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महाद्वीप तथा महासागरीय नित्तल की उत्पत्ति

महाद्वीप तथा महासागरीय नित्तल की उत्पत्ति

महाद्वीप तथा महासागरीय नित्तल की उत्पत्ति

पृथ्वी की भू-संहतियों में से एक, जिसकी संरचना सियालिक शैलों से हुई है और जो महासागरीय तली से ऊपर उठी हुई है, महाद्वीप कहलाता है। संपूर्ण पृथ्वी पर महाद्वीपों एवं महासागरों का ही योग है। धरातल की कुल सतह का 71% भाग महासागरों एवं 29% भाग महाद्वीपों से घिरा हुआ है। पृथ्वी पर महाद्वीपों एवं महासागरों की जो वर्तमान स्थिति दृष्टिगोचर हो रही है, ऐसी अवस्था पूर्व में नहीं थी। इनकी उत्पत्ति के संबंध में अनेक ऐसे मत प्रतिपादित किये गये हैं जिनसे ज्ञात होता है कि प्रारंभ में सभी महाद्वीप एक स्थान पर पैंजिया के रूप में एकत्रित हो तथा बाद में विखंडित हुए तथा खिसककर वर्तमान स्थिति में गये। इस प्रकार महाद्वीपों के खिसकने की क्रिया का महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत के अंतर्गत अध्ययन करते हैं।

महाद्वीपीय प्रवाह Continental drift

20वीं सदी के पूर्वार्द्ध के सिद्धांतों में महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत माना जाता है। महाद्वीपीय विस्थापन के विषय में जर्मन जलवायु विज्ञान के विद्वान अल्फ्रेड वेगनर (Alfred Wegener) का नाम आता है तथा आज भी लोग इस सिद्धांत को वेगनर के नाम से जोड़ते हैं। हालाँकि महाद्वीपीय विस्थापन का विचार बहुत प्राचीन है। सर्वप्रथम डच मानचित्रवेत्ता 'अब्राहम ओर्टिलियस (1527-98) ने 1596 ई० में अपनी पुस्तक 'ट्रेजरस ज्योग्राफिकस' (treasurus geographi cus) में कुछ महाद्वीपीय तटरेखाओं को स्पष्ट रूप से आपस में ठीक बैठने के रूप में वर्णित किया है। अंग्रेज दर्शनशास्त्री फ्रांसिस बेकन ने 1620 ई० में अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के बीच आकृतियों में भारी समानताएँ व्यक्त की थीं। यद्यपि उसने यह नहीं कहा कि वे एक-दूसरे से विस्थापित हुए हैं। 19वीं शताब्दी के मध्य काल अर्थात् 1858 ई० में फ्रांसीसी विद्वान ओण्टोनियो स्नाइडर पेलीग्रीनी (Ontonio Snider- Pelligrine) ने अपनी पुस्तक Creation and its Mysteries Revealed (सृष्टि और उसके उद्घाटित रहस्य) में तीनों महाद्वीपों को इकट्ठा दिखाया था तथा यह स्पष्ट किया था कि विस्थापन के पूर्व महादेश कैसे दिखते थे। महाद्वीप विस्थापन पर इनका मत नोह की बाढ़' (Noah's Flood) के विध्वंस की घटना पर आधारित था। स्नाइडर महोदय ने भूतात्विक आधारों पर दक्षिणी अमेरिका तथा अफ्रीका को एक साथ मिला हुआ बताया, जो कालान्तर में खिसककर वर्तमान स्थिति में आये। अमेरिका के एफ. बी. टेलर ने 1910 ई० में अल्पाइन भू-संचलनों के आधार पर वलित पर्वतों को समझाने के लिए महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धांत प्रस्तुत किया। परन्तु विद्वानों ने इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया, जिसके फलस्वरूप इसे मान्यता प्राप्त नहीं हो सकी। इसके दो ही वर्ष उपरान्त 1912 ई० में महाद्वीपीय विस्थापन की संकल्पना सिद्धांत के रूप में लोगों के समक्ष आया। वेगनर जलवायु विज्ञान (climatology) के विद्वान थे, जिन्होंने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इनका यह सिद्धांत 'शोध लेख (research article) के रूप में जर्मन भाषा में प्रकाशित हुआ, परन्तु यह लेख अधिकतर विद्वानों तक नहीं पहुँच सका। 1924 में इस लेख का अंग्रेजी अनुवाद किया गया और तब यह विद्वानों को अपनी ओर आकर्षित किया।

वेगनर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत Theory as propounded by Wegener

वेगनर महोदय ने पूर्व जलवायुशास्त्र, वनस्पति शास्त्र, भू-गर्भशास्त्र के प्रमाणों के आधार पर यह माना कि कार्बोनीफेरस युग में विश्व के समस्त भूखंड एक ही स्थलखंड के रूप में था, जिन्हें आज हम पंजिया' (Pangaea) महादेश के नाम से संबोधित करते हैं। पंजिया ग्रीक भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'सभी द्वीप' (Greek word for all Islands) पृथ्वी के उद्भव के समय से लेकर मध्यकाल (meso- zoic period) तक पंजिया की क्या स्थिति थी यह कहना तो बहुत कठिन है, परन्तु आज से 200 मिलियन वर्ष पूर्व तक पंजिया अवश्य था। पैंजिया के चारों ओर विशाल सागर था, जिसे पैन्थाल्सा कहा जाता था। इस पैंजिया के ऊपर भी पूर्व से पश्चिम तक एक प्रमुख सागर टेथिस था। पैजिया के उत्तरी भाग में उत्तरी अमेरिका, यूरोप तथा एशिया 'लारेशिया' के रूप में तथा दक्षिणी भाग में दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, मेडागास्कर, भारत, आस्ट्रेलिया तथा अण्टार्कटिका 'गोडवानालैंड’ के रूप में आपस में जुड़े हुए थे। वेगनर महोदय ने पैंजिया में तीन परतें 'सियाल, सीमा और निफे' मानी। सियाल जो महाद्वीपीय भाग थे, हल्के तत्वों के होने के कारण सीमा पर तैर रहे थे। कालान्तर में पैंजिया के दोनों भागों का विखंडन हुआ और महाद्वीप खिसककर वर्तमान स्थिति में आये। विस्थापन की गतियाँ ध्रुवों से ही प्रारंभ हुई। महाद्वीपों के खिसकने की क्रिया दो दिशाओं में हुई— (i) विषुवत रेखा की ओर, (ii) पश्चिम की ओर। मध्य कल्प में गोंडवानालैंड टूटकर दक्षिणी ध्रुव से बाहर की ओर खिसक गया। पश्चिम की ओर विस्थापन, सूर्य तथा चन्द्रमा की भेदकारी गुरुत्वाकर्षण शक्ति द्वारा हुआ। मध्य जुरासिक कल्प में आस्ट्रेलिया तथा मेडागास्कर अफ्रीका से पूर्व की ओर खिसके। आदि नूतन कल्प में उ० अमेरिका तथा यूरोप अलग हुए।

पैंजिया (Pangaea): पैंजिया (Pan all + gaea = Earth), अर्थात् समस्त पृथ्वी एक काल्पनिक महाद्वीप है, जिससे मध्य जीव महाकल्प से होकर वर्तमान समय तक हुए विस्थापन से महाद्वीपों की उत्पत्ति हुई है। वेगनर ने यह मत दिया था कि महा-महाद्वीप (super continent) पैंजिया टूटकर दो भागों में बँट गये-— (i) लारेशिया (Laurasia) (उ० अमेरिका, ग्रीनलैंड और भारत के उत्तर में स्थित समस्त यूरेशिया) और (ii) गोण्डवाना लैंड (दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, मेडागास्कर, भारत, मलेशिया, पूर्वी द्वीप समूह, आस्ट्रेलिया और अण्टार्कटिका) । ये दोनों भूखंड एक लंबे, छिछले आन्तरिक सागर जिसे टेथिस (Tethys) सागर कहा गया, के द्वारा अलग किये गये थे।

