पृथ्वी की उत्पत्ति एवं भूगर्भिक इतिहास
पृथ्वी की उत्पत्ति
पृथ्वी की उत्पत्ति
का प्रश्न क्रमशः सौरमंडल के उद्भव, तारामंडल के विकास एवं ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति
से जुड़ा हुआ है। अस्तु, पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में
समझा जाना चाहिए।
हिन्दू शास्त्रों में पृथ्वी को एक सुनहरे अर्द्ध-अण्डाकार पिण्ड के रूप में चित्रित किया गया है, जो चार हाथियों की सहायता से एक कछुए की पीठ पर टिका हुआ है। प्राचीन मिस्र के लोगों द्वारा पृथ्वी को समुद्र में तैरते हुए एक ठोस गोले के रूप में वर्णित किया गया है, जबकि पॉलीनेशियन लोगों ने पृथ्वी को समुद्र में तैरता हुआ एक अंडा माना है ।
18वीं सदी के आस-पास विशेषतः गणित एवं भौतिकी के क्षेत्र में हुई वैज्ञानिक
प्रगति के फलस्वरूप पृथ्वी की उत्पत्ति से जुड़े कुछ वैज्ञानिक आधार वाले सिद्धांत सामने
आये, जो निम्नांकित हैं—
1. जॉर्जस-डि- बफन का सिद्धांत (1749 ) :
पृथ्वी की उत्पत्ति
के संबंध में सर्वप्रथम तर्कपूर्ण परिकल्पना का प्रतिपादन फ्रांसीसी वैज्ञानिक 'जॉर्जस-डि-
बफन' द्वारा सन् 1749 में किया गया था । इनके मतानुसार एक विशालकाय धूमकेतु सूर्य से
टकराया होगा, जिसके फलस्वरूप अत्यधिक मात्रा में पदार्थों का उत्सर्जन हुआ । यह बिखरा
हुआ पदार्थ ही संघटित होकर ग्रहों में रूपान्तरित हो गया पदार्थ के कुछ छोटे पिंड उपग्रहों
में बदल गये, जबकि कुछ पदार्थ अंतरिक्ष में विलीन हो गये यद्यपि यह सिद्धांत थोड़ा
वैज्ञानिक आधार लिये हुए है एवं सूर्य और धूमकेतु के मध्य टक्कर होने की संभावना भी
थोड़ी मजबूत प्रतीत होती है किन्तु सौरमंडल से संबंधित कई ऐसे प्रश्न शेष रह जाते हैं,
जिनका उत्तर बफन के सिद्धान्त के आधार पर दे पाना संभव नहीं है।
2. इमैनुएल कांट का गैसीय पिंड सिद्धान्त (1755) :
इमैनुएल कांट के मतानुसार
आद्य पदार्थ छोटे एवं ठंडे कणों के रूप में था, जो गुरुत्वाकर्षण के परिणामस्वरूप एक-दूसरे
की ओर आकर्षित हुए। इसी प्रक्रिया में इन कणों का कोणीय वेग एवं तापमान उस स्तर तक ऊँचा हो गया, जहाँ वे गैसीय अवस्था में
रूपान्तरित हो गये। उच्च कोणीय वेग के कारण उत्पन्न एक उच्च बहिर्मुखी बल ने पदार्थ
को अभिकेंद्रीय गोलाकार वलयों के रूप में गर्म गैसीय पिण्ड से पृथक कर दिया। ये गोलाकार
वलय ही ठंडा होने पर वर्तमान ग्रहों के रूप में परिवर्तित हो गये। यही प्रक्रिया ग्रहों
से उपग्रहों की उत्पत्ति के दौरान संचालित हुई। गैसीय पिण्ड का अवशेष भाग सूर्य के
रूप में बदल गया। हालाँकि इमैनुएल काण्ट का सिद्धान्त सुगम्य एवं तर्कपूर्ण है, किन्तु
यह गुरुत्वीय कर्षण के आकस्मिक उद्गम तथा पदार्थ कणों में कोणीय वेग के मूल कारणों
को विश्लेषित करने में असमर्थ है।
3. लाप्लास का नीहारिका परिकल्पना (1796 ) :
प्रसिद्ध फ्रांसीसी
वैज्ञानिक लाप्लास ने प्रस्तावित किया कि आद्य पदार्थ एक गर्म एवं परिभ्रमणशील गैसीय
