बढ़ गई थी, कि जब सातवीं सदी के अन्त में उसकी मृत्यु के बाद नरसिंह वर्मन द्वितीय कांची के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ, तो उसे किसी बड़े युद्ध में जुझने की आवश्यकता नहीं हुई।
➽'राजसिंह', 'आगमप्रिय' एवं 'शंकर भक्त' की सर्वप्रिय उपाधियाँ नरसिंह वर्मन द्वितीय ने धारण की थीं।
➽नरसिंह वर्मन द्वितीय को 'राज सिद्धेश्वर' भी कहा जाता था।
➽इसके अतिरिक्त प्रशस्तियों में इसे अन्यन्तकाम, रणंजय, श्रीभर, उग्रदण्ड, अपराजित, शिवचुड़मणि, यित्रकार्मुक, रणविक्रम, आमित्रमल, आहवकेशरी, परमचक्रमर्दन, पाथविक्रय, समरधनन्जय आदि उपाधियों से भी विभूषित किया गया है।
➽मंदिर निर्माण की शैली में नरसिंह वर्मन द्वितीय ने एक नई शैली 'राज सिंह शैली' का प्रयोग किया था।
➽महाकवि 'दण्डिन' संभवतः उसका समकालीन था। इसकी वाद्यविद्याधर, वीणानारद, अंतोदय-तुम्बुरु उपाधियाँ उसकी संगीत के प्रति रुझान की परिचायक हैं।
➽नरसिंह वर्मन द्वितीय का शासन काल शान्ति और व्यवस्था का काल था, इसीलिए वह अपनी शक्ति को निश्चिन्तता पूर्वक मन्दिरों के निर्माण में लगा सका।
 
 

➽परमेश्वर वर्मन द्वितीय (720-731 ई.)

➽परमेश्वर वर्मन द्वितीय (720-731 ई.) नरसिंह वर्मन द्वितीय का छोटा पुत्र और उसका उत्तराधिकारी था।
➽कशाक्कुडि-अभिलेख में इसे 'बृहस्पति नीति का आदर्श', 'संरक्षक' एवं 'कुशल प्रशासक' कहा गया है।
➽चालुक्यों के उलचल- अभिलेख से ज्ञात होता है कि, चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने गंग शासक दुर्विनीत ऐरयप्प की सहायता से पल्लव नरेश परमेश्वर वर्मन द्वितीय पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया और फिर उसकी हत्या कर दी।

➽नन्दि वर्मन द्वितीय (731-795 ई.)

➽नन्दि वर्मन द्वितीय (731-795 ई.) के शासन काल में पल्लवों का चालुक्यों, पाण्ड्यों तथा राष्ट्रकूटों से संघर्ष हुआ।
➽यद्यपि पूर्वी चालुक्य राज्य पर नन्दि वर्मन द्वितीय ने क़ब्ज़ा कर लिया, किन्तु राष्ट्रकूटों ने कांची को विजित कर लिया।
➽गोविन्द तृतीय के अभिलेख से यह प्रमाणित होता है कि, राष्ट्रकूट नरेश दंतिदुर्ग ने पल्लवों की राजधानी कांची पर विजय प्राप्त कर अपनी पुत्री का विवाह नन्दि वर्मन द्वितीय से कर दिया था।
➽इन दोनों के संयोग से दंति वर्मन नामक पुत्र ने जन्म लिया।
➽उदय चन्द्र नरसिंह वर्मन द्वितीय का योग्य सेनापति था।
➽नन्दि वर्मन द्वितीय वैष्णव धर्म का अनुयायी था।
➽उसके समय में समकालीन वैष्णव सन्त तिरुमंगै अलवार ने वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार किया।
➽नन्दि वर्मन द्वितीय ने बैकुंठ, पेरुमल एवं मुक्तेश्वर मन्दिर का निर्माण करवाया था।
➽कशाक्कुण्डि लेख में इसके लिए पल्लवमल्ल, क्षत्रिय मल्ल, राजाधिराज, परमेश्वर एवं महाराज आदि उपाधियों का प्रयोग किया गया है।
➽इसने पल्लव राजाओं में सबसे अधिक समय (65 वर्ष) तक शासन किया।

➽दंति वर्मन (796-847ई.)