पैथाल्सा (Panthalsa ) वेगनर महोदय के अनुसार पैंजिया चारों ओर से एक विस्तीर्ण जलक्षेत्र से घिरा हुआ था, जिसे पैथाल्सा (Panthalsa Pan = all + Thalsa = Ocean) अथवा आदिकालीन प्रशान्त महासागर कहा गया था। वेगनर ने यह भी परिकल्पना की कि कार्बोनीफेरस कल्प में दक्षिणी ध्रुव 'नाटाल' दक्षिणी अफ्रीका के तट के निकट था और उत्तरी ध्रुव प्रशान्त महासागर में था।       वेगनर के अनुसार पैंजिया का विघटन कार्बोनीफेरस कल्प (लगभग 3000 लाख वर्ष पूर्व) में प्रारंभ हुआ और महाद्वीपों की वर्तमान आकृतियों और सापेक्ष स्थितियाँ, टूटे भूखण्डों के फटने और संवहन से अलग होकर चैंजिया के विखण्डन का परिणाम है। उनका मत था कि महाद्वीप सियाल से बने हैं और सागरीय बेसिन सीमा से निर्मित हैं। चूँकि सीमा से सियाल हल्की होती है. इसी कारण सियाल सीमा पर तैर रही है।

महाद्वीपीय विस्थापन के पक्ष में प्रमाण (Evidence in support of the continental drift): 

अपने महाद्वीपीय सिद्धांत के पक्ष में वेगनर ने भू आकृतिक (Geomorphological) प्रमाणों को एकत्रित किया। इस सिद्धांत के पक्ष में दिये गये कुछ महत्वपूर्ण प्रमाण निम्न प्रकार के हैं—

1. जिग-सॉ-फिट (Jig-Saw-Fit): आप इस बात से परिचित होंगे कि यह बच्चों का खेल है जिसमें लकड़ी या प्लास्टिक के अलग-अलग आकार के टुकड़ों को मिलाकर एक विशेष रूप दिया जाता है। महादेशों के आकार को देखकर वेगनर ने उसी का सहारा लिया । द० अमेरिका व अफ्रीका के आमने-सामने की तटरेखाएँ अद्भुत व त्रुटिरहित साम्य दिखाती हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि 1964 ई० में बुलर्ड (bullard) ने एक कंप्यूटर प्रोग्राम की सहायता से अटलांटिक तटों को जोड़ते हुए एक मानचित्र तैयार किया था । तटों का यह साम्य बिल्कुल सही सिद्ध हुआ । साम्य बिठाने की यह कोशिश आज की तटरेखा की अपेक्षा 1,000 फैदम की गहराई की तटरेखा के साथ की गयी थी । वेगनर ने अटलांटिक महासागर के दोनों तटों को मिलाकर यह बतलाया कि वे आपस में एक-दूसरे से बिल्कुल फिट बैठ जाते हैं; मानो वे एक ही भू-भंड के दो अंश हैं। अफ्रीका के पश्चिमी तट के हरेक वक्र (curve) ऐसी समानता लिये हुए हैं कि वे दक्षिणी अमेरिका के पूर्वी तट के वक्र में बिल्कुल बैठ जाते हैं। इसी प्रकार ग्रीनलैंड, बैफिनलैंड, एल्सम्योरलैंड आदि ऐसे द्वीप हैं जो उत्तरी ध्रुव के निकट समुद्र में फैले हुए हैं, परन्तु उन्हें मिलाने से वे एक ही भू-खंड बन जाते हैं। वेगनर ने इस ओर भी इशारा किया कि आस्ट्रेलिया और न्यू गिनी बंगाल की खाड़ी में फिट हो जाते हैं।

2. जीवाश्मीय प्रमाण (Palacontological Evidence); आन्ध्र महासागर के दोनों और के महाद्वीपों पर पाये गये निश्चित जीवाश्मों में आश्चर्यजनक साम्यता की व्याख्या करना कठिन है जब तक कि महाद्वीपों को, जैसे जुड़े हुए थे उसी प्रकार न जोड़ा जाये वनस्पतियों के एक प्रमुख जाति ग्लोसोप्टेरिस का जीवाश्म (fossils of glossopteris) भारत, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, फॉकलैंड द्वीप, आस्ट्रेलिया तथा अंटार्कटिक में पाये जाते हैं । इस प्रेक्षण से कि 'लैमूर' भारत, मेडागास्कर व अफ्रीका में मिलते हैं, कुछ वैज्ञानिकों ने इन तीनों स्थलखंडों को जोड़कर एक सतत स्थलखंड 'लेमूरिया (Lemuria) की उपस्थिति को स्वीकारा। यही स्थिति जीव जन्तुओं के जीवाश्म महानगर के किनारे स्थित महाद्वीपों के साथ भी है। 'मेसोसारस'  (Mesosaurus) नाम के छोटे रेंगनेवाले जीव (Reptiles) तथा स्तनधारी जीवों (Mammals) के जीवाश्म दक्षिणी गोलाद्ध के सभी महादेशों में मिले हैं। हमें यह ज्ञात है कि सभी दक्षिणी महादेश एक दूसरे से विशाल सागरों द्वारा पृथक हैं। इनमें से एक लिस्टीसारस' (Lystosaurus) नामक जीव का जीवाश्म है जो एक रीढ़दार जीव है। यह जीवाश्म मध्य भारत, दक्षिण अफ्रीका तथा अण्टार्कटिक में पाया गया है। दूसरा जीवाश्म 'डायनोसारस' (dinosaurus) नामक जीव का है जो नीलगिरि, आस्ट्रेलिया और दक्षिण अमेरिका में पाया गया है।

3. संरचना और शैल प्रकारों से प्रमाण (Evidence from Structure and Rock Types) एक महाद्वीप के तट पर अनेक मूगर्भिक आकृतियाँ अचानक लुप्त हो जाती हैं और आन्ध्र महासागर के पार सामने के महाद्वीप पर पुनः दिखाई देती हैं। समान भूगर्भिक लक्षणों का अप्लेशियन वलित पर्वत इसका एक अन्य उदाहरण है। आधुनिक समय में विकसित की गयी रेडियोमीट्रिक काल निर्धारण (radiometric dating) विधि से महासागरों के पार महाद्वीपों की चट्टानों के निर्माण सकता है। आन्ध्र महासागर के दोनों ओर के महाद्वीप आपस में न केवल रूपरेखा में किन्तु शैलों के प्रकार, बेसाल्ट पठार और संरचना में भी अनुरूप है (चित्र 5.3)। 200 करोड़ वर्ष प्राचीन शैल-समूहों की एक पट्टी ब्राजील तट और पश्चिमी अफ्रीका के तट पर मिलती है, जो आपस में मेल खाती है। दक्षिण अमेरिका व अफ्रीका की तटरेखा के साथ पाये जानेवाले आरंभिक समुद्री निक्षेप 'जुरासिक काल (Jurassic Age) के है। जो यह प्रमाणित करता है कि जुरासिक काल के पहले यहाँ महासागर की उपस्थिति नहीं थी अर्थात् महाद्वीपों का विस्थापन हुआ है।

4. हिमाच्छादन के प्रमाण (Evidence.from glaciation): पुराजीवी महाकल्प (लगभग 3000 लाख वर्ष पूर्व) के बाद के काल में दक्षिणी गोलार्द्ध के महाद्वीपों के बड़े भागों को हिमानियों ने ढँक रखा था। इन आदिकालीन हिमानियों द्वारा छोड़े गये जमाव टिलाइट (Tillite) की सहज ही पहचान की जा सकती है और निम्नशायी शैलों पर घाटियाँ और खाँचे (Grooves) उस दिशा की ओर संकेत करते हैं, जिस और हिम का प्रवाह हुआ होगा। भारत में पाये जानेवाले गोंडवाना श्रेणी के तलछटों के प्रतिरूप दक्षिणी गोलार्द्ध के छह विभिन्न स्थल खंडों में मिलते है।