पिण्ड के रूप में था, जिसे नीहारिका (Nebula) नाम दिया गया। इस पिण्ड द्वारा ठंडा होने की प्रक्रिया
में अपना कुछ आयतन खो देने पर इनकी परिभ्रमण गति में वृद्धि हो गयी। इससे क्रमिक प्रभावों
का पड़ना आरंभ हुआ, क्योंकि पिण्ड का अपकेन्द्रीय बल भी साथ-साथ बढ़ चुका था, जिसके
परिणामस्वरूप नीहारिका पदार्थ पिण्ड ने इसके विषुवत पर केन्द्रित होना शुरू कर दिया।
दूसरी ओर यह पदार्थ पिण्ड गुरुत्वाकर्षण द्वारा अंदर की ओर खींचा जा रहा था । किन्तु,
अपकेन्द्रीय बल के अधिक तीव्रता से बढ़ने के परिणामस्वरूप विषुवत पर मौजूद कुछ पदार्थ
पिण्ड एक परिभ्रमणशील वलय के रूप में मुख्य नीहारिका से पृथक हो गया। इस वलय के ठंडा
व संघनित होने पर इसके छोटे-छोटे टुकड़े हो गये, जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान ग्रहों
एवं उपग्रहों का जन्म हुआ तथा बचा हुआ पदार्थ सूर्य के रूप में अस्तित्व में आया ।
वलय के ग्रहों में विखंडन की लाप्लास की परिकल्पना इस विस्तृत आधार, पर संभाव्य प्रतीत
होती कि सूर्य का चक्कर लगाने वाले ग्रह समान आधार से उसकी परिक्रमा करते हैं, और समान
तत्वों के संघटन से बने हैं। किन्तु ऐसी स्थिति में आरंभिक नीहारिका की कोणीय गति संपूर्ण
सौर प्रणाली की कोणीय गति के बराबर होनी चाहिए। यद्यपि सूर्य के पदार्थ पिण्ड का परिणाम
संपूर्ण सौर प्रणाली का 99.9% है, किन्तु उसकी कोणीय गति संपूर्ण सौर प्रणाली की कोणीय
गति की मात्र 2% है। इसके अतिरिक्त नीहारिका से इतने विस्तृत वलय के पृथक हो जाने के
पश्चात् शेष नीहारिका को संकुचित होकर बुध ग्रह के बराबर आकार में बदल जाना चाहिए था,
जो संभव नहीं हुआ। यह सिद्धांत अरुण (यूरेनस) एवं शनि ग्रह के कुछ उपग्रहों द्वारा
विपरीत दिशा में परिक्रमा करने की गुत्थी को भी नहीं सुलझा पाता है। यह सिद्धांत इस
कारक को स्पष्ट करने में भी असमर्थ है कि नीहारिका से वलय के पृथक होने की प्रक्रिया
में एकमात्र वलय के स्थान पर अनेक नीहारिका से पृथक होने चाहिए थे
4. चैम्बरलिन तथा मोल्टन की ग्रहाणु परिकल्पना (1900) :
चैम्बरलिन तथा मोल्टन के अनुसार ग्रहों की उत्पत्ति दो नीहारिकाओं से हुई। पहले सूर्य ने अपने उच्च तापमान के कारण गर्म पदार्थ को हजारों किलोमीटर दूर तक प्रक्षेपित किया, जिसे सुप्त सौर ज्वालाएँ' कहा गया। दूसरी नीहारिका ने सूर्य के पास से गुजरते हुए अपने गुरुत्वाकर्षण द्वारा कुछ मात्रा में प्रक्षेपित पदार्थ को आकर्षित किया, जिसके परिणामस्वरूप प्रक्षेपित पदार्थ, सूर्य के बजाय दूसरी नीहारिका की परिक्रमा करने लगा। इस पदार्थ के कण संघनित होकर ग्रहों के रूप में बदलने लगे। इस प्रक्रिया
में अत्यधिक ऊष्मा उत्पन्न हुई। ज्वालामुखी उद्गारों एवं परिक्रमारत पदार्थ से निःसृत
गैसीय तत्वों ने पृथ्वी के वायुमंडल का निर्माण किया।
यह सिद्धांत इस तथ्य के आधार पर संभाव्य प्रतीत होता है कि सभी
ग्रहों के पदार्थ पिण्ड की कुल मात्रा संपूर्ण सौर प्रणाली का लगभग है, जो इस बात का
संकेत है कि सूर्य से ही ग्रहों का निर्माण हुआ। फिर भी यह सिद्धांत इस बात की व्याख्या