➽दंति वर्मन (796-847ई.) नंदि वर्मन द्वितीय एवं राजमहिषी रेवा का पुत्र था।
➽नंदि वर्मन द्वितीय के बाद दंति वर्मन ही अगला पल्लव राजा था।
➽उसके समय में पल्लव राज्य पर राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय एवं पाण्ड्य शासकों ने आक्रमण किया।
➽दंति वर्मन को अभिलेखों में 'पल्लवकुल भूषण' कहा गया है।
➽उसने मद्रास के निकट बने पार्थसारथी मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था।
➽गोविन्द तृतीय ने मनने अभिलेख में दंति वर्मन को 'समधिगतपंचमहाशब्द' एवं 'महासामन्ताधिपति' की उपाधि दी हैं।

➽नंदि वर्मन तृतीय (847-869 ई.)

➽नंदि वर्मन तृतीय (847-869 ई.), दंति वर्मन का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। उसने अपने बाहुबल एवं पराक्रम से चोलों, पाण्ड्यों एवं चेरों को पराजित कर पुनः एक बार पल्लव साम्राज्य को शक्ति प्रदान की।
➽यह महान् पल्लव शासकों की पंक्ति का अंतिम पराक्रमी शासक था।
➽तमिल साहित्य के महान् कवि 'पोरुन्देवनार' को नंदि वर्मन का राजाश्रय मिला हुआ था।
➽तमिल काव्य 'नन्दिक्कलम्बकम' की रचना से इसके द्वारा विजित युद्धों के बारें में जानकारी मिलती है।
➽इसके समय में मामल्लपुर तथा महाबलीपुरम के नगर अत्यन्त प्रसिद्ध हुए।
➽नंदि वर्मन तृतीय की उपाधि 'अवनिनारायण' थी, 'नंदिप्कलम्बकम्' में इसे "चारों समुद्रों का स्वामी" कहा गया है।
➽इसके संरक्षण में तमिल कवि 'पेरुन्देवनार' ने 'भारत वेणवा' नामक काव्य की रचना की थी।
➽वैलूर पाल्यम् अभिलेख में नंदि वर्मन तृतीय को विष्णु का अवतार कहा गया है।

➽नृपत्तुंग वर्मन (870-879 ई.)

➽नृपत्तुंग वर्मन (870-879 ई.) नन्दि वर्मन तृतीय का पुत्र था। 
➽नन्दि वर्मन तृतीय के बाद नृपत्तुंग वर्मन गद्दी का वास्तविक अधिकारी था।
➽उसका शासन काल शांति का काल था, उसके शासन काल के अंतिम दिनों में सौतेले भाई अपराजित ने विद्रोह कर दिया।
➽विद्रोह में पाण्ड्यों ने नृपत्तुंग का एवं चोलों तथा पश्चिमी गंग ने अपराजित का साथ दिया।
➽दोनों ओर की सेनाओं की बीच श्रीपुरम्बियम के मैदान में घमासान संघर्ष हुआ, इस संघर्ष में नृपतुंग वर्मन पराजित हुआ।

अपराजित (878-897 ई.)

➽अपराजित (878-897 ई.) ने नृपत्तुंग वर्मन को अपदस्थ करके पल्लव वंश का राज्याधिकार प्राप्त किया।
➽उसने पल्लव वंश के अन्तिम शासक के रूप में शासन किया।
➽अपराजित काँची का अन्तिम पल्लव राजा था।
➽उसके समय में चोल शासक आदित्य प्रथम ने 'तोंडमंडलम्' पर अधिकार कर लिया।
➽इस प्रकार दक्षिण भारत में एक नवीन शक्ति के रूप में चोलों का उदय हुआ।
➽अपराजित ने विरुक्तनि में 'वीरट्टानेश्वर मंदिर' को निर्मित करवाया।
➽अपराजित के बाद नन्दि वर्मन तृतीय, नन्दि वर्मन चतुर्थ, कम्प वर्मन आदि ने कुछ समय तक पल्लव शक्ति को बचाने का प्रयास किया, पर असफल रहे।
➽उसने नवीं शताब्दी ई. के उत्तरार्ध में राज्य किया।
➽862-63 ई. में अपराजित ने पांड्य राजा वरगुण वर्मा को श्री पुरम्बिया के युद्ध में पराजित किया था, लेकिन बाद में नवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में वह स्वयं चोल राजा आदित्य प्रथम (880-907 ई.) से पराजित हुआ और मारा गया।
➽अपराजित की मृत्यु के बाद पल्लव राजवंश का अन्त हो गया।


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