गोंडवाना श्रेणी के आधार तल पर पाये जाने वाले 'टिलाइट' यहाँ विस्तृत व अति लंबे समय तक हिमावरण या हिमाच्छादन की ओर इशारा करते हैं। इसी क्रम के प्रतिरूप भारत के अतिरिक्त अफ्रीका, फॉकलैंड द्वीप, मेडागास्कर, अंटार्कटिक और आस्ट्रेलिया में मिलते हैं। गोंडवाना श्रेणी के तलछटों की समानता से यह प्रमाणित होता है कि इन स्थल खंडों के इतिहास में भी समानता रही होगी। दूसरे शब्दों में हिमानी निर्मित टिलाइट चट्टाने पुरातन जलवायु और महाद्वीपों के विस्थापन के स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।

5. पुराजलवायविक प्रमाण (Palaeoclimatic Evidence): बेगनर महोदय इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे कि मध्य अक्षांश में जो वृहत कोयले के भंडार हैं, ये उत्तरी अमेरिका से यूरोप और चीन तक फैले हुए हैं और ये पर्मियन और कार्बोनीफेरस कल्पों के हैं, जो 245 से 360 मिलियन वर्ष पुराने हैं। इनका यहाँ होने का कारण यही हो सकता है कि ये क्षेत्र कभी भूमध्यरेखीय क्षेत्र से नजदीक रहे होंगे और यह क्षेत्र घनी वनस्पतियों से ढंके होंगे जो बाद में कोयला बन गया।    पुराजलवायविक प्रमाण में कोयले के जमाव, मरुस्थल बालू-प्रस्तर, शैल जमाव, वायू रेत, जिप्सम और हिमनद जमाव, प्रत्येक इस बात की ओर इशारा करते हैं कि उस समय वहाँ किस प्रकार की जलवायु थी। इन जमावों के वितरण की व्याख्या तभी संभव है जब यह मान लिया जाए कि पूर्व में सभी महाद्वीप आपस में संगठित थे।

6. प्लेसर निक्षेप (Placer deposits) घाना तट पर सोने के बड़े निक्षेपों की उपस्थिति और मातृ चट्टानों की अनुपस्थिति एक आश्चर्यजनक तथ्य है। सोनायुक्त शिराएँ (gold bearing veins) ब्राजील में पायी जाती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि घाना में मिलने वाले सोने के निक्षेप ब्राजील पठार से उस समय निकले होंगे जब ये दोनों महाद्वीप एक-दूसरे से जुड़े थे।

7. ध्रुवीय घूमन्तु (Polar wandering): वेगनर महोदय के अनुसार भूगर्भिक काल में ध्रुवों की स्थितियों में परिवर्तन हुआ है, जिसे उसने 'ध्रुवीय घूमन्तु की संज्ञा दी है। पुराचुम्बकीय आँकड़े विश्वासपूर्वक संकेत देते हैं कि पुराजीवी महाकल्प के अंत में पंजिया का अस्तित्व था।

प्रवाह के लिए उत्तरदायी शक्तियांForces Responsible for Drift वेगनर महोदय के अनुसार महाद्वीपीय विस्थापन के दो कारण थे-1. ध्रुवीय या पोलर फ्लीइंग बल (Polar flecing force) तथा  2. ज्वारीय बल (Tidal force)                      

1.'ध्रुवीय फ्लीइंग बल' पृथ्वी के घूर्णन से संबंधित है। जैसा कि आप जानते हैं कि पृथ्वी की आकृति एक संपूर्ण गोले जैसी नहीं है। वरन् वह भूमध्यरेखा पर उभरी हुई है। यह उभार पृथ्वी के घूर्णन के कारण है।       2.'ज्वारीय बल' सूर्य और चन्द्रमा के आकर्षण से संबद्ध है, जिससे महासागरों में ज्वार पैदा होते हैं। वेगनर महोदय का मानना था कि करोड़ों वर्षों के दौरान ये बल प्रभावशाली होकर महाद्वीप के विस्थापन के लिए सक्षम हो गये। हालांकि बहुत से वैज्ञानिक इन दोनों बलों को महाद्वीपीय विस्थापन के लिए सर्वथा अपर्याप्त समझते हैं। अतः इस सिद्धांत का आधार वैज्ञानिक नहीं है।

वेगनर के सिद्धांत को आर्थर होम्स का समर्थन Arthur Holmes Support of the Theory of Wegener                                                                                             1930 के दशक में आर्थर होम्स (Arthur Holmes) महोदय ने अपने संवहन धारा सिद्धांत (convectional current theory) द्वारा वेगनर महोदय के महाद्वीपीय विस्थापन के लिए जिम्मेदार बल, जिसकी वैज्ञानिकों ने आलोचना की थी, का कुछ हद तक निवारण कर दिया। होम्स महोदय ने मैटल (mantle) भाग में संवहन धाराओं के प्रभाव की संभावना व्यक्त की। संवहन धाराएं रेडियोएक्टिव तत्वों से उत्पन्न ताप भिन्नता से मेंटल भाग में उत्पन्न होती है। होम्स महोदय का मत है कि पूरे मॅटल भाग मैं इस प्रकार की धाराओं का तंत्र विद्यमान है। उनका प्रयास उन प्रवाह बलों की व्याख्या प्रस्तुत करने का था जिसके आधार पर समकालीन वैज्ञानिकों ने वेगनर महोदय के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत को नकार दिया था।

महासागरीय अध: स्तल Ocean Floor महासागरों की बनावट और आकार पर विस्तृत शोध यह स्पष्ट करते हैं कि महासागरीय अधः स्तल (ocean floor ) में स्थल से भी अधिक उच्चावच संबंधी विविधता है। सन् 1920 ई० में 'ध्वनिक गंभीरता मापी यंत्र' (sonic sounding equipment/SONAR) की मदद से समुद्री गहराइयों का परोक्ष रूप से मापन कर इसका मानचित्रण संभव हुआ। युद्धोत्तर काल (post war period) में महासागरीय अधः स्तल के निरूपण अभियान ने महासागरीय उच्चावच संबंधी विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की और यह दिखाया कि इसके अधः स्तली में असंख्य व्रीणियाँ, कटकों, बेसिनों तथा पर्वत शिखरों का विस्तार है जो प्रायः महाद्वीपों के किनारों पर स्थित हैं। इसके अलावा अन्य प्रमुख जलमग्न लक्षण हैं—कटक पहाड़ी, समुद्री पर्वत, गड़ऑट (समतल शीर्ष वाले समुद्री पर्वत) खाइयों, कैनियन, गर्त, विभग क्षेत्र अनेकों द्वीप, प्रवाल वलय द्वीप, प्रवाल भित्ति, जलमग्न ज्वालामुखी पर्वत इत्यादि जलमग्न लक्षणों की विविधता को और बढ़ाते हैं। विवर्तनिक, ज्वालामुखी, अपरदनकारी और निक्षेपणकारी प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप ये तमाम विविधताएँ उत्पन्न हुई है। मध्यसागरीय कटके ज्वालामुखीय उद्गार के रूप में सर्वाधिक सक्रिय पायी गयीं। महासागरीय पर्यटी की चट्टानों के काल-निर्धारण (dating) से यह तथ्य सामने आया कि महासागरों के नितल की चट्टानें महाद्वीपीय भागों में पायी जाने वाली चट्टानों की अपेक्षा नवीन है। साथ ही महासागरीय कटक के दोनों तरफ की चट्टानें, जो कटक से बराबर दूरी पर स्थित हैं. उनकी रचना और आयु में भी आश्चर्यजनक समानता है। गहराई व उच्चावच के आधार पर महासागरीय अधः स्तल को रूप में तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है।