नहीं करता कि संघनन के दौरान पदार्थ कण गैसीय अवस्था में परिवर्तित होने के स्थान पर
अपने आकार में क्यों बढ़ गये ? यह सिद्धान्त इस प्रश्न का भी उत्तर नहीं दे पाता है
कि अन्य ग्रहों की तुलना में सूर्य का कोणीय संवेग कम क्यों है ।
5. जीन्स और जेफ्रीज की ज्वारीय परिकल्पना :
जीन्स और जेफ्रीज
के परिकल्पनानुसार सूर्य मूल रूप में एक गैसीय पिण्ड था । एक विशालकाय तारा सूर्य के
काफी निकट पहुँचा और उसके गुरुत्वाकर्षण ने सूर्य की सतह पर कई ज्वारों को जन्म दिया,
जिसके परिणामस्वरूप सूर्य के पदार्थ का कुछ अंश सूर्य से अलग हो गया। इस अलग हुए पदार्थ
ने सूर्य की परिक्रमा प्रारंभ कर दी तथा सूर्य एवं तारे से पैदा द्विध्रुवीय बल के
प्रभाव में एक 'फुले हुए सिगार' का रूप ग्रहण कर लिया। यह द्विध्रुवीय बल गुरुत्वीय कर्षण के रूप में था। बीच में फुला
हुआ तथा किनारों पर पतला यह गैसीय पिण्ड ठंडा और संघनित होकर ठोस गोलों में बदल गया
जो धीरे-धीरे हमारे सौरमंडल के ग्रह बन गये । बड़े ग्रह बीच में अवस्थित थे और छोटे
ग्रह सीमान्तों पर । बाद में इसी समान प्रक्रिया के आधार पर सूर्य के गुरुत्वाकर्षण
के कारण इन ग्रहों में से छोटे उपग्रहों का निर्माण हुआ । इस प्रक्रिया में भी बड़े
उपग्रहों को मध्य में स्थान प्राप्त हुआ ।
यद्यपि सौर प्रणाली
में ग्रहों एवं उपग्रहों की विलक्षण अवस्थिति का निरूपण ज्वारीय सिद्धांत के अनुरूप
है। इस तथ्य को अलग रखते हुए भी सभी ग्रहों का निर्माण समान तत्वों से हुआ है, कुछ
शंकाएँ शेष रह जाती हैं - (1) सूर्य का निम्नकोणीय संवेग ग्रहों के उच्चकोणीय संवेग
को उत्पन्न नहीं कर सकता था। (2) ब्रह्मांड में तारों के बीच की दूरी इतनी अधिक है,
कि ज्वार द्वारा सूर्य से पदार्थ के उत्क्षेपण की कोई संभावना नहीं दिखती। (3) उत्क्षेपित
पदार्थ का तापमान इतना अधिक था कि वह इतने बड़े ग्रहों के निर्माण में सहायक नहीं हो
सकता था।
6. ऑटो श्मिट की अंतरतारक धूल परिकल्पना :
रूसी
वैज्ञानिक श्मिट के मतानुसार अंतरिक्ष, मूल रूप में धूल-कणों से भरा हुआ था। इन धूल-कणों
को सूर्य द्वारा आकर्षित किया गया और ये कण सूर्य के चारों ओर घूमने लगे । आपस में
टकराने के कारण इनकी गति धीमी होती गयी तथा ये एकत्र होकर बड़े ग्रहों के रूप में बदल
गये। शेष असंगठित पदार्थ ने उपग्रहों का आकार ग्रहण कर लिया। श्मिट के अनुसार भारी
कण उच्च गुरुत्वीय कर्षण के कारण सूर्य के निकट बने रहे जबकि हल्के कण दूर तक बिखर
गये। इस तथ्य को सौर प्रणाली भी पुष्ट करती है, जिसमें आन्तरिक ग्रहों—बुध, शुक्र,
पृथ्वी एवं मंगल का निर्माण भारी तत्वों तथा बाहरी ग्रहों-वृहस्पति, शनि, अरुण, वरुण
का निर्माण हल्के तत्वों (हाइड्रोजन, हीलियम, नाइट्रोजन, मीथेन आदि) से हुआ है। क्योंकि,
ग्रहों की रचना सूर्य के पदार्थ से नहीं हुई, इसलिए सौर प्रणाली के कोणीय संवेग के
बारे में कोई संदिग्धता शेष नहीं रह जाती । किन्तु श्मिट का सिद्धांत धूल-कणों के आद्य