1. महाद्वीपीय सीमा (Continental Margins)

2. गहरे समुद्री मैदान (Deep Sea Plains)

3. मध्य महासागरीय कटक (Mid-Oceanic Ridges) |

1. महाद्वीपीय सीमा (Continental Margins): महाद्वीपीय सीमा, महाद्वीपीय किनारों और गहरे समुद्री बेसिन के बीच के भाग को कहा जाता है। इसके अंतर्गत महाद्वीपीय मग्नतट, महाद्वीपीय मग्नढाल, महाद्वीपीय उभार और गहरी महासारीय खाइयाँ आदि को सम्मिलित किया जा सकता है

2. गहरे समुद्री मैदान (Deep Sea Plains) : महाद्वीपीय मग्न- तटों के आधार से गहरे समुद्री मैदानों वाला भाग प्रारंभ होता है और मध्य महासागरीय कटक तक फैला रहता है। यह वह क्षेत्र है जहाँ महाद्वीपों से बहाकर लाये गये अवसाद इनके तटों से दूर निक्षेपित होते हैं। इन मैदानों के अधिक गहरे भागों अथवा गर्तों में 'लाल पंक' (red clay) का निक्षेप मिलता है, जो कदाचित् ज्वालामुखी से निकली हुई राख है, जिसे हवाएँ उड़ाकर समुद्र के जल में डाल देती हैं।

3. मध्य महासागरीय कटक (Mid-Oceanic Ridges) : मध्य महासागरीय कटक कुछ सौ किमी चौड़ी तथा सैकड़ों या हजारों किमी लंबी पर्वतों की एक श्रृंखला होती हैं। ये पृथ्वी पर सबसे लंबे पर्वत-तंत्र का निर्माण करते हैं। जलमग्न पर्वत-तंत्रों की कुल लंबाई 75000 किमी से भी अधिक हैं एवं ये महासागरों के मध्य भाग में सबसे अधिक पाये जाते हैं। इन कटकों के मध्यवर्ती शिखर पर एक रिफ्ट, एक प्रभाजक पठार और इसकी लंबाई के साथ-साथ पार्श्व मंडल इसकी विशेषता है। ये कटक मंद ढाल वाले पठार, तीव्र ढाल वाले पर्वत दोनों रूपों में मिलते हैं। कहीं-कहीं ये समुद्री जल स्तर से ऊपर उठकर द्वीप बन जाते हैं। जैसे— एजोर्स द्वीप मध्य महासागरीय कटक के मध्यवर्ती भाग में उपस्थित द्रोणी वास्तव में सक्रिय ज्वालामुखी हैं ।

भूकम्प व ज्वालामुखी का वितरण Distribution of Earthquakes and Volcanoes

विश्व में भूकम्पों का वितरण उन्हीं क्षेत्रों से संबंधित है जो अपेक्षाकृत कमजोर तथा अव्यवस्थित हैं। अटलांटिक महासागर के मध्यवर्ती भाग में तटरेखा के लगभग समानान्तर एक बिन्दु रेखा जो आगे हिन्द महासागर तक जाती हैं और भारतीय उपमहाद्वीप के थोड़ा दक्षिण दो भागों में बँट जाती है। इसकी एक शाखा पूर्वी अफ्रीका की ओर चली जाती है तथा दूसरी रेखा म्यांमार से होती हुई न्यू गिनी पर एक ऐसी ही रेखा से मिल जाती है।

हम पाते हैं कि यह बिंदु रेखा मध्य महासागरीय कटकों के समरूप है। भूकम्पीय संकेन्द्रण का दूसरा क्षेत्र 'छायांकित मेखला' (Shaded-belt) के माध्यम से दिखाया गया है, जो अल्पाइन हिमालय (Alpine-Himalayan) श्रेणियों के और प्रशांत महासागरीय किनारों के समरूप है । सामान्यतः मध्य महासागरीय कटकों के क्षेत्र में भूकंप के उद्गम केन्द्र कम गहराई पर है जबकि अल्पाइन हिमालय पट्टी व प्रशांत महासागरीय किनारों पर ये केन्द्र अधिक गहराई पर हैं। दूसरी ओर हम पाते हैं कि ज्वालामुखी मानचित्र भी इसी का अनुसरण करते हैं। प्रशान्त महासागर के किनारों को सक्रिय ज्वालामुखी के क्षेत्र होने के कारण रिंग ऑफ फायर' ( Ring of fire) कहा जाता है।

सागर नितल का प्रसरण Sea-floor Spreading

भू-आकृति विज्ञान में सागर नितल प्रसरण का विचार एक नवीन विकास है, जो महाद्वीप प्रवाह के सिद्धांत को सही सिद्ध करता है। इस सिद्धांत का प्रतिपादन संयुक्त रूप से प्रिस्टन विश्वविद्यालय के प्रो० हैरी एच. हेस (Harry H. Hess) तथा रॉबर्ट डीट्ज (Robert S. Dietz) ने 1960 ई० में किया। सागर नितल का विचार सागरीय भू-वैज्ञानिकों तथा भू-भौतिकविदों के सम्मिलित शोध के विश्लेषण का परिणाम है। इनमें मारिस एविंग तथा उसके सहयोगी शोधकर्त्ताओं की प्रमुख भूमिका रही है। हैस और डीट्ज ने इन सागरीय तलों के प्रसरण को ऐसी प्रक्रिया या विधि बतलायी जो पर्वत श्रृंखला का निर्माण करती है तथा महाद्वीपीय संचलन को गति देती है। हेस के अनुसार अन्तः सागरीय पर्वत श्रृंखलाएँ जिन्हें मध्य महासागरीय कटक कहते हैं, का निर्माण उष्ण क्षेत्रों से तप्त मैग्मा के ऊपर की ओर प्रवाह से हुआ है। ये उष्ण क्षेत्र ऊपरी मैंटल, दुर्बलतामंडल (Asthenosphere) तथा इससे गहरे संबंधित क्षेत्र माने गये हैं। जब मैंटल से संवहन द्वारा मैग्मा ऊपरी भूपटल पर आता है तो भू-पटल विभाजित (fractured ) हो जाता है तथा मैग्मा सागरीय भागों में फैलकर ठंडा होकर नवीन सागरीय नितल का रूप लेता है। फलस्वरूप कटक का निर्माण हो जाता है। सागरीय भू-वैज्ञानिकों ने 1950 ई० से 1960 ई० के दौरान विभिन्न शोध विश्लेषण कर सागरीय नितल के बारे में निम्नांकित निष्कर्ष निकाले—

1. सागरीय नितल के नीचे स्थित पर्पटी केवल 6 से 7 किमी मोटी पायी जाती है, जबकि महाद्वीपीय भागों पर यह लगभग 30 से 40 किमी तक मोटी पायी जाती है।

2. सागरीय भू-वैज्ञानिकों को मध्य अटलांटिक कटक की जानकारी थी, लेकिन उन्होंने यह पता लगाया कि मध्य महासागरीय कटक वर्तमान में सभी महासागरों में उपस्थित है, जो भूकंप एवं ज्वालामुखी से संबंधित है