अस्तित्व तथा ब्रह्मांड में तारों के बीच की विशाल दूरी के बावजूद धूल-कणों के सूर्य
की ओर आकर्षित . होने के कारणों को स्पष्ट नहीं कर पाते।
आधुनिक सिद्धांत
अंततोगत्वा, वैज्ञानिकों
ने पृथ्वी या अन्य ग्रहों की ही नहीं - अपितु पूरे ब्रह्मांड की उत्पत्ति संबंधी समस्याओं
को समझाने का प्रयास किया। विश्व के सुविख्यात भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग ने अपनी
पुस्तक A Brief History of Time (समय 1 का संक्षिप्त इतिहास) में उद्धृत किया है कि आज से लगभग
15 अरब वर्ष पूर्व ब्रह्मांड का अस्तित्व एक मटर के दाने के रूप में था। इसके पश्चात्
'बिग बैंग सिद्धांत का समर्थन करते हुए वे लिखते हैं कि महाविस्फोट के पश्चात् ब्रह्मांड
का स्वरूप विस्तृत हुआ। आज वही मटर के दाने के आकार का ब्रह्मांड असीम और अनंत है।
पृथ्वी का उद्भव एवं विकास
जैसा कि आप अभी तक
जान चुके हैं कि हमारी पृथ्वी जैसी आज है, हमेशा से वैसी नहीं थी। प्रारंभ में पृथ्वी
गैस का एक गोला थी। इसके बाद गैसीय पदार्थ तरल पदार्थ में परिणत हुए तरलावस्था में
हल्के पदार्थ ऊपर आकर ठंडा होकर कठोर हो गये। हल्के व भारी घनत्व वाले पदार्थों के
पृथक होने की इस प्रक्रिया को 'विभेदन (differentiation) कहा जाता है। चन्द्रमा की उत्पत्ति के दौरान भीषण
टक्कर (giant impact) के कारण पृथ्वी का तापमान पुनः बढ़ा, फिर ऊर्जा उत्पन्न हुई
और यह विभेदन का दूसरा चरण था। विभेदन की इस प्रक्रिया द्वारा पृथ्वी का पदार्थ अनेक
परतों में अलग हो गया। जैसे-भू-पर्पटी (crust), प्रादार (mantle), बाह्य क्रोड (outer
core) और आंतरिक क्रोड (inner core)। समय के साथ पृथ्वी की ऊपरी सतह ठोस शैलों की बन गयी। पृथ्वी
की पर्पटी का अधिकतर भाग इन्हीं शैलों का बना है। पृथ्वी का आन्तरिक भाग अभी भी गरम
था। कालांतर में विशाल पैमाने पर भू-पर्पटी को छेदकर लावा बाहर आकर भू-पर्पटी पर जमने
लगा, जिससे यह परत धीरे-धीरे मोटी होने लगी। इस प्रकार लावा के उद्गार और इसके जमने
से पृथ्वी की ऊपरी सतह ऊबड़-खाबड़ हो गयी। इससे बड़े बड़े पहाड़ और गड्ढे बन गये। इस
तरह भू-पर्पटी की परतदार संरचना विकसित हुई।
प्रारंभ में पृथ्वी चट्टानी, गर्म व वीरान ग्रह थी, जिसका वायुमंडल विरल था जो हाइड्रोजन व हीलियम से बना था। गर्म पृथ्वी से अनेक गैसे निकल कर इसके ऊपर चारों ओर इकट्ठी हो गयीं। इन्हीं से पृथ्वी के वायुमंडल का निर्माण हुआ। प्रारंभ में इसमें जलवाष्प, नाइट्रोजन और कार्बन डाइऑक्साइड गैसों की प्रधानता थी। पृथ्वी जब थोड़ी ठंडी हुई तो जलवाष्प ने संघनित होकर बादलों का रूप ले लिया। बादल संघनित हो बरसने लगे। न लाखों वर्षों तक निरंतर बादलों की भयंकर गड़गड़ाहट और बिजली की तेज चमक के साथ प्रलयंकारी वर्षा होती रही। पृथ्वी के गड्ढों में जल भर गया और वे महासागर बन गये। पृथ्वी पर उपस्थित महासागर पृथ्वी की उत्पत्ति से लगभग 50 करोड़ साल के अंतर्गत बने इस तरह महासागर 400 करोड़ साल पुराने हैं। उत्पत्ति के करोड़ों वर्ष