3. सागरीय नितल की शैलें कहीं भी क्रिटेशियस युग (135 मिलियन वर्ष पूर्व) से पूर्व की नहीं मिलती हैं                                                 उपर्युक्त खोजों के आधार पर हैरी हेस ने बताया कि सागरीय नितल गतिशील है तथा मैग्मा पृथ्वी के मैंटल से संवहन द्वारा ऊपर सागरीय पटल पर मध्य महासागरीय कटकों के सहारे आता है, जहाँ से कटक के दोनों ओर जमा हो जाता है तथा अंत में महाद्वीपीय तटों के सहारे स्थित खाइयों (trenches) में भर जाता है वास्तव में सागरीय नितल सापेक्षिक रूप से पृथ्वी तल की नवीन स्थलाकृति है। इस प्रसरण प्रक्रिया द्वारा नितल का निर्माण होता है।                                         दूसरी ओर महाद्वीपों को पुरानी तथा स्थायी स्थलाकृतियाँ माना गया है, जो सक्रिय रूप से खिसक रहे हैं तथा साथ-साथ मैंटल के पीछे संवहन तरंगें उत्पन्न होती हैं ये सभी तथ्य यह सिद्ध करते हैं कि महाद्वीप एवं महासागर गतिशील हैं। प्रो. हैरी हेस ने अपने 'सागर नितल प्रसरण' के सिद्धांत के पक्ष में निम्नांकित साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं -                                                   1. मध्य महासागरीय कटकों के सहारे भूकम्पों का पाया जाना

2. मध्य महासागरीय कटकों के शिखरों (crests) पर अवसादों की कमी तथा मध्य अटलांटिक कटक के सहारे स्थित सक्रिय ज्वालामुखी द्वीपों का पाया जाना, 'सागर नितल प्रसरण' के सिद्धांत को स्पष्ट करता है। इसके अतिरिक्त कटक से दूर जाने के साथ ही अवसादी जमावों की मोटाई भी बढ़ती जाती है। लेकिन यह तथ्य असंगत (inconsistent) है, क्योंकि कटक से दूर स्थित क्षेत्र पुराने हैं, जहाँ लंबे समय से अवसाद जमा होती रही है।                   3. महासागरीय कटक दूरी के साथ बेसाल्टिक परत के ऊपर स्थित सागरीय अवसाद के किनारे (the edge of marine sediments) विस्तृत हो जाते हैं। उदाहरण के लिए महासागर में कटक के सहारे स्थित अवसाद की आयु सात मिलियन वर्ष से कम है, जबकि इससे दूर स्थित अवसादों की आयु 160 मिलियन वर्ष आकलित की गयी है।                                                                    4. पृथ्वी के मुख्य चुम्बकीय क्षेत्रों में विपरीत संबंध पाया जाना । इन्हें चुम्बकीय क्षेत्र या चुम्बकीय द्वीपों के रूप में जाना जाता है।

 

5. मध्य महासागरीय कटकों के दोनों तरफ सामान्य विपरीत चुम्बकीय विसंगतियाँ (magnetic anomalies) पायी जाती हैं।    नवीन शोध के उपरान्त स्पष्ट हुआ है कि मध्य महासागरीय कटकों के सहारे भूगर्भिक ऊर्जा के पर्याप्त स्रोत हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि यहाँ भूगर्भ से तप्त लावा निःसृत होने से ऊष्मा की प्राप्ति होती है। हेस द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों से निष्कर्ष निकलता है कि—

1. सागर नितल का सतत प्रसरण हो रहा है।                                 2. मध्य महासागरीय कटकों के सहारे नवीन बेसाल्ट परत का निर्माण हो रहा है

3. बेसाल्ट से निर्मित नवीन परत दो समान भागों में विभक्त होकर मध्य महासागरीय कटकों से दूर विस्थापित हो जाती है।

4. मध्य महासागरीय कटकों के दोनों ओर सकारात्मक एवं ऋणात्मक चुम्बकीय विसंगतियों (magnetic anomalies) की पट्टियाँ वैकल्पिक रूप में मिलती हैं पृथ्वी के भू-चुम्बकीय क्षेत्र (geomagnetic fields ) सामयिक रूप से विपरीत दिशा में बदलते हैं, जिसमें दक्षिण चुम्बकीय ध्रुव उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव के साथ अपनी अवस्थिति बदलता रहता है। इस ध्रुवीय विपरीत परिवर्तन के दौरान नवीन बेसाल्ट के भू-पटल पर आने से सागर तल का प्रसारण होता है ।

प्लेट विवर्तनिकी Plate tectonics

प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत 20वीं शताब्दी की महत्वपूर्ण देन है। महाद्वीप एवं महासागरों की उत्पत्ति से संबंधित यह नवीनतम सिद्धांत है। प्लेट विवर्तनिकी शब्दावली का सर्वप्रथम प्रयोग टोरंटो विश्वविद्यालय के टूजो विल्सन ने 1965 ई० में किया था । यद्यपि इससे पहले इस सिद्धांत का प्रतिपादन 1960 ई० में प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के प्रो० हेरी एच. हेस ने किया था किन्तु इसकी वैज्ञानिक व्याख्या का श्रेय प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के डब्ल्यू. जे. मॉर्गन को दिया जाता है जिन्होंने सर्वप्रथम 1967 में 'प्लेट' विवर्तनिकी सिद्धांत का प्रथम प्रकाशन किया था। टूजो विल्सन के बाद ओपडाइक, स्कलेटर, मॉर्गन, वैलेन्टाइन, मूर्स, पार्कर, हालस तथा होम्स इस सिद्धांत के प्रमुख विचारक हैं।                           इस सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी की भू-पर्पटी अनेक छोटी बड़ी प्लेट श्रृंखला में बँटी हुई माना गया है, जो ऊपरी मैंटल में संवहन क्रिया द्वारा गतिशील होता है। प्लेटों के किनारे अत्यधिक भू-गर्भिक क्रियाओं जैसे कि सागर नितल प्रसरण, भू-पटल विरूपण, पर्वत-निर्माण, ज्वालामुखी उद्भेदन और महाद्वीपीय विस्थापन का प्रमुख स्थान है स्थलीय दृढ़ भूखंड को 'प्लेट' कहते हैं। एक विवर्तनिक प्लेट (जिसे लिथोस्फेरिक प्लेट भी कहा जाता है), ठोस चट्टान का विशाल एवं अनियमित आकार का खंड है, जो महाद्वीपीय और महासागरीय स्थलमंडलों से मिलकर बना है।'Tectonics' (टेक्टोनिक्स) शब्द यूनानी भाषा के शब्द 'Tektonikos' (टेक्टोनिको) से बना है, जिसका अर्थ होता है 'भवन निर्माण' (Building) अथवा संरचना | टेक्टोनिक आन्तरिक बलों के परिणामस्वरूप भू-पृष्ठ के विरूपण, जो स्थलमंडल में विभिन्न प्रकार की संरचनाएँ कर सकता है—का संकेत देता है। विवर्तनिकी प्रतिक्रियाओं के अंतर्गत प्लेट-संचलन, मैग्मा उत्स्रवण, भू-पृष्ठ का क्षेपण, वलन, भ्रंशन, भूकम्प और ज्वालामुखी विस्फोट आदि को सम्मिलित किया जाता है।

स्थलमंडलीय प्लेटें Lithospheric Plates

 प्लेटें स्थलमंडल (Lithosphere) की वृहत् खंड होती हैं ये प्लेटें दुर्बलतामंडल (Asthenosphere) पर एक दृढ़ इकाई के रूप में क्षैतिज अवस्था में चलायमान हैं और अन्य प्लेट से स्वतंत्र संचलन करती हैं स्थलमंडल में ठोस भू-पर्पटी जो केन्द्रीय क्रोड को चारों ओर से घेरे हुए हैं, जिनमें अविछिन्न सीमा (SiMa) एवं विच्छिन्न 'सियाल' (SiAl) के भाग को सम्मिलित किया जाता है। प्लेट की मोटाई महासागरों में 5 से 100 किमी तथा महाद्वीपीय भागों में लगभग 200 किमी है। एक प्लेट को महाद्वीपीय या महासागरीय प्लेट भी कहा जा सकता है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि उस प्लेट का अधिकतर भाग महाद्वीप या महासागर से संबद्ध है। जैसे यूरेशियन प्लेट को महाद्वीपीय प्लेट तथा प्रशांत प्लेट को मुख्यतः महासागरीय प्लेट कहा जाता है। 'लॉ पियोन' ने 1968 ई० में पृथ्वी को 7 प्रमुख प्लेटों और 14 लघु प्लेटों में विभाजित किया था। नवीन मोड़दार पर्वत श्रेणियाँ, खाइयाँ और भ्रंश इन मुख्य प्लेटों का सीमांकन करते हैं (चित्र- 5.12)। नासा (NASA) के अनुसार प्लेटों की संख्या 100 तक बतायी गयी हैं। परन्तु अभी तक मात्र 6 बड़ी तथा 20 छोटी प्लेटों को पहचाना गया है। हालांकि कुछ विद्वान मुख्य अमेरिकी प्लेट को दो भागों क्रमशः उत्तरी अमेरिकी व दक्षिणी अमेरिकी प्लेट में विभक्त करते हैं। बड़ी व छोटी प्लेटें निम्नांकित हैं।