बाद भी पृथ्वी उजाड़ और निर्जीव बनी रही। महासागरों का जल हिलोरें लेता रहा। आज से लगभग 380 करोड़ साल पहले जीवन का विकास आरंभ हुआ। आधुनिक वैज्ञानिक जीवन की उत्पत्ति को एक रासायनिक प्रतिक्रिया का परिणाम बताते हैं। इस रासायनिक प्रतिक्रिया में पहले जटिल जैव (कार्बनिक) अणु (complex organic molecules) बने और उसका समूहन हुआ यह हुए समूहन पुनः बनने में सक्षम था और निर्जीव पदार्थ को जीवित तत्व में परिवर्तित करने लगा अतः इस रहस्यमयी विधान से संभवतः समुद्री जल में एक क्रान्तिकारी पल में जीव का जन्म हुआ । यद्यपि 250 से 300 करोड़ साल पहले प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया प्रारंभ हुई। फलतः वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा 200 करोड़ वर्ष पूर्व पूर्ण रूप से भर गयी, जो महासागरों की देन है। आगामी करोड़ों वर्षों तक सागर जीव का पालना बना रहा। 300 करोड़ साल पुरानी भू-गर्भिक शैलों में शैवाल (blue green algae) जैसी सूक्ष्मदर्शी संरचना का पाया जाना इस बात को और अधिक पुष्ट करता है । जीवों के विकास के क्रम में एक ऐसा समय आया जब जीवों ने वायुमंडल से कार्बन डाइ ऑक्साइड ग्रहण कर ऑक्सीजन मुक्त करना प्रारंभ किया। यह वर्ग वनस्पतियों का था । इस तरह वायुमंडल में ऑक्सीजन भरने लगा, जो जन्तुओं के उद्भव और जीवन के साधन का कारण बना। इस तरह पृथ्वी वनस्पतियों और प्राणियों की अनेकानेक प्रजातियों का निवास-स्थल बना। कालान्तर में लगभग 5 लाख वर्ष पहले आधुनिक मानव (Homo. sapiens) का अवतरण हुआ, जो समस्त मानव जाति का पहला पूर्वज था
अस्तु यह माना जाता है कि पृथ्वी पर
जीवन का विकास आज से लगभग 380 करोड़ वर्ष पूर्व आरंभ हुआ। प्रारंभ में एककोशकीय जीवाणु
से आज के आधुनिक मानव प्रजाति के विकास का घटनाक्रम कई चरणों से होकर गुजरी है। इन
चरणों का विवेचन कालक्रमानुसार इस प्रकार है।
1. प्री- कैम्ब्रियन कल्प (पृथ्वी के जन्म से लेकर 50 करोड़ वर्ष पूर्व तक)-
इस चरण के दौरान पृथ्वी ठंडी होकर गर्म गैसीय अवस्था से द्रवीभूत अवस्था में बदल
गयी। थोड़ा और ठंडा होने पर एक बाहरी ठोस एवं मोटी परत अर्थात् प्रथम शेल का निर्माण
हुआ आगे और ठंडा होने पर जलवाष्प संघनित होकर तरल जल में परिवर्तित हो गयी। इस स्थिति
का एक संभावित संदर्भ प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों (प्रलय) और ईसाई ग्रन्थों (डिल्यूज ऑफ
नोम) में दिया गया है। आंतरिक तरल एवं द्रवित अंश में ज्वालामुखी क्रियाएँ प्रारंभ
हो गयीं। ये परिस्थितियाँ जीवन के उदय के लिए उपयुक्त नहीं थी इसलिए इस युग की चट्टानें
जीवाशेष रहित है। ठोस पदार्थों का व्यापक स्तर पर अपक्षय हुआ और अपक्षयित अवसाद समुद्र
में जमा होने लगे। इन अवसादों का पृथ्वी की हलचलों के कारण रूपान्तरण होना प्रारंभ
हुआ। हमें पर्वत निर्माणकारी हलचलों के तीन प्रमाण मिलते है-
(1) लॉरेंशियन यह
हलचल 1 अरब वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई थी। इसके परिणाम फोनोस्कैंडिया, यूरोपीय रूस तथा