प्रमुख प्लेट Major Plates

1. अफ्रीकी प्लेट : इसमें पूर्वी अटलांटिक तल शामिल हैं।

2. उत्तरी अमेरिकी प्लेट इसमें पश्चिमी अंधमहासागरीय तल सम्मिलित हैं तथा दक्षिणी अमेरिकन प्लेट व कैरीबियन द्वीप इसकी सीमा का निर्धारण करते हैं।

3. दक्षिण अमेरिकी प्लेट : पश्चिमी अटलांटिक तल समेत और उत्तरी अमेरिकी प्लेट एवं कैरीबियन द्वीप इसे पृथक करते हैं।

4. अण्टार्कटिका प्लेट इसमें अंटार्कटिका से घिरा महासागर भी शामिल है।

5. इण्डो- आस्ट्रेलियन न्यूजीलैंड प्लेट

6. यूरेशियन प्लेट इसमें पूर्वी अटलांटिक महासागरीय तल सम्मिलित हैं।

7. प्रशान्त महासागरीय प्लेट

लघु प्लेटें Minor Plates

1.अरेबियन प्लेट : इसमें अधिकतर अरब प्रायद्वीप का भू-भाग सम्मिलित हैं।

2. बिस्मार्क प्लेट ।

3. कैरीबियन प्लेट ।

4. कोरोलिना प्लेट : यह न्यू गिनी के उत्तर में फिलिपियन व इंडियन प्लेट के बीच स्थित है।

5. कोकोस प्लेट : यह प्लेट मध्यवर्ती अमेरिका और प्रशांत महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।

6. जुआन डीर-प्यूका प्लेट ।

7. नजाका प्लेट अथवा पूर्वी प्रशान्त प्लेट : यह दक्षिण अमेरिका व प्रशान्त महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।

8. फिलिपाइन प्लेट : यह एशिया महाद्वीप और प्रशान्त महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।

9. स्कॉटिया प्लेट

10. इण्डियन प्लेट |

11. पर्सियन प्लेट ।

12. अनातोलियन प्लेट

13. चायना प्लेट ।

14. फ्यूजी प्लेट : यह आस्ट्रोलिया के उ. पू. में स्थित है। ये प्लेटें पृथ्वी के पूरे इतिहास काल में लगातार गतिशील हैं। वेगनर महोदय की संकल्पना कि केवल महाद्वीप गतिशील हैं, सही नहीं है; क्योंकि महाद्वीप एक प्लेट का हिस्सा है और प्लेट गतिशील है। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि भूवैज्ञानिक इतिहास में सभी प्लेटें गतिशील रही हैं और भविष्य में गतिशील रहेंगी  वेगनर महोदय के अनुसार प्रारंभिक काल में सभी महाद्वीपों से मिलकर बना एक सुपर महाद्वीप (Super Continent) पैंजिया के रूप में विद्यमान थे । यद्यपि बाद की खोजों ने यह स्पष्ट किया कि महाद्वीपीय पिण्ड, जो प्लेट के ऊपर स्थित हैं, भू-वैज्ञानिक कालपर्यन्त गतिमान थे और पैंजिया अलग-अलग महाद्वीपीय खंडों के अभिसरण से बना था, जो कभी एक या किसी दूसरी प्लेट के हिस्से थे। पुराचुंबकीय (Palaeomagnetic) आँकड़ों के आधार पर वैज्ञानिकों ने विभिन्न भूकालों में प्रत्येक महाद्वीपीय खंड की अवस्थिति निर्धारित की है। भारतीय उपमहाद्वीप (अधिकांशतः प्रायद्वीपीय भारत) की अवस्थिति नागपुर क्षेत्र में पायी जाने वाली चट्टानों के विश्लेषण के आधार पर आँकी गयी है।

जैसा कि अभी तक आप यह जान चुके हैं कि अधिकांश प्लेटों में दोनों ही महाद्वीपीय और महासागरीय भू-पृष्ठ सम्मिलित रहते हैं। प्लेटों का क्षेत्रफल उनकी गहराई और मोटाई की तुलना में स्पष्ट रूप से अधिक है यह भी स्थापित किया जा चुका है कि महासागरों के नीचे प्लेटों की गहराई कम है।

प्लेट सीमाएँ अथवा किनारे Plate Boundaries or Margins

ज्ञातव्य है कि लघु प्लेट बड़े प्लेटों से स्वतंत्र होकर चलायमान हो सकते हैं। इन प्लेटों की सीमाएँ या तो वक्र होंगी अथवा सीधी भी हो सकती हैं और विशेष प्लेट जैसे ही गतिशील होती हैं, घूम भी सकती हैं। प्लेटें भिन्न रफ्तार से घूमती हैं क्योंकि विभिन्न प्लेटों की आकृतियों और गति में अनेक ज्यामितीय भिन्नताएँ होती हैं। प्लेटों के विषुवत रेखा में घूमने की रफ्तार तीव्र होती हैं, जबकि ध्रुवों पर यह रफ्तार धीमी होती हैं। इस सिद्धांत के अनुसार इन प्लेटों के किनारे ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि इन्हीं किनारों के सहारे ही भूकंपीय (seismic), ज्वालामुखीय तथा विवर्तनिक (tectonic) घटनाएँ घटित होती हैं। अतः प्लेट के इन्हीं किनारों का अध्ययन अति महत्वपूर्ण है। प्लेट की सीमाएँ भिन्न हो सकती हैं। सामान्य रूप में प्लेट के किनारों को तीन प्रकारों (चित्र - 5.10) में बाँटा जाता है। ये निम्नकित हैं—

1. रचनात्मक प्लेट किनारा अथवा अपसारी सीमाएँ (Constructive Plate Margin or Divergent Plate Boundaries): जब दो प्लेटें एक-दूसरे के विपरीत दिशा में गतिशील होते हैं तो दोनों के मध्य एक दरार पड़ जाती हैं, जिन्हें 'प्रसारी स्थान' (spreading site ) भी कहा जाता है। प्रसारी स्थान के सहारे एस्थेनोस्फेयर का मैग्मा ऊपर आता है और ठोस होकर भू-पर्पटी का निर्माण करता है। अतः इन प्लेट किनारों को 'रचनात्मक किनारा' कहते हैं तथा इस तरह की प्लेटें 'अपसारी प्लेटें' कहलाती हैं। इस तरह की घटनाएँ मध्य महासागरीय कटकों के सहारे घटित होती हैं। मध्य अटलांटिक कटक इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। यहाँ से अमेरिकी प्लेटे (उत्तर अमेरिकी व दक्षिणी अमेरिकी प्लेटे) तथा यूरेशियन व अफ्रीकी प्लेटें अलग हो रही हैं।

2. विनाशात्मक प्लेट किनारा अथवा अभिसारी सीमाएँ (Destructive Plate Margins or Divergent Plate Boundaries): जब दो प्लेटें आपस में टकराती हैं तो अधिक घनत्व की प्लेट कम घनत्व की प्लेट के नीचे क्षेपित (subduct) हो जाती है। इस क्षेत्र को 'बेनी मेखला' या 'बेनी ऑफ जोन' (Bani of Zone) कहते हैं। चूँकि यहाँ प्लेट का विनाश होता है, अतः इसे विनाशात्मक किनारा कहते हैं तथा ऐसी प्लेटें अभिसारी प्लेट (converging plate) कहलाती है।

अभिसारी प्लेट की अंतः क्रिया की तीन दशाएँ हो सकती हैं। (a) जब एक अभिसारी प्लेट महाद्वीपीय व दूसरा महासागरीय हो तो महासागरीय प्लेट अधिक भारी होने के कारण महाद्वीपीय प्लेट के नीचे क्षेपित हो जाती है, जिससे गर्त का निर्माण होता है एवं उसमें अवसादों के निरंतर जमाव व वलन से मोड़दार पर्वतों का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए रॉकी व एडीज पर्वत । बेनी ऑफ जोन' (Bani of Zone) में पिघला हुआ मैग्मा ही भूपर्पटी को तोड़ते हुए ज्वालामुखी का निर्माण करती है। उदाहरण के लिए अमेरिकी प्लेट का पश्चिमी किनारा जहाँ पर्वतों का निर्माण हुआ है, ज्वालामुखी उद्गार देखने को मिलता है। एंडीज के आन्तरिक भागों में कोटोपैक्सी व चिबाराजो जैसे ज्वालामुखी का पाया जाना इसी अतः क्रिया द्वारा समझा जा सकता है।

(b) जब दोनों प्लेट महासागरीय हों तो अपेक्षाकृत बड़े व भारी प्लेट का धँसाव होता है एवं गर्त व ज्वालामुखी द्वीप की एक श्रृंखला -सी बन जाती है। प्रशांत प्लेट व जापान या फिलीपींस प्लेट की अभिसरण क्रिया के द्वारा इसे समझा जा सकता है।

(c) जब दोनों प्लेटें महाद्वीपीय हों तो 'बेनी ऑफ जोन' क्षेत्र में क्षेपण इतना प्रभावी नहीं हो पाता कि ज्वालामुखी उत्पन्न हो सके। परन्तु ये क्षेत्र भूगर्भिक रूप से अस्थिर क्षेत्र होते हैं एवं यहाँ बड़े मोड़दार पर्वतों का निर्माण होता है। यूरेशियन प्लेट व इंडियन प्लेट के टकराने से टेथिस भूसन्नति के अवसादों के वलन व प्लेटीय किनारों के मुड़ाव से उत्पन्न हिमालय पर्वत का उदाहरण इस संदर्भ में दिया जा सकता है।

3. संरक्षी/ संतुलित प्लेट किनारे अथवा बदली हुई सीमाएँ (Conservative Plate Margin or Transform Boundaries): जब दो प्लेटे एक-दूसरे के समानान्तर खिसकती हैं तो इनमें कोई अन्तःक्रिया नहीं होती। अर्थात् इस किनारे पर न ही प्लेट का विनाश होता है और न ही नई प्लेट का निर्माण होता है, उन्हें 'संरक्षी किनारा' या 'रूपान्तर सीमा' कहते हैं। यहाँ 'रूपान्तर भ्रंश (transform faults) का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए कैलिफोर्निया के निकट का 'सान एंड्रियास फॉल्ट’।

रूपान्तर भ्रंश (Transform faults): रूपान्तर भ्रंश दो प्लेट को अलग करने वाले तल हैं, जो सामान्यतः मध्य महासागरीय कटकों से लंबवत् स्थिति में पाये जाते हैं। क्योंकि कटकों के शीर्ष पर एक ही समय में सभी स्थानों पर ज्वालामुखी उद्गार नहीं होता, ऐसे में पृथ्वी के अक्ष से दूर प्लेट के हिस्से भिन्न प्रकार से गति करते हैं। इसके अतिरिक्त पृथ्वी के घूर्णन का भी प्लेट के अलग खंडों पर भिन्न प्रभाव पड़ता है ।

 

प्लेट प्रवाह दरें

 

Rates of Plate Movement

 

मध्य महासागरीय कटक के समानान्तर फैली सामान्य व उत्क्रमण चुंबकीय क्षेत्र की पट्टियाँ, प्लेट प्रवाह की दर निर्धारित करने में वैज्ञानिकों के लिए सहायक साबित हुई हैं। प्रवाह की ये दरें पूरे ग्लोब पर बहुत भिन्न हैं । ईस्टर द्वीप के निकट पूर्वी प्रशांत महासागरीय उभार, जो चिली से 3,400 किमी पश्चिम की ओर दक्षिण प्रशान्त महासागर में है, की प्रवाह दर सर्वाधिक

15 सेमी / वर्ष से भी अधिक है, वहीं आर्कटिक कटक की प्रवाह दर सबसे कम 2.5 सेमी / वर्ष से भी कम है।

 

प्लेट संचलन के कारण : आर्थर होम्स ने 1930 में यह बताया कि अधोपर्पटी संवहन धाराएँ तापीय संवहन की क्रियाविधि आरंभ करती हैं, जो प्लेटों के संचलन के लिए प्रेरक बल के रूप में काम करती हैं। पृथ्वी के भीतर ताप उत्पत्ति के दो माध्यम हैं— रेडियोधर्मी तत्वों का क्षय और अवशिष्ट ताप उष्ण धाराएँ ऊपर उठती हैं तथा जैसे ही वे भूपृष्ठ पर पहुँचती हैं, वे ठंडी हो जाती हैं और नीचे की ओर चलने लगती हैं। इस प्रकार यह संवहनीय संचलन भू-पर्पटी प्लेटों को गतिशील कर देता है। संचलन के कारण स्थलमंडल की प्लेटें, जो नीचे के अधिक गतिशील एस्थेनोस्फेयर पर तैर रही हैं, निरंतर गति में रहती हैं। यद्यपि सागरीय अधःस्तर विस्तार और प्लेट विवर्तनिक—दोनों सिद्धांतों ने इस बात पर बल दिया कि पृथ्वी का धरातल व भू गर्भ दोनों ही स्थिर न होकर गतिमान हैं। प्लेट विचरण करती है—यह आज एक अकाट्य तथ्य है । यद्यपि भू-पर्पटी के नीचे ऐसी क्रियाविधि के अस्तित्व को सिद्ध करने का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, फिर भी अतीत में हुई ज्वालामुखी क्रिया के छोटे केन्द्र, जो बहुधा किसी सक्रिय प्लेट सीमा से दूर स्थलमंडल पर स्थित हैं, संवहन धाराओं के प्रभाव का संकेत होते हैं। ज्वालामुखी क्रिया के ये केन्द्र तप्त स्थल कहलाते हैं। डब्लू जैसन मॉर्गन ने 1971 ई० में तप्त स्थल की परिकल्पना की। उनके अनुसार मैंटल में मैग्मा का स्रोत अपने स्थान पर स्थिर रहता है, जबकि इसके ऊपर स्थिर स्थलमंडलीय प्लेटें निरंतर संचलित होती हैं। इस प्रकार किसी तप्त स्थल के ऊपर ज्वालामुखियों की रचना होती है लेकिन कालान्तर में मैग्मा - स्रोत से दूर खिसक जाते हैं और मृत हो जाते हैं। ये मृत ज्वालामुखी एक श्रृंखला की रचना करते हैं, जो प्लेट संचलन के प्रमाण हैं ।

प्लेट

 

सीमाएं

 

प्लेट गति

सागर नित्तल

अवलोकित घटनाएं

उदाहरण अवस्थितियां

अपसारी

प्लेट सीमाएं

महासागर महासागर

 