ब्रिटेन में मिलते हैं।
(ii) एल्गोमेन तथा
(iii) किलैरनियन ।
इस कल्प में अवसादी
चट्टानों का कायान्तरण भी हुआ और पैंजिया महाद्वीप चार कठोर स्थलखंडों में विभाजित
हो गया-कनाडियन, साइबेरियन, गोंडवाना और बाल्टिक
2. पैनिओजोइक कल्प (57 करोड़ वर्ष पूर्व से 22.5 करोड़ वर्ष पूर्व तक-
इस कल्प के दौरान पृथ्वी पर पहली बार गैर-पुष्पीय वनस्पति तथा
अकशेरूक जंतुओं के रूप में जीवन का आविर्भाव हुआ। इस कल्प के मध्य में कशेरुकी जंतु
भी अस्तित्व में आ चुके थे। इस कल्प को छह कालों में बाँटा गया है
(i) कैम्ब्रियन काल (57 करोड़ से 50.5 करोड़ वर्ष पूर्व) :
इस काल में समुद्री अवसादों से अवसादी चट्टानों
का जन्म हुआ। इन चट्टानों में प्राचीनतम जीवन के अवशेष मिलते हैं। पेरीपेटस (एनीलिडा
एवं आर्थोपोडा संयोजक जन्तु) का जीवाश्म इसी काल के चट्टानों में पाया जाता है। भारतवर्ष
में विध्याचल पर्वत श्रेणी का विकास भी इसी कालखण्ड में हुआ था। महासागरों में सारगैसम
आदि घासों की उत्पत्ति भी इसी समय हुआ था।
(ii) ओर्डोविसियन काल (50.5 करोड़ से 43.8 करोड़ वर्ष पूर्व) :
इस काल में समुद्री विस्तार ने उत्तरी अमेरिका का
आधा भाग डुबो दिया, जबकि पूर्वी अमेरिका टैकोनियन पर्वत निर्माणकारी गतिविधियों से
प्रभावित हुआ। इस कालखण्ड में निम्न कोटि की मछलियों से मेरूदंडीय जीवों का विकास प्रारंभ
हुआ। किन्तु अभी भी स्थलखण्ड जीवविहीन था ।
(iii)सिल्यूरियन काल (43.8 करोड़ से 40.8 करोड़ वर्ष पूर्व):
इस काल में सभी महाद्वीप पृथ्वी की कैलेडोनियन हलचल से प्रभावित हुए। वनस्पतियों
और अकशेरुकी प्राणियों का प्रसार हुआ। इसी काल में फेफड़े वाले जन्तुओं और मछलियों
का जन्म हुआ।
(iv) डेवोनियन काल (40.8 करोड़ से 36 करोड़ वर्ष पूर्व):
कैलेडोनियन हलचल के परिणामस्वरूप सभी महाद्वीपों
पर ऊँची पर्वत श्रृंखलाएँ विकसित हुई, जिसके प्रमाण स्कैंडेनेविया, दक्षिण पश्चिम स्कॉटलैंड,
उत्तरी आयरलैंड एवं पूर्व अमेरिका में देखे जा सकते हैं। इस काल के दौरान मछलियाँ प्रचुरता
में पायी जाने लगी तथा समुद्रों में प्रवालों का निर्माण शुरू हो गया। इसी काल में
पहला उभयचर और कशेरुकी प्राणी अस्तित्वमान हुए।
(v) कार्बोनीफेरस काल (36.00 करोड़ से 28.6 करोड़ वर्ष पूर्व) :
कैलेडोनियन हलचलों का स्थान
अमेरिकन हलचलों ने ले लिया, जिससे ब्रिटेन एवं फ्रांस सर्वाधिक रूप में प्रभावित हुए।
इस काल में तापमान एवं आर्द्रता में वृद्धि हुई। अतिवृष्टि के कारण काफी बड़े भू भाग
दलदली भूमि में बदल गये। सघन वनों ने काफी बड़े भू-क्षेत्रों को आवृत्त कर लिया। कुछ
समय पश्चात् ये वन जलमग्न होकर अवसादी निक्षेपों के नीचे दब गये। जलमग्न क्षेत्र के
जलस्तर से बार-बार ऊपर-नीचे आने की प्रक्रिया में इन वनों को तीव्र दबावों का सामना
करना पड़ा। परिणामस्वरूप ये वन कोयला संस्तर में परिवर्तित हो गये। इसी कारण इस काल
को कार्बोनीफेरस नाम दिया गया। इस समय बने भ्रंशों में वृक्षों के दब जाने के कारण