सागर नित्तल प्रसरण द्वारा निर्मित आकृति

प्रसरण स्थल पर कटक आकार । सागर बेसिन विस्तार, प्लेट क्षेत्रफल विस्तार, अनेक छोटे ज्वालामुखीय अथवा छिछले भूकम्प

 

मध्य,अन्ध महासागर,कटक, पूर्वी प्रशांत उभार

 

महाद्वीप महाद्वीप

अलग

जैसे ही महाद्वीप विभाजित होते हैं: नवीन महासागर बेसिन का निर्माण

महाद्वीप प्रसरण, केन्द्रीय रिफ्ट ध्वस्त, महासागर प्रदेश

 

पूर्वी अफ्रीका रिफ्ट

अवसारी प्लेट सीमाएं

महासागर महाद्वीप

साथ-साथ

क्षेपण मंडल पर नष्ट

 

कम घने महाद्वीप के नीचे घने महासागरीय  स्थलमंडल का डूबना। नीचे जाती प्लेट का भूकम्प मार्ग ढूंढ़ना, क्योंकि ये दुर्बल मंडल में नीचे प्रवेश कर जाते हैं, क्षेपित प्लेट पिघल जाती है। मैग्मा का ज्वालामुखी बनने के लिए उभार होता है।

 

पश्चिमी -दक्षिणी अमेरिका

 

 

 

 

पुरानी, ठंडी, अधिक घनी पर्पटी । गंभीर भूकंप, गहरी खाइयाँ बनती हैं। क्षेपित प्लेट ऊपर मैंटल में गरम होती है, मैग्मा ज्वालामुखी वक्रीय श्रृंखला बनाने के लिए मैग्मा का आभार

 

एलूशियन मेरीयानास

 

महाद्वीप महाद्वीप

 

उपलब्ध नहीं

ग्रेनाइट के महाद्वीप स्थलमंडल के ढेरों के बीच टकराव ढेर क्षेपित नहीं होता है । प्लेट किनारे संपीड़ित, वलित, उत्थान, एक के नीचे दूसरा

 

हिमालय,आल्पस

 

 

एक-दुसरे को पीछे छोड़ती

न तो निर्मित होती है और न नष्ट होती है

भूमंडलीय प्लेट के सहारे भ्रंश एक-दूसरे को पीछे छोड़ती है । भ्रंश के सहारे तेज भूकंप

सान एण्ड्रेस भ्रंश

 

प्लेट विवर्तनिकी की तीन प्रमुख मान्यताएं-

प्लेट विवर्तनिकी की तीन प्रमुख मान्यताएं है-

(i) सागर नितल का प्रसरण होता है।

(ii) नष्ट हुई भू-पर्पटी का क्षेत्रफल नई बनी भू-पर्पटी के क्षेत्रफल के लगभग बराबर होता है।

(iii) नई भूपर्पटी कठोर प्लेट का भाग बन जाती है, जिसमें महाद्वीपीय पदार्थ समाविष्ट हो भी सकता है और नहीं भी।

ऐसी क्रियाविधि के अस्तित्व को सिद्ध करने का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, फिर भी अतीत में हुई ज्वालामुखी क्रिया के छोटे केन्द्र, जो बहुधा किसी सक्रिय प्लेट सीमा से दूर स्थलमंडल पर स्थित हैं, संवहन धाराओं के प्रभाव का संकेत होते हैं। ज्वालामुखी क्रिया के ये केन्द्र तप्त स्थल कहलाते हैं। डब्लू जैसन मॉर्गन ने 1971 ई० में तप्त स्थल की परिकल्पना की। उनके अनुसार मैंटल में मैग्मा का स्रोत अपने स्थान पर स्थिर रहता है, जबकि इसके ऊपर स्थिर स्थलमंडलीय प्लेटें निरंतर संचलित होती हैं। इस प्रकार किसी तप्त स्थल के ऊपर ज्वालामुखियों की रचना होती है लेकिन कालान्तर में मैग्मा स्रोत से दूर खिसक जाते हैं। और मृत हो जाते हैं। ये मृत ज्वालामुखी एक श्रृंखला की रचना करते हैं, जो प्लेट संचलन के प्रमाण हैं।

भारतीय प्लेट का संचलन Movement of the Indian Plate

भारतीय प्लेट के अन्तर्गत प्रायद्वीपीय भारत और आस्ट्रेलिया महाद्वीपीय भाग सम्मिलित किये जाते हैं। भारतीय प्लेट के उत्तरी सीमा का निर्धारण हिमालय पर्वत श्रेणी के साथ-साथ पाया जाने वाला 'प्रविष्ठन क्षेत्र' (Subduction Zone) जो महाद्वीपीय महाद्वीपीय अभिसरण (Continent- Continent Convergence) के रूप में है, इसकी उत्तरी सीमा का निर्धारण करता है। यह पूर्व दिशा में म्यांमार के एकिन्योमा पर्वत से होते हुए एक चाप के रूप में जावा खाई तक फैला हुआ है। इसकी पूर्वी सीमा एक विस्तारित तल (Spreading Site) है. जो आस्ट्रेलिया के पूर्व में दक्षिणी पश्चिमी प्रशान्त महासागर में महासागरीय कटक के रूप में है। इसकी पश्चिमी सीमा पाकिस्तान की किरथर श्रेणियों का अनुसरण करती है। यह आगे मकरान तट के साथ-साथ होती हुई दक्षिण-पूर्वी चागोस द्वीप समूह (Chagos Archipelago ) के साथ-साथ लाल सागर द्रोणी, जो एक विस्तारण तल है, में जा मिलती है। भारतीय तथा आर्कटिक प्लेट की सीमा भी महासागरीय कटक से निर्धारित होती है, जो एक अपसारी सीमा (Divergent Boundary) है और यह लगभग पूर्व-पश्चिम दिशा में होती हुई न्यूजीलैंड के दक्षिण में विस्तारित तल में मिल जाती है।     लगभग 22.5 करोड़ वर्ष पूर्व तक भारत एक बृहत् द्वीप था, जो आस्ट्रेलियाई तट से दूर एक विशाल महासागर में स्थित था टेथिस सागर इसे एशिया महाद्वीप से पृथक करता था। विद्वानों का विश्वास है कि आज से लगभग 20 करोड़ वर्ष पहले जब पैंजिया का विखंडन हुआ तब भारतीय द्वीप उत्तर दिशा की ओर खिसकना प्रारंभ किया। आज से लगभग 4 से 5 करोड़ वर्ष पहले भारत, यूरेशिया से टकराया, जिसके परिणामस्वरूप हिमालय पर्वत का उत्थान हुआ।                आज से लगभग 14 करोड़ वर्ष पहले भारतीय उपमहाद्वीप सुदूर दक्षिण में 50° दक्षिणी अक्षांश पर स्थित था। टेथिस सागर इन दो प्रमुख प्लेटों को पृथक करता था और तिब्बतीय खंड, एशियाई स्थलखंड के करीब था। भारतीय प्लेट जब एशियाई प्लेट की तरफ प्रवाहित हो रहा था उस समय एक प्रमुख घटना घटी। यह घटना थी 'लावा प्रवाह', जिससे दक्कन ट्रैप का निर्माण हुआ। ऐसा माना जाता है कि यह घटना आज से लगभग 6 करोड़ वर्ष पहले प्रारंभ हुई और एक लंबे समय तक जारी रही। जब यह घटना घटी थी उस समय भारतीय उपमहाद्वीप भूमध्यरेखा के निकट अवस्थित था प्रवाह के दौरान जब भारतीय प्लेट यूरेशियन प्लेट के निकट आना प्रारंभ किया, तो इसके बीच अवस्थित टेथिस सागर का मलबा संपीडित हो हिमालय पर्वत के रूप में ऊपर उठ गया। यह घटना आज से लगभग 4 करोड़ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई। वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय की ऊँचाई आज भी बढ़ रही है क्योंकि यह प्रक्रिया अभी भी जारी है।

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