गोंडवाना क्रम के चट्टानों का निर्माण हुआ, जिसमें कोयले के व्यापक निक्षेप मिलते हैं।
ये कोयला संस्तर ही आज कोयला प्राप्त करने के मुख्य साधन हैं। इस काल में उभयचरों का
काफी विस्तार हुआ। इसलिए इसे उभयचरों का युग (Age of
Amphibians) कहते हैं। इस शक को
'बड़े वृक्षों का काल उपमा प्रदान की गई है।
(vi) पर्मियन काल (28.6 करोड़ से 24.5 करोड़ वर्ष पूर्व) :
इस काल में वैरीसन हलचल हुई, जिसने मुख्य रूप से
यूरोप को प्रभावित किया। इसी काल में तृतीय पर्वतीय हलचल हार्सीनियन के फलस्वरूप बने
भ्रंशों के कारण ब्लैक फॉरस्ट व वास्जेस, जैसे भ्रंशोत्थ पर्वतों का निर्माण हुआ। जलवायु
क्रमिक रूप से शुष्क होने लगी। समुद्र एवं स्थल पर वनस्पतियों और जंतुओं की विकास प्रक्रिया
आगे बढ़ती गयी। इस काल के दौरान कोणधारी वनों की प्रचुरता थी।
3. मीसोजोइक कल्प
(24.5 करोड़ से 6 करोड़ वर्ष पूर्व तक): इस कल्प को तीन कालों में विभाजित किया गया है—
- ट्रिआसिक काल (24.5 करोड़ से 20.8 करोड़ वर्ष पूर्व तक):
- जुरासिक काल (20.8 करोड़ से 14.4 करोड़ वर्ष पूर्व तक):
- क्रिटेशियस काल (14.4 करोड़ से 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व (तक)।
(i) ट्रियाशिक काल :
इसे रेंगने वाले जीवों का काल' (Age of Raptiles) कहा जाता है। इसके अंतिम चरण में उड़ने वाले सरीसृपों-टारोसॉरों
व सरीसृपों से अण्डे देने वाले निम्न कोटि के स्तनियों प्रोटीथीरिया की उत्पत्ति हुई।
गोण्डवानालैंड का विभाजन इसी कालखण्ड में प्रारंभ हुआ तथा यह जुरासिक शक तक चलता रहा।
जिसके परिणामस्वरूप आस्ट्रेलिया, दक्षिणी भारत, अफ्रीका तथा दक्षिण अमेरिका के भूखण्ड
निर्मित हुए।
(ii) जुरासिक काल :
इसी कालखण्ड में पुष्प पादपों अर्थात् आवृतबीजी (Angiosperms)
की उत्पत्ति हुई। स्थलमण्डल
पर डायनासोरों जैसे सरीसृपों का प्रभुत्व था । निम्न स्तनियों (प्रोटोथीरिया) से मासूपियल
(मेटाथीरिया — कंगारू) जैसे स्तनपायियों की उत्पत्ति हुई आर्कियोप्टेरिक्स जो उड़ने
वाले सरीसृप से प्रथम पक्षी था, की उत्पत्ति भी इसी कालखण्ड में हुई।
(iii) क्रिटेशियस काल :
इस कालखण्ड में पर्वत निर्माणकारी हलचल अत्यधिक सक्रिय रही।
इसी समय रॉकी, एण्डीज, यूरोप महाद्वीप की कई पर्वत श्रेणियाँ तथा पनामा कटक (Ridge ) की उत्पत्ति प्रारंभ
हुई। इस कालखण्ड के अंतिम समय में भारत के दक्षिणी पठारी भाग पर ज्वालामुखी क्रिया
द्वारा लावा का जमाव हुआ। उ० प० कनाडा, अलास्का, मैक्सिको एवं ब्रिटेन के डोवर क्षेत्र
में खरिया मिट्टी का जमाव इस कालखण्ड की प्रमुख विशेषता है।
4. सिनोजोइक कल्प :
इस कल्प को दो कालों में विभक्त
किया गया है—
(i) टर्शियरी काल (6.5 करोड़ वर्ष से 5.7 करोड़ वर्ष पूर्व तक), तथा (ii) क्वार्टरनरी काल
(1 करोड़ वर्ष से वर्तमान तक) ।
(i) टर्शियरी काल :
टर्शियरी काल को पांच युगों में उपविभाजित किया
जाता है, ये हैं-
(a) पैलियोसीन युग (6.5 करोड़ से 5.7 करोड़ वर्ष पूर्व तक ) :
इस युग के दौरान हुई लैरामाइड हलचल के फलस्वरूप
उत्तरी अमेरिका में रॉकी पर्वतमाला का निर्माण हुआ। वर्तमान घोड़े का सबसे आद्य रूप
इसी युग मे विकसित हुआ। घासयुक्त क्षेत्रों में वृद्धि हुई ।
(b) इयोसीन युग (5.8 करोड़ से 3.7 करोड़ वर्ष पूर्व तक ) :
इस युग में भूतल पर विभिन्न दरारों के माध्यम से
लावा का उद्गार हुआ। स्तनधारी प्राणियों, फलदार पेड़-पौधों तथा अनाजों की कई प्रजातियाँ
विकसित हुईं।
(c) ओलिगोसीन युग (3.7 करोड़ से 2.4 करोड़ वर्ष पूर्व तक)
अल्पाइन पर्वत के निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ
हुई। इसी युग में उन मानवाकार बंदरों का अस्तित्व सामने आया, जिससे वर्तमान मानव का
विकास हुआ है।
(d) मियोसीन युग (2.4 करोड़ से 50 लाख वर्ष पूर्व तक) :
अल्पाइन पर्वत-निर्माणकारी गतिविधियों द्वारा संपूर्ण
यूरोप एवं एशिया में वलनों का विकास हुआ, जिनके विस्तार की दिशा पूर्व-पश्चिम थी। इस
युग में स्तनधारियों की उच्च प्रजातियों, जैसे—ह्वेल और बंदरों का आविर्भाव हुआ।
(e) प्लियोसीन युग (50 लाख से 20 लाख वर्ष पूर्व तक) :
समुद्रों के निरंतर अवसादीकरण से यूरोप मेसोपोटामिया,
उत्तरी भारत, सिंध तथा उत्तरी अमेरिका में विस्तृत मैदानों का विकास हुआ। बड़े स्तनधारियों
की विभिन्न प्रजातियों विकसित हुई।
(ii) क्वार्टरनरी काल : क्वार्टरनरी काल को दो युगों में विभाजित किया गया है—।
(a) प्लीस्टोसीन युग (20 लाख से 10 हजार वर्ष पूर्व तक) :
इस युग में तापमान का स्तर
इतना नीचे आ गया कि संपूर्ण उत्तरी अमेरिका, उत्तरी अफ्रीका, यूरोप, आर्कटिक और अंटार्कटिका
बर्फ की एक मोटी चादर से ढँक गये। इसलिए इस चरण को हिमयुग की संज्ञा दी जाती है। इस
हिमाच्छादन के फलस्वरूप वनस्पतियों एवं जंतुओं के जीवन पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। बड़े
जन्तु विलुप्त हो गये और जो बचे, उन्होंने अपने शरीर पर बालों का विकास कर लिया अथवा
पक्षियों के रूप में विकसित हो गये। स्तनधारियों का विकास बहुत तेजी से हुआ। हिमचादर
की स्थिति में चार बार परिवर्तन हुआ, जिसके कारण हिमयुग को चार चरणों-गुज, मिडेल, रिस
तथा दुर्म में बाँटा गया है। दो चरणों के बीच के समय को अंतरहिमानी काल कहा जाता है।
हिमाच्छादन के कारण अभी भी स्पष्ट नहीं हैं। हिमचादर के पश्चगमन से उत्तरी अमेरिका
की पाँच महान झीलों का निर्माण हुआ। हिमाच्छादन के कारण ही उत्तरी अमेरिका के पर्वत
शिखरों को गोल आकार तथा नदी घाटियों को U-आकार प्राप्त हुआ।
स्वीडन, फिनलैंड एवं रूस हिमाच्छादन प्रभावों के जटिल प्रमाणों को प्रदर्शित करते हैं।
(b) होलोसीन युग (10 हजार वर्ष से लेकर वर्तमान तक) :
कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमचादर के पश्चगमन की प्रक्रिया अभी भी चालू है, किन्तु वैज्ञानिक इसका प्रतिवाद करते हैं। इस युग में मानव तथा प्राकृतिक पर्यावरण के साथ उसके पारस्परिक संबंधों के परिणामों का आधिपत्य रहा है।
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